भारतीय क्रिकेट में आरक्षण की मांग का मुद्दा नया नहीं है। समाज का एक तबका इस बात का हिमायती रहा है कि क्रिकेट में दलितों की भागीदारी बराबर हो और उन्हें आरक्षण मिले। मोदी सरकार के मंत्री और महाराष्ट्र के जाने-माने नेता रामदास अठावले ने पिछले साल आरक्षण के इस मुद्दे पर बहस छेड़ी थी। तब मैंने खुद से पूछा कि उन्होंने बाकी दूसरे खेलों के लिए ऐसा क्यों नहीं कहा? जवाब था कि उन खेलों में दलितों की भागीदारी क्रिकेट से बेहतर है। इसलिए उन्होंने सिर्फ क्रिकेट की बात की।
कुलीन वर्गों के इस खेल पर हमेशा से ही सवर्णों का प्रभुत्व रहा है। ये एक निर्विवादित साक्ष्य है। ना सिर्फ भारत में बल्कि इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में भी गोरे और कुलीन वर्ग का इस खेल पर एकाधिकार रहा है।
भारत के पहले दलित क्रिकेटर पालवंकर बालू
हिंदुस्तान क्रिकेट के लगभग 86 सालों के इतिहास को उठाकर देखें तो कुल 280 टेस्ट क्रिकेटर्स में से केवल 4 या 5 दलित हुए हैं। विनोद कांबली के पहले जो एक दलित नाम भारतीय क्रिकेट इतिहास में मिलता है वो है पालवंकर बालू। बालू चमार जाति से आते थे जिन्हें तब अछूत समझा जाता था लेकिन, अपनी करिश्माई मध्यम गति की गेंदबाज़ी से उन्होंने 18वीं शताब्दी के अंत से लेकर शुरुआती 19वीं शताब्दी तक भारतीय क्रिकेट का प्रतिनिधित्व किया और पूना (पुणे) हिन्दू स्क्वाड की तरफ से खेलते हुए अंग्रेज़ी और यूरोपियन टीमों को परास्त किया।
शुरुआत में बालू का काम फील्ड का पिच रोल करना और झाड़ू लगाना था-
लेकिन बाकी 10 खिलाड़ियों के मुकाबले मैदान के बाहर पालवंकर बालू की ज़िन्दगी सामान्य नहीं थी। ‘पूना क्लब पवेलियन’ में चाय काल के दौरान जब सारे खिलाड़ी चीनी मिट्टी की कप में चाय पीते थे, बालू सबसे दूर कोने में शांत खड़े होकर कुल्हड़ में चाय पिया करते थे। प्रसिद्ध क्रिकेट इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब, ‘ए कॉर्नर ऑफ ए फॉरेन फील्ड’ में इस खिलाड़ी के बारे में विस्तार से लिखा है। वो बताते हैं,
बालू के पिता ब्रिटिश आयुध कारखाने में काम करते थे। बालू और उनके भाई अंग्रेज़ों द्वारा छोड़े हुए पुराने बल्ले और गेंद से खेला करते थे। बालू का काम फील्ड का पिच रोल करना और झाड़ू लगाना था। धीरे-धीरे वो बल्लेबाज़ों को उनकी प्रैक्टिस में मदद भी करने लगे। बालू घंटों उन्हें अभ्यास कराते लेकिन उन्हें बैटिंग करने का मौका नहीं मिलता।
बालू का कौशल आहिस्ता-आहिस्ता सबके कानों तक पहुंचने लगा था। जल्द ही उन्हें लोकल पूना हिन्दू स्क्वाड की तरफ से खेलने का न्योता मिला। बालू ने बाएं हाथ की अपनी स्पिन गेंदबाज़ी से लोकल ब्रिटिश और यूरोपियन टीमों को हराने में मुख्य भूमिका निभाई। सन 1896 में बालू अपने परिवार के साथ मुंबई आ गए और हिन्दू जिमखाना क्लब से खेलने लगे।
उन्हें अपनी गति और कोण पर नियंत्रण की महारत हासिल थी। जिस खूबसूरती से उनकी गेंद हवा में फिरकी लेते हुए बल्लेबाज़ के विकेट उड़ा ले जाती थी वो अच्छे-अच्छे बल्लेबाज़ों को सोचने का मौका भी नहीं देता था। विरोधी खिलाड़ी बताते थे कि उनका स्टेमिना भी बहुत कमाल का था। बिना थके वो घंटों गेंदबाज़ी किया करते थे।
गुहा ने आगे लिखा है कि 1905 में वेल्स के प्रिंस भारत में क्रिकेट मैच देखने आये थे। वो भारत और इंग्लैंड के सबसे बेहतरीन खिलाड़ियों की भिड़ंत देखना चाहते थे। नतीजा ये हुआ कि बालू की बॉलिंग की बदौलत शाही क्रिकेट टीम भारत से हार गयी। नतीजतन, 30 साल के दलित क्रिकेटर पालवंकर बालू जिसे चाय भी पीनी पड़ती तो मिट्टी के बर्तन में, उसे उस जीत के पश्चात पूरी टीम के साथ खाने का न्योता दिया गया।
पालवंकर को इंग्लैंड टीम से भी मिला था ऑफर
अगले 6 सालों में भारतीय टीम ने कुछ खास तो नहीं किया लेकिन बालू का प्रदर्शन अपने शिखर पर था। उन्होंने कुल 114 विकेट हासिल किये। उन्होंने ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज की टीमों के विरुद्ध खेला। उन्होंने इंग्लैंड के कुछ बेहद प्रतिष्ठित मैदानों पर भी खेला। उनकी उपलब्धि और प्रतिभा की बदौलत उन्हें कई ऑफर आये कि वे वहीं रहें और उनकी टीमों से खेलें, लेकिन उन्होंने उस ऑफर को ठुकरा दिया। पालवंकर बालू भारत वापस लौट आये और दलित समाज के उत्थान के लिए काम करने लगे। वो राजनीति में भी आये और दलितों के अधिकार और भारतीय समाज की मुख्यधारा में उनके पूर्ण एकीकरण और समाकलन का आह्वान किया।