पटेल चेस्ट, मुखर्जी नगर, परमानंद, नेहरू विहार, इंद्रा विहार, गांधी विहार, वज़ीराबाद, संगम विहार इन सारे इलाकों में रहने वाले स्टूडेंट्स एकमुश्त कोचिंग करने मुखर्जी नगर आते हैं, जिनमें अधिकांशत: हरियाणा, बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड के रहने वाले हैं। मुखर्जी नगर की स्थिति वैसी ही है जैसे बिहार में कभी एक गांव से दूसरे गांव तक जाने वाली मिनी बस की होती थी जिसमें 20 लोगों की औकात वाली बस में 45 लोग कोचाए (ठेला-ठेली) हुए रहते थे और कुमार सानू का गाना सुनते हुए रास्ता काट लेते थे। कभी-कभी अति हो जाने पर बस पलटी मार देती थी।
एक तरफ कोचिंग वाला, किताब वाला, अखबार वाला, ढाबा वाला, चाय वाला, दारू वाला, मोमोज़ वाला, भोजन वाला, मिठाई वाला, ऑटो वाला, रिक्शा वाला, पैंफलेट्स वाला, लिफ्लेट्स वाला, एटीएम वाला, ब्ला… ब्ला.. ब्ला… जोड़ते जाइए और हर ‘वाला’ के यहां छात्रों की ज़बरदस्त भीड़। हर जगह अस्त- ब्यस्त वाला माहौल।
दूसरी तरफ होते हैं स्थानीय, या सही शब्द में कहूं तो लैंडलॉर्ड। इन सबसे बोझिल हुए मुखर्जी नगर से गुज़रते हुए लगता है कि कहीं कोई होर्डिंग देह पर ना गिर जाए या किसी दिन सेचुरेशन (saturation) प्वाइंट पर पहुंचकर गांव की उस मिनी बस की तरह मुखर्जी नगर भी पलटी ना मार दे। साल 2015 में नेपाल में जब भूकंप आया था तो दिल्ली हाई कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था।
दिल्ली की अधिकतर बिल्डिंग डेंजर ज़ोन में है, एमसीडी ने अपने हलफनामे में कोर्ट को बताया कि 25 परसेंट बिल्डिंग प्लानिंग के तहत बनी है बाकी 75 परसेंट बिना किसी प्लानिंग के है। हाई कोर्ट ने कहा कि दिल्ली सरकार नेपाल की तरह किसी आपदा का इंतज़ार कर रही है क्या।
उन दिनों हाई कोर्ट की इस टिप्पणी को पढ़ते हुए इन्हीं इलाकों का खयाल आया, अगर भूकंप आ जाए तो तबाही हो जाएगी। पांच-पांच इंच पर जोड़ी गई दिवार, एक गिरी तो सब धराशायी। इस डेंजर ज़ोन में किराए पर मकान को लेने के लिए ठेला-ठेली है। किसी को आईएएस बनना है, किसी को बैंकर, किसी को एसएससी वैगेरह, वगैरह। नया बना हुआ
पच्चीस गज का मकान है तो 9 से 10 हज़ार रुपया। बिना दलाल के मकान नहीं। खाली भी होगा तो भी मकान मालिक नहीं देंगे, क्योंकी सबकी सबसे सेटिंग है, मकान मालिक, दलाल, पानी वाला, ढाबा वाला। असल में ‘अर्थशास्त्र’ तो यहीं आकर समझ आता है।
8,000 हज़ार रुपए का मकान है तो 4,000 रुपया दलाल को मकान दिलाने का और 4,000 रुपया मकान मालिक को रेंट के अलावे सिक्योरिटी मनी मतलब कुल 16,000 हज़ार रुपया। रेंट एडवांस चलेगा, बिजली बिल NDPL के मुताबिक नहीं मनमर्ज़ी सात या आठ रुपया, 200 रुपया पानी बिल। इतना तो हर महीन मकान मालिक को देना है।
अब अकेला इतना खर्चा कौन उठाएगा तो दो से तीन लोग एक साथ कमरा लेते हैं मकान में तीन लोग हैं तो एक-एक कोना पकड़ कर बैठ जाइए। किताब, कपड़ा रखने की जगह नहीं, कमरा नहीं गोदाम। सबसे ज़्यादा दुर्गति ठंड में होती है रज़ाई भी रखने की जगह नहीं। इन इलाकों में रहने वाले स्टूडेंट्स रज़ाई बारह महीने बाहर ही रखते हैं।
लैंडलॉर्ड का अलग से रूल बुक (विशेषकर लड़कियों) के लिए लड़के नहीं आएंगे, नॉनवेज नहीं बनेगा (सब नहीं कुछ लोग), 10 बजे के बाद मेन डोर बंद हो जाएगा। टाइम पर किराया दो, पांच तारीख को घर में शिफ्ट हुए थे तो किराया पांच से पांच चलेगा।
इन तमाम एट्सेटरा… एट्सेटरा…एटसेटरा के बाद भी पढ़ने वाले पढ़ रहे होते हैं। यूपीएससी का ख्वाब देखना और एक से दो बार मेंस में बैठने का मतलब है जैसे सिगरेट पीने की घनघोर आदत लग जाना जब तक फेफड़े में पानी ना भर जाए तब तक चलेगा!
इन सबमें सबसे ज़्यादा फल- फूल रहा है कोचिंग सेंटर और लैंडलॉर्ड। इधर कोचिंग सेंटर का ब्रांच पर ब्रांच तो उधर शहरी ‘सामंतवादियों’ का फ्लोर पर फ्लोर, बिल्डिंग पर बिल्डिंग।
कोचिंग सेंटर इसलिए कि हमारी सरकार आधी रात ‘वन नेशन वन टैक्स’ ला सकती है लेकिन ‘वन नेशन वन एजुकेशन’ नहीं कर सकती। परिणामस्वरूप हिन्दी मीडियम के वह तमाम छात्र- छात्राएं जिन्हें बेहतर प्राथमिक शिक्षा नहीं मिल पाई वो हर चीज़ के लिए कोचिंग पर डिपेंड हैं। कोचिंग अंग्रेज़ी मीडियम का स्टूडेंट भी लेता लेकिन ज़्यादातर पैर्टन समझने के लिए, हिन्दी मीडियम की हालत कोचिंग के गुरू जी लोगों को पूजने वाली होती है कारण भारी तादाद में वे स्टूडेंट्स होते हैं जो पहले से सफाचट्ट होते हैं। (मैं हिन्दी मीडियम के सारे छात्र- छात्राओं को जेनरलाइज़ नहीं कर रही हूं।)
इसी में किसी दिन कोई मकान मालिक तो कभी कोई दलाल या स्थानीय किसी स्टूडेंट पर हाथ उठा देता है, न्याय के लिए छात्र-छात्राएं सड़क पर आ आते हैं और पुलिस लाठी भांजते हुए अपना दायित्व पूरा कर देती है जैसा कि बीते दिन हुआ है। मैं कोई कॉन्क्लूज़न लाइन ड्रॉ नहीं कर रही। बस यही कि तात्कालिक समाधान है कि छात्रों को न्याय मिले। लेकिन यह महज़ तात्कालिक ही होगा।