मुज़फ्फरपुर बलात्कार कांड का विकास से कोई लेना-देना नहीं है। अगर विकास अपने चरम पर हो, हवा में ट्रेन उड़ रही हो या फिर इंसान ही उड़ रहा हो, तो भी ऐसी घटना हो सकती है। ऐसी और भी घटनाएं हैं, जिनका विकास से कोई लेना-देना नहीं है, मसलन गाय के नाम पर हत्या, राह चलते लड़कियों से छेड़खानी, घरेलू हिंसा, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक दंगे। तो हम ये नहीं कह सकते कि विकास नहीं हुआ है, इसलिए ऐसा हो रहा है। ये भी नहीं कह सकते कि विकास हो जाएगा तो ऐसा नहीं होगा।
बाबा राम रहीम और आसाराम के कुकर्म, पढ़ने में सत्रहवीं शताब्दी के लगते हैं। इक्कीसवीं शताब्दी तक इतना विकास तो हो गया था कि ये कुकर्म ना करने पाते। इन दोनों को सज़ा दिलाने में कई लोगों की जानें गई हैं। आसाराम के मामले में एक लड़की का केस लड़ने में देश के कई कोनों में लोगों ने अपनी जान गवां दी, फिर भी कुछ लोग जान पर खेलकर इसको जेल ले गये। दोनों के ही मामलों में इनका रसूख देखकर कभी लगा नहीं कि ये जेल भी जा सकते हैं। यही चीज़ मुज़फ्फरपुर कांड के आरोपी बृजेश ठाकुर के केस में दिख रही है, इसकी हैसियत देखकर लगता नहीं कि इसको सज़ा हो सकती है। ये हंसता हुआ पुलिस कस्टडी में गया था।
मुज़फ्फरपुर में लोगों को बहुत पहले से पता था कि बहुत कुछ खराब हो रहा है इसके शेल्टर होम्स में, पर कोई कुछ नहीं बोल रहा था। मामला CBI के हाथ में जाने के बाद मुख्य गवाह के अलावा सहयोगियों की हत्या हो जाने के कयास लगाये जा रहे हैं। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। इसे सज़ा तभी हो पाएगी, जब कोई जान पर खेलकर लड़कियों का केस लड़ेगा। 34 लड़कियों में से कई तो धीरे-धीरे मुकर जाएंगी, कई गायब हो जाएंगी, एक-दो ही बचेंगी जिनके सहारे केस चलेगा। पर इसके लिए भी कोई चाहिए, जो अंत तक टिका रहे, नहीं तो ये न्यायालय से बाइज्ज़त बरी हो जाएगा।
एक इंसान को न्याय दिलाने में कई इंसानों की ज़िंदगी चली जाएगी। इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा लक्ष्य न्याय ही है। विकास तो हो ही रहा है। क्योंकि विकास किसी के ज़िम्मे नहीं है। इंटरनेट आया तो आ ही गया, मेट्रो आई तो आ ही गई, इसी तरह बाकी चीज़ें भी आ जाएंगी। हो सकता है, धीरे धीरे आए हमारे देश में पर ये सब आने के बाद भी न्याय नहीं मिलेगा।
लोकतंत्र का सबसे बड़ा भरोसा ही है कि पुलिस आएगी और मामले की जांच करेगी, दोषी को जेल ले जाएगी, मुझे न्याय मिलेगा। पर न्याय मिलता नहीं है। चाहे वो बांध से विस्थापित लोग हों, छेड़खानी या दहेज के शिकार हों, घर में हत्या हो गई हो या फिर दंगे में मारे गये लोग हों, कहीं पर भी न्याय नहीं मिला है। अगर कहीं न्याय मिला है तो उसका खूब ज़ोर-शोर से प्रचार किया गया है, क्योंकि हज़ारों में से किसी एक के साथ ऐसा हुआ है। बाकी लोग न्याय की आस में आसमान ताक रहे हैं।
आदिकाल से ये बात चली आ रही है कि न्याय ही नहीं मिलता। न्याय की तलाश में ही राजे रजवाड़े और अंग्रेज़ी राज से होते हुए हम लोकतंत्र तक पहुंचे। किसी भी शासक से ज़्यादा क्रूर होने के बावजूद अंग्रेज़ी राज के प्रति वो घृणा नहीं रहती लोगों के मन में, इसके पीछे उनका न्याय देने का सिस्टम ही है। उन्होंने न्याय का सिस्टम बनाया था, जिनमें राजा भी कटघरे में आता था। उनको भगा कर हम लोकतंत्र ले आये, लगा कि जो भी कमी थी पूरी हो जाएगी, सबको न्याय मिलेगा पर ऐसा हो नहीं रहा है।
गरीबी हटाओ के नारे से हम इक्कीसवीं शताब्दी में आ गये, विकास आएगा, अच्छे दिन आएंगे- सबके नारे लगे पर न्याय नहीं मिला किसी को। कोई देने का वादा भी नहीं करता। आज तक हिंदुस्तान की एक भी सरकार ने न्याय के बारे में बात नहीं की है।
ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि चुनावों से पहले नेताओं को हम इसी बात पर घेरें? न्याय दिलाना भी आपके एजेंडे में रहे। बिना न्याय के सारी चीजें बेमानी हैं। सारा विकास एक-दो परसेंट लोगों को चला जाएगा, आप फिर न्याय नहीं दिला पाएंगे। लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया जाएगा विकास के नाम पर, न्याय फिर नहीं मिलेगा, दर्जनों लड़कियों का रेप कर आरोपी मुस्कराता हुआ निकल जाएगा, क्योंकि विकास के काम में वो आपका सहयोगी रहा था। न्याय तो नहीं मिलेगा, ऐसा विकास लेकर वो लड़कियां क्या करेंगी।
हमें वही सरकार चाहिए, जो न्याय दिलाने का वादा कर सके।