डियर,
मैं और कोई नहीं तुम्हारा ‘खत’ हूं। शायद तुम खत लिखना भूल गए तो मैंने सोचा आज खुद तुम्हें याद कर लूं। दुनिया आगे बढ़ चली है और समय तेज़ी से गुज़र रहा है। सिंगल लेन की सड़के दो लेन में बदल चुकी हैं और डबल लेन की सड़के बड़े-बड़े हाईवे में।
समय के साथ सब कुछ बदलता है, मैं भी तो बदल गया इलेक्ट्रॉनिक मेल की शक्ल में। निजी ज़िन्दगी के हंसते मुस्कुराते पलों को शब्दों की शक्ल में कागज़ में समेटे जाना वाला खत, अब कॉर्पोरेट वर्ड में ई-मेल में तब्दील हो चुका है। माउस से लेकर खराब एसी की शिकायत अब एक मेल पर हल होती है।
‘मेल’ पर भले ही आपको हर समस्या का हल और तमाम ज़रूरी जानकारी मिल जाए लेकिन वो अपनापन नहीं मिलता जो एक खत से मिलता है। खैर, मैं तो खुद खत हूं इसलिए अपनी बात क्या ही करूं लेकिन तेज़ी से बदलते इस डिजिटल युग में मैं अकेला, बहुत अकेला हो गया हूं।
एक समय था जब आपके घर से निकल चौराहे पर बने उस लाल-डिब्बे में कुछ दिन गुज़ारता था, वहां मुझे मेरे ढेर सारे दोस्त मिलते थे, जिन्हें मेरी तरह देश के किसी ना किसी कोने में जाना होता था। उस बड़े लाल डिब्बे में हम ढेर सारी बातें करते थे। उसके बाद डाकिया अंकल हमें वहां से निकाल कर नज़दीकी पोस्ट ऑफिस ले जाते थे, जहां मुझे और भी दोस्त मिलते थे। उसके बाद हमें बड़ी-बड़ी लाल गाड़ियों में भरकर अलग-अलग जगह ले जाया जाता था। वहां फिर नए शहर में जाकर हमें हमारी मंज़िल के हिसाब से अलग-अलग किया जाता था, जिसके बाद हम सब डाकिया अंकल के झोलों में बैठकर, उनकी साइकिल से निकल जाते थे अपनी-अपनी मंज़िल की ओर। कभी नौकरी की खुशी वाला अपॉइंटमेंट लेटर तो कभी राखी में बहन का प्यार। ऐसी थी हमारी ज़िन्दगी घुमती फिरती मस्त मज़ेदार।
खैर, अब तो वैसे कुछ भी नहीं है, अब सब कुछ बदल चुका है। ना मैं पहले जैसा रहा और ना मेरे दोस्त। अब तो वो साइकिल वाले बूढ़े डाकिया अंकल अपनी हरी ड्रेस में नहीं दिखते शायद उनकी भी उम्र हो चली होगी। उन्होंने भी बिस्तर पकड़ लिया होगा, बीमार होंगे। तभी आजकल मुझे सड़कों और घर में वो पुराने बूढ़े डाकिया अंकल की जगह बाइक में दौड़ते भैया लोग दिखते हैं, जो एक किक में बाइक स्टार्ट कर फुर्र-फुर्र, फोन का बिल, गैस का बिल, पार्सल, ज़रूरी डॉक्यूमेंट, स्पीड-पोस्ट सब डिलीवर कर देते हैं।
और तो और हर चौराहे पर आसानी से दिख जाने वाला वो लेटर-बॉक्स जहां हमें नए-नए दोस्त मिलते थे अब तो वो भी नहीं दिखता मुझे। कहीं अगर दिखता भी है तो पान की पीक और कूड़े के ढेर में कहीं कोने में दबा हुआ। खैर, मैं उस लाल लेटर बॉक्स को क्या कहूं, जब मेरा ही वजूद खत्म होता जा रहा है तो वो लाल लेटर बॉक्स क्या करेगा शहर के चौराहे पर।
वैसे दिल की बात और किस्से कहानी बताने के लिए अब ‘खत’ की किसको ज़रूरत है। जब लोग फेसबुक टाइम लाइन पर ही लिखकर अपनी सारी बातें कह देते हैं। रंग-बिरंगी इमोजी बनाकर फीलिंग भी एक्सप्रेस कर ही देते हैं। रही बात प्राइवेसी की तो उसके लिए इंस्टाग्राम पर डीएम और फेसबुक पर मैसेंजर है। तो बाकी दिल की बातें वहां हो जाती हैं। तो मेरी ज़रूरत अब कहीं बची नहीं इसलिए जिस सफर को मैंने कभी 8.5X11 इंच के पेपर से शुरू किया था, आज उससे महज़ 5.5 इंच के स्मार्टफोन ने खत्म कर दिया है इसका दुख तो हमेशा रहेगा।
खैर छोड़ो!