आज जब मैं ट्रेन से घर जा रहा था तब शौचालय के पास एक व्यक्ति बैठा था जिसकी आंखों में डर साफ दिखाई दे रहा था। उसने मुझसे मोबाइल फोन मांगा कि भाई साहब एक फोन करना है। मैंने मोबाइल निकालकर उसके बताये नंबर पर फोन लगाकर उसे दे दिया पर वो फोन में किसी और भाषा में बात कर रहा था जो मेरी समझ में नहीं आ रही थी।
वो व्यक्ति फोन काटकर रोने लगा। मुझे कुछ माजरा समझ नहीं आया। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वो पश्चिम बंगाल का रहने वाला है, यहां मज़दूरी करता है और आज उसके पिताजी की मृत्यु हो गई पर उसका सेठ उसको घर जाने की इजाज़त नहीं दे रहा था तो वो भागकर आ गया। मैंने पूछा ऐसा कैसा सेठ है कानून का डर नहीं है क्या उसे?
उसने बताया कि सेठ के मुंह से निकली बात ही हमारे लिए कानून है और उसका विरोध करने पर सज़ा, जो मारना-पीटना, खाना ना देना कुछ भी हो सकती है। उसके पास पैसे, मोबाइल, ट्रेन का टिकट वगैरह कुछ भी नहीं था और उसे उदयपुर से कोलकत्ता तक का सफर करना था। उस वक्त मुझसे जो मदद हो सकती थी मैंने उस व्यक्ति के लिए की पर एक सवाल था जो मुझे अंदर-ही-अंदर परेशान कर रहा था कि यह कि कैसी मज़दूरी थी जिसमें घर जाने की इजाज़त ना हो।
फिर मैंने इस पर अधिक जानकारी इकट्ठा की तो पता चला कि यह सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, करोड़ों लोग हैं इस देश में ऐसे और इन्हें बंधुआ मज़दूर कहा जाता है।
ऐसे बंधुआ मज़दूरों का पूरा जाल फैला हुआ है। पूरे देश में और पूरी प्रणाली से और योजनाबद्ध तरीके से इन्हें फंसाया जाता है। इस देश के जो गरीब राज्य हैं जैसे बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल में दलाल होते हैं जो इन मज़दूरो को कौड़ियों के दाम में खरीदते हैं और सिर्फ मज़दूर ही नहीं उनके पूरे परिवार को खरीद लेते हैं।
खरीदने का मतलब उन्हें कुछ हज़ार रुपये एडवांस दिए जाते हैं जो कि मज़दूर किसी मज़बूरी की वजह से ले लेते हैं। फिर उन्हें किसी दूसरे राज्य में ले जाया जाता है और वहां पर उनको वो दलाल किसी भट्टे, खदान या किसी फैक्ट्री के मालिक को बेच देता है। फिर इनसे खतरनाक काम जैसे खनन, पत्थर तोड़ना, कांच की चुड़िया बनाना या चिमनी वाले भट्टे पर आग के पास रहना आदि बिना किन्हीं सुरक्षा उपकरणों के करवाये जाते हैं।
जैसे मेरे क्षेत्र में ईट भट्टों पर बंधुआ मज़दूर कार्य करते हैं, ठेकेदार भट्टे के मालिक को मज़दूर दे देगा और उसके बदले पैसे ले लेगा और अब वो मज़दूर वहां दिन-रात काम करता है, अपने पूरे परिवार के साथ। सरकार शिक्षा के अधिकार की बात करती है परंतु इन बंधुआ मज़दूरों के बच्चे शिक्षा, खेल सबकुछ छोड़कर अपने मां-बाप के साथ काम करते हैं इनसे इनका बचपन, इनके सपने सब कुछ छिन लिए जाते हैं।
एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है IJM जो कि भारत में बंधुआ मज़दूरों को छुड़ाने और उन्हें पुनर्स्थापित करने का कार्य प्रशासन और लोकल NGO की मदद से करती है।
उन्हीं में से एक NGO से पूछताछ करने पर पता चला कि ये लोग 18-18 घंटे काम करते हैं और ओवरटाइम तो दूर की बात इन लोगों को न्यूनतम मूल्य भी नहीं दिया जाता और जो एडवांस इन्होंने लिया होता है उसकी उच्च ब्याज़ दरें, कम मज़दूरी एवं अनपढ़ मज़दूरों के हिसाब में गड़बड़ी कर कुछ हज़ार रुपयों के लिए सालों तक और कई बार तो पीढ़ियों तक ये लोग किसी एक जगह बिना किसी तनख्वाह के काम करते रहते हैं।
फिर चाहे इनके गांव में कुछ भी हालात बने भाई की शादी हो या पिताजी की मृत्यु ये लोग नहीं जा सकते। ईट भट्टों पर रहने वाले इन बंधुआ मज़दूरों के घर बद से बदतर होते हैं, घर के नाम पर चारों ओर ईटों की एक बाड़ होती है और ऊपर टीन के छप्पर जिसमें ये लोग बरसात में भीगते हैं और तपती गर्मी में बीमार पड़ते हैं। ठण्ड में ठिठुरते हैं, मूलभूत सुविधाओं के नाम पर इनके पास दो वक्त का खाना है वो भी इसलिए दिया जाता है ताकि अगले दिन काम कर सकें।
1976 में एक कानून बना था (The Bounded System Abolition Act 1976) जिसके बाद 1978 में सरकार द्वारा पहली और आखिरी बार सर्वे करवाया गया जिसके अनुसार 3लाख 43 हज़ार बंधुआ मज़दूर थे परंतु उसके बाद सरकार ने कभी इनकी गणना करने की ज़हमत नहीं उठाई।
भारत सरकार की श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार एक्ट के आने के बाद से 20 जुलाई 2016 तक 2 लाख 82 हज़ार लोगों को मुक्त करवाया गया परंतु 2013 में इंटरनैशनल लेबर आर्गेनाईजेशन के चौंकाने वाले आंकड़े सामने आये हैं जो सरकारों के दावों की पोल खोलती है। (ILO) के अनुसार देश में लगभग 1.17 करोड़ बंधुआ मज़दूर हैं जो कि बहुत ज़्यादा हैं।
स्थानीय प्रशासन की मिलीभगत के कारण यह व्यापार ज़्यादा बढ़ जाता है। DM और SDM की ज़िम्मेदारी इस तरह के मामलों को देखने की है लेकिन उनकी मिलीभगत होने के कारण सब कुछ सरेआम होता है।
NGO वालों ने कहा कि यहां तक कि हम कई बार बंधुआ मज़दूरों का पता लगाकर रेस्क्यू करने के लिए प्रशासन से सहायता मांगते हैं तो वो कई बार टालने की कोशिश करते हैं या वो उसके मालिक को खबर कर देते हैं ताकि वो उन बंधुआ मज़दूरों को छुपा सके क्योंकि यह लोग जहां काम करते हैं वो ईटा भट्टी, खदान अधिकतर वहां के लोकल नेताओं के ही होते हैं।
याद रखियेगा आपके आलिशान मकान में बनने वाली ईटें किसी बंधुआ मज़दूर के आंसुओं को अपने में समेटे हो सकती है। आप जिस आरामदायक बिस्तर पर सोये हैं उसकी रुई हो सकता है किसी छोटे बच्चे के बचपन को उजाड़कर हासिल की गयी हो या फिर आपके हाथों की कांच की चूड़ियों के लिए किसी ने अपनी पूरी ज़िन्दगी एक बंद कमरे में गुज़ार दी होगी।
हम जहां इस देश में निजता के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं, वही इसी देश की सरकार और प्रशासन के नाक के नीचे उन्हीं की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहमति से कुछ लोग मज़दूरों के जीने के अधिकार, बोलने के अधिकार, उनके बच्चों के शिक्षा के अधिकार, स्वास्थ्य, न्यूनतम मज़दूरी आदि कई अधिकारों को छिन रहे हैं। अंग्रेज शासन में जिस तरह से लोगों के मानवाधिकारों को कुचला जाता था वैसे ही आज भी इन मज़दूरों के मानवाधिकारों को कुचला जा रहा है।
बड़ा सवाल यह है कि क्या ये लोग भारतीय नहीं हैं? क्या इनके मानवाधिकार नहीं है? क्या इनकी रक्षा करना राज्य की ज़िम्मेदारी नहीं है? आखिर कब तक हम इनसे भागेंगे, कब तक अपनी आंख मूंदे रहेंगे? इनके हक के लिए, अधिकारों के लिए आगे आना होगा एक सवाल खड़ा करना होगा जो एक समाज होने के नाते हमारी ज़िम्मेदारी है।