पिछले कुछ दिनों से किसी काम के सिलसिले में दिल्ली के लुटियंस ज़ोन की गलियों के चक्कर काट रहा था। जो लोग इस इलाके से परिचित हैं वे जानते होंगे कि यह भारत का वह सभ्रान्त इलाका है जिसकी गलियां सरकारी हस्तियों के घरों से गुलज़ार है।
इस इलाके की एक विशेषता ट्रैफिक की लाल बत्तियों की अधिकता है। आज़ादी का जश्न नज़दीक था। हर ट्रैफिक सिग्नल पर तिरंगा झंडा और गुब्बारा बेचने वालों की भरमार थी। इनमें से अधिकांश बेचने वाले बच्चे थे। बताते चले कि यह अवलोकन जिन दिनों का है उन दिनों कोई सार्वजनिक अवकाश नहीं था। अधिकांश बच्चे स्कूल जाने की उम्र वाले थे। फिर भी वे स्कूल से बाहर गलियों में सामान बेच रहे थे।
तात्पर्य है कि इन बच्चों और इनके अभिभावकों ने कक्षा की पढ़ाई के बदले तिरंगा और गुब्बारा बेचने को ज़्यादा महत्व दिया। इसके साथ ही रेडलाइट के कारण रुकने वाले साहब लोग भी मेहरबान थे। इन बच्चों की बेचारगी पर तरस खाकर या इन बच्चों से झंडा और गुब्बारा खरीदकर वे अपने को भी देश प्रेम के प्रतीक से रंगना चाहते थे।
इन बच्चों ने बातचीत में खुलासा किया कि उनके लिए झंडे बेचना मौसमी बिजनेस है जो साल में दो बार-15 अगस्त और 26 जनवरी को आता है। इन मौकों पर अपना एक हफ्ता देकर वे आसानी से हज़ार-दो-हज़ार रूपए कमा लेते हैं। दुखद है कि एक संप्रभु देश में आज़ादी के इतने सालों बाद भी भावी पीढ़ी के लिए आज़ादी का जश्न कुछ रूपये कमा लेने का मौका है।
झंडे और गुब्बारा बेचने का यह तात्पर्य नहीं कि वे देश से अपने रिश्तों को केवल क्रेता-विक्रेता के रूप में देख रहे हैं बल्कि इस व्यापार में उनकी भागीदारी उनके राजनीतिक समाजीकरण का हिस्सा है। इन बच्चों से बातचीत इस समाजीकरण की कई परतों को खोलती है।
इन बच्चों से बातचीत से पता चलता है कि देश के साथ इनका रिश्ता कैसे विकसित हो रहा है? देश की सरकार इनके लिए देश के समतुल्य है। इस सरकार को ये खुद के लिए और अपने परिवार के लिए बाधा मानते हैं। सरकार के माध्यम-पुलिस, ट्रैफिक पुलिस, एम.सी.डी. या अन्य सरकारी महकमा इनकी गृहस्थी या रोज़गार को उजाड़ता है। सरकार का यह रूप इनमें डर पैदा करता है। वे सरकार के माध्यम से अपने जीवन में देश के महत्व को नहीं स्वीकार कर पाते हैं।
कई बार सरकार को देखकर वे मुस्कुरा देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि चलान कटाने के बहाने होने वाली बातचीत में क्या होता है? वे जानते हैं कि उन्हें उस गली में बने रहने के लिए सुबह शाम सरकार की जी हुज़ुरी करनी है। सरकार की यह समझ और भूमिका देश के नागरिक के रूप में इन्हें बड़ा कर रही है।
तुर्रा यह कि इनके और इनके परिवार के पास खुद को नागरिक सिद्ध करने का प्रमाण नहीं है। नागरिकता के प्रमाण-चिन्हों जैसे- मतदाता पहचान पत्र, जन्म प्रमाण पत्र, आधार कार्ड इनके पास नहीं है। इसके अभाव में सरकार इन्हें नागरिक सुविधाएं कैसे दे?
मजबूरी है कि वे इसके लिए औपचारिक दावा नहीं कर सकते क्योंकि गलियों को किसी मोहल्ले का दर्जा प्राप्त नहीं है और ना ही इनके अभिभावकों ने बच्चों के जन्म आदि को सरकारी तरीके से दर्ज करवाया है।
इनकी किसी विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय से संबद्धता नहीं है। इस कारण वे देश की सांस्कृतिक अस्मिताओं से भी खुद को नहीं जोड़ पाते हैं और ना ही कोई ताकतवर सांस्कृतिक समूह इनकी ओर से सरकार से लड़ने को तैयार है।
एक तरीके से वे देश में होकर भी देश के नहीं है। तो क्या मान लिया जाए कि इन बच्चों में देश के लिए प्रेम, गर्व और सम्मान का भाव नहीं है। इनसे बातचीत में ऐसा नहीं पाया गया। वे भी देश से अपने रिश्ते को इन भावों के सापेक्ष देखते हैं। इन बच्चों में यह भाव स्वाभाविक नागरिक जीवन का हिस्सा नहीं है बल्कि युद्ध की संभावना या कल्पना द्वारा जगाया जाता है। इसका स्रोत मीडिया है। ये बच्चे बॉर्डर, गदर और कर्मा जैसी फिल्मों के लोकप्रिय संवादों को दोहराते हैं। इनके लिए देश का होना किसी दूसरे देश या धर्म विशेष से घृणा का भाव है। देश के सम्मान को वे सैनिकों के सम्मान या देश की रक्षा से जोड़कर बताते हैं। यह प्रवृत्ति उन्हें ऐसा नागरिक बनाती है जिनके लिए देश की सरकार एक डर है लेकिन जिनके लिए देश की सेना एक गर्व भाव पैदा करती है।
उनके लिए देश का एक रूप दिग्गज राजनेता है। ये देश के प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्री और अलग-अलग दलों के लोकप्रिय नेताओं को पहचानते हैं। इनकी भूमिका को वे विकास से जोड़ते हैं। विकास की सरकारी परिभाषा जैसे-सड़क, गैस और अस्पताल का ये उल्लेख करते हैं। ये परिभाषा इनके आसपास के सरकारी विज्ञापनों का हिस्सा है।
उल्लेखनीय है कि विकास के इन रूपों से ये अपना रिश्ता नहीं देख पाते। कुल मिलाकर ये बच्चे एक राजनीतिक परिवेश में बड़े हो रहे हैं जहां ये राजनीति के लोकप्रिय संदेशों को पढ़ रहे हैं लेकिन खुद और अपने परिवार को इस परिवेश में वे चिन्हित नहीं कर पा रहे हैं।
वे कैसे चिन्हित करें? हमारा ज़ोर तो ऐसे सिविल बिहेवियर (जिसका आंशिक अनुवाद भद्र व्यवहार होगा, लेकिन समाजशास्त्रीय अनुवाद अभिजन व्यवहार होगा) पर है जहां सफाई पसंद, सुसज्जित नागरिक जो व्यवस्थित एवं भव्यता में लपेटी हुई इमारत या किसी मनोरम प्राकृतिक दृश्य के साथ खड़ा है। इसके विपरीत फटे कपड़े में आधा ढका तन शेष आधे पर बहता पसीना, जल सुविधा के अभाव में स्नान और कंघी के बिना घूमते बच्चे, मिट्टी में सना हाथ भी भारत है।
इस भारत को हम इसके मूलाधिकार नहीं दे पा रहे हैं। आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री को चाचा नेहरू के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। ऐसे ही राष्ट्रपति कलाम की भी बच्चों से निकटता को उभारा जाता है। फिर भी रोज़मर्रा के जीवन में हमारा नागरिकता बोध इन बच्चों के प्रति उदासीनता लिए हुए है।
देश की सरकार के नाक के नीचे देश का भविष्य अपने अधिकार से वंचित है। आज़ादी के इस जश्न पर सोचने की ज़रूरत है कि क्या ये बच्चे आज़ाद भारत का हिस्सा हैं? क्या आज़ादी हमारे लिए प्रतीकात्मक रह गयी है जो दरवाज़ों, गाड़ी की खिड़कियों और हाथ में झंडे लहराने से पूरी होती है या हम सक्रिय नागरिकता का परिचय देते हुए इन बच्चों को कम-से-कम इनके लिए बने शिक्षा के अधिकार कानून को सुनिश्चित कर सकते हैं?