2007 में इंजीनियरिंग कॉलेज (BIT रांची) में एडमिशन से पहले तक रेल के सफर के नाम पर गांव से उन्नाव की पैसेंजर ट्रेन और काकादेव (कानपुर) में IIT Entrance की कोचिंग के दौरान उन्नाव से कानपुर जाने वाली लोकल ट्रेनों से ही पाला पड़ा था। गर्मी की छुट्टियों में पापा मम्मी के साथ ताऊजी के घर जबलपुर जाना खुद के सफर में काउंट नही कर रहा क्योंकि तब इतने बड़े नहीं थे कि गूढ़ सामाजिक विसंगतियां समझ सकते।
कानपुर से रांची का सफर 15 घंटे का होता था, दिन के लगभग सारे पहर एक बार के सफर में ही मुलाकात करके चले जाते थे। दोस्तों का साथ इस लंबे सफर को मज़ेदार बनाता था। ट्रेन में कभी हुड़दंगई, कभी ताश, तो कभी यूं ही गप्पें, कहानियां और चुटकुले टाइमपास के लिए चला करते थे।
कॉलेज से घर और घर से कॉलेज के इस रेल वाले सफर में एक और चीज़ कॉमन रहा करती थी, और वो थी तालियां बजाते हुए पैसे मांगते किन्नरों से पाला पड़ जाना। इनका पैसे मांगने का तरीका अजीब लगता था, एक ज़बरदस्ती सा, गुस्सा भी आता था! कभी कभार तो ये लोग मना करने पर भी नहीं मानते थे और कहा सुनी भी हो जाती थी। कभी-कभी इनसे बचने को सोने का बहाना बना लेता और जब वो जगाने की कोशिश करते तो गहरी नींद में होने का नाटक करने लगता और हारकर वो वापस चले जाते। अमूमन उन्हें पैसे देने और ना देने का मेरा लगभग 50-50 का रिकॉर्ड रहा होगा।
एक बार की छुट्टियों की बात है, बगल वाले गांव से एक कज़िन आये हुए थे जो मुझसे उम्र में 5 साल बड़े थे। गप्प-शप्प लड़ाते-लड़ाते मैंने उनसे ये बात भी बता डाली। वो काफी रेलयात्रा कर चुके थे। उन्होंने मेरी पूरी बात सुनी और फिर कुछ सोंचकर अपना किस्सा बताने लगे। वो कभी भी ट्रेन में किन्नरों को पैसे नहीं देते थे। किसी भी तरह का बहाना मार कर या गुस्सा दिखाकर वो उन्हें भगा कर देते थे! पर एक बार उनकी नहीं चली, सामने वाला किन्नर अड़ गया कि पैसे तो देने ही होंगे! भइया ने मना कर दिया कि पैसे तो नहीं मिलेंगे जो करना है कर लो जाके।
माहौल गरम होता देख बगल वाले कम्पार्टमेंट से पैसे मांग रहा उसका साथी आया और उससे कहने लगा, “चल रहने दे, इतना भी ज़बरदस्ती ना कर।” भइया ने उसकी तरफ देखा, तो वो कहने लगा, “आप लोगों के भरोसे ही जी रहे हैं हम लोग और आप लोग ही हाथ हटा लेंगे तो कैसे काम चलेगा।” इतना बोलकर वो अपने साथी को लेकर चला गया। भइया पूरे रास्ते उसकी बात समझने की कोशिश करते रहे। जब वो घर पहुंचे तब तक उन्हें मतलब समझ आ चुका था।
हमारे बीच में कितने किन्नर काम कर रहे हैं? समाज में किस नज़र से वो देखे जाते हैं? समाज में उन्हें कौन एक्सेप्ट करता है? छक्का बोल कर क्यों अपमानित किया जाता है? क्या ऐसी स्थिति में वो आपके साथ काम कर सकते हैं? बिना मज़ाक उड़वाये स्कूल में पढ़ सकते हैं? जब हम समाज में उन्हें स्वीकार नहीं कर रहे, तो उनके लिए क्या ऑप्शन बचता है? अपवाद छोड़ दें तो यही कि वो समाज से निष्कासित रहकर, इस तरह मांगकर अपना पेट पालें। ये सारे सवाल उस दिन भइया के लिए जवाब बन के आये।
मुझे भी उनकी बात समझ आयी और डिसाइड किया कि कम ही सही लेकिन पैसे देने से मना नही करूंगा। सोचा पूरे सफर में कई बार पी जाने वाली चाय में से एक दो कप कम कर दूंगा उन पैसों को मैनेज करने के लिए। आज भी लगभग उसी ढर्रे पर चल रहा हूं। कई बार बहुत उट पटांग और गुंडागर्दी करते किन्नरों से भी पाला पड़ा, गुस्सा भी आया लेकिन उन पर आए गुस्से को उसी सफर में ट्रेन के साथ ही छोड़ आया। कुछ लोगों पर आये गुस्से को जेनरलाइज़ करके पूरी कम्यूनिटी पर गुस्सा नहीं रह सकता!
जब तक समाज में उनको बिना सकुचाये, बिना बेइज्ज़त किये, हेय दृष्टि के बिना देखे और स्वीकार करना चलन में नही आ जाता उनको सपोर्ट करना ज़रूरी है। कोच्ची मेट्रो का ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को नौकरी देना बहुत सार्थक और सराहनीय प्रयास लगा। ऐसे और प्रयास होने चाहिए, सरकारी स्तर पर भी और जिससे भी हो सके प्राइवेट सेक्टर में भी। खुली हवा में बिना डर के ली गई सांस और लोगों की नज़रों से बचते हुए ली गई सांस में बहुत अंतर होता है। कभी ट्राय करियेगा, उनका दर्द समझ आएगा।