पिछले सप्ताह एक टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षकों से सुप्रीम कोर्ट में चल रहे समान काम-समान वेतन वाले केस के संबंध में चर्चा हो रही थी। उसी वक्त बातों ही बातों में सुप्रीम कोर्ट में चल रहे एक अन्य केस जो समलैंगिकता से संबंधित है उसकी चर्चा हुई। तो हमारे एक बहुत ही करीबी साथी हैं उन्होंने कहा कि इतने गैरज़रूरी और बेकार मसलों पर सुप्रीम कोर्ट को इतनी गहरी सुनवाई करने की क्या ज़रूरत है। इतनी बड़ी बेंच लगाकर के गैरज़रूरी बेमतलब सुनवाई करने का कोई औचित्य नहीं है।
मुझे याद है कि ठीक उसी प्रकार आज से लगभग 2 साल पहले मैंने समलैंगिकता को लेकर एक छोटी सी कहानी लिखी थी। उसको लेकर बहुत सारे शिक्षकों ने आपत्ति दर्ज की थी। हमारे अभिन्न मित्र हैं बेगूसराय के सोनू देव जी। उन्होंने तो मेरा स्क्रीनशॉट लेकर बहुत सारे ग्रुप में पोस्ट करके, अपने वॉल से पोस्ट करके व अपने विभिन्न ID से पोस्ट करके मेरा काफी मज़ाक उड़ाया था और इसको लेकर मेरी बहुत आलोचना की थी। शिक्षकों से मिलने जाता था तो वहां पर भी मेरी उस पोस्ट का उल्लेख करके कहते थे कि सर आपको समलैंगिकता जैसे मुद्दों पर नहीं लिखना चाहिए इससे लोगों की आम भावना को ठेस पहुंचता है। उस वक्त मुझे दुख पहुंचा था कि शिक्षक होकर भी हम इतने संवेदनशील विषय पर बात करने और उसे समझने का प्रयास करने के बजाय उसको मज़ाक का विषय बना रहे हैं।
मुझे इस बात से बहुत निराशा होती है। बहुत सारे सामाजिक विषयों पर हम शिक्षक उतनी संवेदनशीलता नहीं दिखा पाते हैं जितनी हमेशा दिखानी चाहिए। समलैंगिकता के विषय में सामान्यतः हमारे शिक्षक साथी ना तो बात करना चाहते हैं ना ही इस विषय पर शायद गहरी समझ रखते हैं। अधिकांश लोग इसे मानसिक विकृति या अप्राकृतिक यौनाचार समझते है। लेकिन वर्तमान में बहुत सारे शोध हुए हैं इस विषय पर, बहुत सारे लोगों ने इस विषय पर बहुत काम किया है और निष्कर्ष यह निकला है कि समलैंगिकता कोई अप्राकृतिक यौनाचार या मानसिक विकृति नहीं है। बल्कि एक मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति इस तरह के यौनाचार में रुचि रख सकता है। यह न ही किसी प्रकार से अप्राकृतिक है और ना ही कोई एक मानसिक विकृति है।
वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक पीठ के समक्ष इस केस की जो सुनवाई चली वह सीधे-सीधे एक मनुष्य के राइट टू लिबर्टी और राइट टू इक्वॉलिटी से संबंधित केस है। भारतीय संविधान की धारा 377 समलैंगिक संबंधों को अप्राकृतिक यौनाचार और मानसिक विकृति बताते हुए गैरकानूनी ठहराती और इसके लिए दोषियों को सज़ा का भी प्रावधान है। जबकि वर्तमान में अनेकों देशों ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर रखा है। मेरा निजी मत है कि एक व्यक्ति को ये अधिकार है कि वह अपनी सेक्शुएलिटी को अपने तरीके से चुन सके और समानता के साथ उसे अपना सके। मूल बात सेक्शुएलिटी को लेकर नहीं है बल्कि यह केस समानता को लेकर है। एक व्यक्ति की सेक्शुएलिटी उससे समानता का अधिकार नहीं छीन सकती है। हमें यह कोई अधिकार नहीं है कि व्यक्ति की सेक्शुएलिटी क्या है इस आधार पर हम उससे कोई भेदभाव करें।
होमोसेक्शुअल होना, बाइसेक्शुअल होना एक व्यक्ति का निजी अधिकार है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए हमारे मन में किस प्रकार के भाव आते हैं। हमें उनका मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए और ना ही उन्हें हीनता के साथ देखना चाहिए। यह बिल्कुल अमानवीय है कि किसी व्यक्ति के निजी पसंद नापसंद निजी रुचि अभिरुचि के कारण हम उसका मज़ाक उड़ाया उसे दीन भाव से देखें। हां, जहां तक कानून की बात है तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि आज नहीं तो कल माननीय सुप्रीम कोर्ट समलैंगिकों के अधिकारों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करेगी। उन्हें भी समाज में खुलकर आज़ादी से जीने का अधिकार प्रदान करेगी।
नैतिकता के आयाम बदलते रहते हैं। आज से 200 वर्ष पूर्व विधवा विवाह को समाज किस नज़र से देखता था ये किसी से छुपी नहीं। विवाह के वक्त स्त्री को डोली में जाने और अर्थी में आने की हिदायत दी जाती थी। और वो अर्थी पति के अकाल मृत्यु के कारण सती के रूप में होती थी। समाज ने उस वक्त विधवाओं से विवाह करने वाले व्यक्तियों को जाति-बदर किया, तरह-तरह की यातनाएं और उलाहने भी दिए। लेकिन साहसी व्यक्तियों ने रूढिवादिता से जंग जारी रखी और उसका परिणाम आज ये है कि विधवाओं की विवाह आम बात है। गांव में लुका-छिपा कर विधवाओं का विवाह होता है तो शहरों में धूमधाम से, लेकिन अब हो रहा है। नैतिकता कहीं आड़े नहीं रही, मानवीय मूल्य सर्वोपरी है।
ठीक उसी प्रकार आज समाज में समलैंगिक संबंधों को लेकर स्थिति है। अगर इसे विस्तरित रूप से देखा जाए तो LGBTQ के अधिकारों और उनकी स्वीकार्यता को लेकर भारतीय समाज ऊहापोह की स्थिति में है। भारतीय शहरी मध्य वर्ग जहां एक ओर LGBTQ को लेकर मुखर है और विशेषकर युवा वर्ग उन्हें गले लगाने को आतुर है। वहीं दूसरी ओर जो टियर टू शहर हैं वहां इन मामलों में अभी तक नकारात्मक विचार ज़्यादा हैं और इन मसलों पर अभी भी समाज में रूढिवादी विचार हावी हैं। कहीं न कहीं यौन संबंधों को केवल प्रजनन का माध्यम समझना और व्यक्ति की निजता का सम्मान न करना इस मानसिकता के प्रमुख कारण हैं। पटना जैसे शहर में भी आम तौर पर इन मसलों पर कोई बात नहीं करना चाहता।
मैं अपने शिक्षक समाज में भी देखता हूं कि इन मसलों पर रूढिवादी विचार ही हावी हैं। आम तौर पर जब समलैंगिकता पर बात होती है तो व्यक्ति अपने आप को ऐसे संबंधों से जोड़ कर देखता है तो उसे ये बिल्कुल अप्राकृतिक और मानसिक विकृति लगता है। कल तो एक साथी ने मुझे समलैंगिक ना बनने की सलाह भी दे डाली। उन्होंने मुझसे इस बात पर बहस भी करनी चाही लेकिन मैंने साफ मना कर दिया। कारण ये है जिस व्यक्ति ने ना तो कभी मनोविज्ञान पढ़ा हो और ना ही कानून की समझ हो उस से ऐसे मसलों पर बात करना मुश्किल है। मैं अक्सर कहता हूं और इस बात में यकीन भी करता हूं कि किसी भी मसले पर बहस या परिचर्चा करने से पहले उस मुद्दे पर गहन अध्ययन करना जरूरी है। लेकिन लोगों की ज़िद है कि वो पढ़ेंगे नहीं सिर्फ बहस करेंगे।
ऐसे में स्वस्थ परिचर्चा असम्भव है। आप अपनी मनोदशा से तुलना कर के दूसरों की मनोदशा नहीं समझ सकते। आपके अनुसार दूसरों की यौनिकता मानसिक विकृति हो सकती है। लेकिन उनके लिए विकृति नहीं अपितु पसंद की बात है। और किसी की पसंद-नापसंद, रुचि-अरुचि के आधार पर भेदभाव करना अमानवीय है। नैतिकता के पैमाने पर आज जो गलत दिख रहा है कल वो नैतिक आधार पर स्वीकार्य होगा। हमें एक व्यापक प्रगतिशील सोच के साथ समाज में आ रहे बदलावों को स्वीकार करना चाहिए ना कि नैतिकता और रूढिवादिता के आधार पर उसे अप्राकृतिक या मानसिक विकृति करार देना चाहिए।