एक तरफ तो इतिहास के पन्नों में बिहार का ज़िक्र हमें गौरवान्वित करता है लेकिन, दूसरी तरफ नब्बे के दशक से बिहार और बिहारियों की धूमिल हो चुकी छवि से बाहर निकलने के लिए हम बिहारी लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
भारत महिलाओं के लिए असुरक्षित देशों में से एक है और पिछले कुछ सालों में बच्चों के साथ यौन हिंसा के मामले भी बढ़े हैं लेकिन, ऐसे मामले की मैंने कभी कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि सरकारी संरक्षण प्राप्त बिहार के मशहूर शहर मुज़फ्फरपुर के एक बालिका गृह में बच्चियों के साथ यौन हिंसा का बाज़ार लगता होगा।
ब्रजेश ठाकुर एक मात्र नाम नहीं है और एक मात्र उसकी गिरफ्तारी और केस सीबीआई को सौंप देना काफी नहीं है। नवरूणा और सृजन मामले तो याद ही होंगे आप सबको। सीबीआई आज तक उनके फैसले तक नहीं हुई पहुंच पाई है। इसका मतलब स्पष्ट है कि सरकार अप्रत्यक्ष रूप से इन जैसे पापियों के साथ है और दोषियों को बचाने की कोशिश कर रही है।
हरेक बात पर उबलने वाली हमारी बिहार की जनता ना जाने इस मामले पर खुलकर विरोध क्यों नहीं कर रही है? मीडिया रिपोर्ट की मान लें तो लोगों को यह भी लगता है कि जिन बच्चियों की अपनी कोई पहचान नहीं है उनके लिए भला कौन संघर्ष करेगा?
मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या उतनी छोटी बच्चियों को भी जाति-धर्म जैसी चीज़ें समझ आती होंगी? कब तक हम सो कॉल्ड सामाजिक संस्कारी लोग इतने सेलेक्टीव होकर विरोध करते रहेंगे?
जिस भयावह और शर्मनाक कांड ने मुज़फ्फरपुर को देशभर में दागदार किया है, उस पर हमारे समाज के कई बड़े पॉलिटिशियन बोलने से बच रहे हैं क्योंकि उनको अपनी सत्ता प्यारी है और कई बेशर्म लोग जाति वाला कार्ड खेलकर किसी एक जाति के लोगों को अनावश्यक टारगेट कर रहे हैं। अब नीचे दी गई दोनों तस्वीरों को देखिए और फैसला किजीए की अपराधी कौन है? और संरक्षण देने वाला कौन है? हम सबके सामने सपष्ट है चाहे लालू हो या नीतिश कुमार इन दोनों ने अपनी आंखों को बंद करके ऐसे नापाक धंधों को चलते रहने दिया।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस मुम्बई की जिस रिपोर्ट के अनुसार बालिका गृह की हकीकत हम सबके सामने आई है, उस रिपोर्ट को अब तक प्रकाशित नहीं किया गया और उसमें अनेक बालिका गृह के बदहाल हालत की बात कही गई है, उन सब पर कार्रवाई कब होगी?
वाम संगठनों ने कल यानी 2 अगस्त को बालिका गृह कांड को लेकर बिहार बंद का आह्वान किया था। उससे एक दिन पहले ही शाम में वाम दलों ने एकजुट होकर पटना शहर के चौराहे पर मसाल जलाते हुए बंद का आह्वान किया था। मुमकिन है कि कई लोग वामपंथी नहीं हों लेकिन, ये कोई राजनैतिकता का नहीं वरन नैतिकता का सवाल है।
सारे गीले शिकवे भुलाकर इस अनैतिक और असामाजिक कांड के खिलाफ हम सभी को एकजुट होकर सरकार को चेताना ज़रूरी था कि अंधेरी नगरी में भले ही राजा चौपट हो पर प्रजा चौपट नहीं है। यकिन मानिए, पहली बार खामोश सड़कें और बंद दुकानें भी मुझे सुकून दे रही थीं लेकिन, इन सबके बीच बच्चियों की चीख और दर्द की कल्पना मुझे बेचैन भी कर रही थी।
याद रखिए 16 दिसम्बर 2012 की दिल्ली की घटना को लेकर अगर आम जन सड़कों पर ना आते तो एंटी रेप बिल 2013 पास ना होता। एक निर्भया के लिए जब हम लड़ सकते हैं तो दर्जनों अनाथ बच्चियों के लिए खामोश क्यों हैं? शर्मनाक हरकत है सरकार और उसके तंत्र की जो पापियों को बचाने के लिए सीबीआई का हथकंडा अपनाते हुए, हम सबको इंसाफ की जगह लॉलीपॉप देने की तुच्छ राजनीतिक में लगी है। आज हम सबको एक ऐसे कानून बनवाने और उसे सशक्त तरीके से लागू करने के लिए और अपने समाज को बचाने के लिए आगे आना होगा और सिर्फ एक दिन ही नहीं तब तक विरोध करते रहना होगा जब तक बच्चियों को इंसाफ ना मिल जाए।