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इन वजहों से भारत के ग्रामीणों तक नहीं पहुंच पाती स्वास्थ्य सुविधाएं

झारखंड के दुमका के करन कुमार मंडल चिकित्सा से जुड़े अपनी दास्तानों को बयान करते हुए काफी भावुक हो जाते हैं। वे कहते हैं “गांव में कोई ज़िन्दगी नहीं है। देर रात यदि हमारे घर पर किसी को कुछ हो जाए तब सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र जाते-जाते मरीज़ की जान बच पाएगी या नहीं ये कहा नहीं जा सकता।

झारखंड की बात करें तो पूरे राज्य और खासकर ग्रामीण झारखंड में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता लोगों के लिए एक बड़ी समस्या है। अगर किसी तरह वक्त-बेवक्त इमरजेंसी के दौरान मरीज़ को लेकर अस्पताल पहुंच भी जाएं तो वहां डॉक्टर होंगे या नहीं इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता।

डॉक्टरों की उपलब्धता है बड़ा सवाल-

हम जायज़ा लेने झारखंड के काठीकुंड के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे लेकिन वहां हमें कोई भी डॉक्टर उस वक्त मौजूद नहीं मिले। लंबे इंतज़ार के बाद जब प्रभारी डॉक्टर हेमन्त मुर्मू आएं तो उन्होंने हमसे यह कहकर बात करने से मना कर दिया कि जबतक यहां पर और डॉक्टर्स की नियुक्ति नहीं की जाती तबतक इस मसले पर बात करना बेकार है।

इस दौरान हमने अस्पताल में डॉक्टर की राह देख रहे अपनी पत्नी का इलाज कराने आए सुरेन्द्र मुरैया से बात की। सुरेन्द्र बताते हैं कि उनकी पत्नी चम्पा देवी प्रसव के नौवें महीने में हैं, उन्हीं को दिखाने वे यहां आए हैं। वे कहते हैं कि उनके घर से स्वास्थ्य केंद्र की दूरी लगभग 6 किलोमीटर है और अपनी पत्नी को डॉक्टर से दिखाने के लिए उन्हें खेतीबाड़ी छोड़कर आना पड़ा है।

वो आगे कहते हैं “यदि समय पर गांव से नहीं निकलेंगे तो हमें सवारी भी नहीं मिलेगी और तब हमारे पास दो ही विकल्प होते हैं। हमें या तो पैदल आना पड़ता है या फिर साइकिल से हम अस्पताल पहुंचते हैं। आज हम यहां पैदल आए हैं और हमें निराश होकर घर जाना पड़ रहा है। क्योंकि मेरी पत्नी को किसी डॉक्टर ने नहीं बल्कि एएनएम ने देखा है। और हम उनकी चिकित्सा शैली से संतुष्ट नहीं हुए हैं।”

सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, काठीकुण्ड

ये हाल किसी एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का नहीं है बल्कि डॉक्टरों की कमी या उनका समय पर स्वास्थ्य केंद्रो पर ना आना या होकर अपनी मर्ज़ी से इलाज करना एक बड़ी समस्या का रूप लेते जा रहा है। अगर पूरे भारत की बात की जाए तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा के द्वारा राज्यसभा में बताए गए आंकड़े काफी चिंताजनक हैं। उन्होंने कहा था कि देश भर में 14 लाख डॉक्टरों की कमी होने के बावजूद हर वर्ष केवल 5500 डॉक्टर्स ही तैयार हो पाते हैं।

अस्पताल में बेड मिलना मुश्किल

स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों की माने तो झारखंड के सरकारी अस्पतालों में कुल 10784 बेड हैं, यानी कि एक बेड पर 3368 की आबादी निर्भर है। वहीं एक सरकारी अस्पताल पर 65832 की आबादी निर्भर है। बता दें विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रति हज़ार की आबादी पर 1.5 बेड होना चाहिए जबकि झारखंड में सिर्फ बोकारो स्टील सिटी में ही डब्ल्यूएचओ मानक के अनुरूप औसत से अधिक बेड हैं। यहां प्रति हज़ार की आबादी पर 2.89 बेड हैं।

इस कमी की झलक हमें झारखंड के गोपीकांदर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में साफ दिखी। नियमों के मुताबिक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में 30 बिस्तर की व्यवस्था होनी चाहिए, मगर यहां 2-3 बिस्तर ही दिखाई पड़े। कुछ बिस्तर खुले आसमान तले बारिश में भीग रहे थे और कर्मचारी खर्राटे ले रहे थें।

गोपीकांदर स्वास्थ्य केंद्र में बारिश में भीगता बेड

स्वास्थ्य केन्द्र की गाड़ी चलाने वाले ड्राइवर बसंत कुमार हमे बताते हैं कि यहां मरीज़ भर्ती तो स्टाफ की निगरानी में में होते हैं, लेकिन वे बगैर किसी को बताए ही यहां से निकल लेते हैं। इसका कारण उन्होंने यहां पर्याप्त सुविधाएं न होने को बताया।

मरीज़ों को प्राइवेट अस्पताल में कर दिया जाता है रेफर-

साल 2016 में स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी की गई रिपोर्ट बताती है कि भारतीय सरकारी अस्पतालों की तुलना में प्राइवेट अस्पतालों पर लोग आठ गुना अधिक खर्च करते हैं। साल 2013-14 में लोगों ने सरकारी अस्पतालों पर 8193 और प्राइवेट अस्पतालों पर 64628 करोड़ रूपये खर्च किए।

ऐसा हर बार मरीज़ अपनी इच्छा के अनुसार करें ये ज़रूरी नहीं है। ऐसे मामले अक्सर सामने आते हैं जब मरीज़ों को जानबूझकर प्राइवेट नर्सिंग होम में रेफर कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए-

झारखंड के जरमुंडी प्रखंड की बीटीटी पुतुल दत्ता के मुताबिक यहां सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में कुछ स्टाफ और ए.एन.एम मिलकर मरीज़ को पहले तो एक-दो दिन अस्पताल में भर्ती रखते हैं और फिर सदर अस्पताल दुमका रेफर करने के बजाए किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में रेफर कर देते हैं।

जरमुंडी स्वास्थ्य केंद्र

वो बताती हैं “वहां ए.एन.एम और अन्य स्टाफ की सेटिंग रहती है, जैसे ही मरीज़ को वहां एडमिट किया जाता है, वैसे ही जरमुंडी के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र की ए.एन.एम सहित अन्य स्टाफ के पास कमिशन पहुंच जाता है। इस प्रक्रिया में बाहरी एम्बुलेंस वाले के साथ अस्पताल प्रबंधन की सांठगांठ रहती है।”

प्रभारी चिकित्सक की माने तो उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है।

दवा उपलब्ध, मगर मरीज़ बाहर से दवा लेने को मजबूर

अभी हाल ही में 7 जून 2018 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो काँफ्रेंसिंग के ज़रिए प्रधानमंत्री जन औषधि परियोजना और अन्य स्वास्थ्य योजनाओं की जानकारी दी। उन्होंने दावा किया कि जन औषधि केन्द्रों में अब मरीज़ों को 50 से 90 फीसदी तक कम दरों पर दवाइयां मिल रही हैं लेकिन दलालों और झोलाछाप डॉक्टर्स की वजह से ये महत्वाकांक्षी योजना भी ज़मीन पर अपना उचित लक्ष्य पाने से दूर है।

झारखंड के दुमका ज़िले में स्टोर चला रहे बंटी अग्रवाल कहते हैं “हमें जितनी दवाइयों की ज़रूरत होती है वे उपर से उपलब्ध ही नहीं हो पाते हैं।” वजह पूछे जाने पर वे बताते हैं कि कुछ स्टोर्स से गांव में प्रैक्टिस कर रहे झोला छाप डॉक्टर्स और दलालों की सेटिंग होती है, जो भारी मात्रा में दवाईंया उठाकर ब्लैक कर देते हैं। इस कारण हमारे यहां ज़रूरी दवाइयां सप्लाय नहीं हो पाती है और कई बार ग्रामीण इलाकों से आए गरीब लोग खाली हाथ वापस लौट जाते हैं।

जन औषधि केन्द्र के संचालक बंटी अग्रवाल(दाएं, कुर्सी पर बैठे)

इतना ही नहीं झारखंड के रांची में स्थित जन औषधि की एजेंसियां कमिशन खाकर दवाइयां झारखंड भेजने के बजाए बिहार भेज देते हैं।
हालांकि झारखंड के काठीकुंड के स्वास्थ्य केंद्र पर जब हमने जानकारी जुटाने की कोशिश की तो दवा वितरण कक्ष के अजीत कुमार पाल ने बताया “यहां दवाएं तो 70 फीसदी तक उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन कभी कभी डॉक्टर एक या दो ऐसी दवाएं लिखते हैं जो बाहर की दुकानों पर ही मिल पाते हैं।”

मरीज़ की राह में झोला छाप डॉक्टर्स बन रहे बाधा

अस्पतालों में डॉक्टरों की अनियमितता, दवाइयों की किल्लत और भ्रष्टाचार के बीच अब झोला छाप डॉक्टर मरीज़ो और अस्पतालों के बीच की दूरी को और बढ़ा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि एक तो डिलिवरी पेशेंट के अलावा अन्य मरीज़ों को अस्पताल तक पहुंचने के लिए सरकार की ओर से कोई सुविधा नहीं है। यदि ग्राम मुख्य मार्ग पर पड़ता है, तब ग्रामीणों को अस्पताल तक पहुंचने के लिए लाइन बस मिल जाती है। दिक्कत उस स्थिति में होती है जब गांव मुख्य मार्ग से लगभग 15-20 किलोमीटर की दूरी पर होते हैं।  ऐसे में जब प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में ताले जड़े हों फिर तो इन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र जाने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसे में झोला छाप डॉक्टरों की दुकान काफी अच्छी चलने लगती है।

झारखंड के जरमुंडी में बिना बिजली-पंखे के रहने को मजबूर मरीज़

दुमका ज़िले के जरमुंडी प्रखंड के गांव ठारी के रहने वाले करन कुमार मंडल चिकित्सा से जुड़ी अपनी दास्तानों को बयान करते हुए काफी भावुक हो जाते हैं। वे कहते हैं “गांव में कोई ज़िन्दगी नहीं है। देर रात यदि हमारे घर पर किसी को कुछ हो जाए तब सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र जाते-जाते मरीज़ की जान बच पाएगी या नहीं ये कहा नहीं जा सकता। और तो और हम जिन झोला छाप डॉक्टरों का पहले विरोध करते थे आज हमें उन्हीं की शरण में जाना पड़ता है। हमें पता होता है कि यदि हम ज़िले के सदर अस्पताल जाएंगे तब हमे अपने ग्राम से बेहतर चिकित्सा मिल पाएगी लेकिन यहां तांगा या बैलगाड़ी नहीं चलती और ना ही गांव में किसी के यहां ऑटो है। रात को सड़कें भी सुनसान होती हैं और वहां लाइट की भी कोई व्यवस्था नहीं होती। इस स्थिति में हम स्वास्थ्य केन्द्र, जरमुंडी जाएं तो कैसे जाएं। तब विवश होकर हम झोला छाप डॉक्टर्स से ही इलाज करा लेते हैं। अब हमे आदत सी पड़ गई है झोला छाप डॉक्टर्स की शरण में जाने की।”

ज़ाहिर है भारत के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य योजनाएं होने के बावजूद आमलोगों तक उसका लाभ नहीं पहुंच पा रहा है। डॉक्टरों, दवाइयों की उपलब्धता के साथ-साथ कभी-कभी व्यवसायिक लाभों के लिए डॉक्टरों की साठ-गांठ भी लोगों के लिए परेशानी का सबब है। अगर सरकारी योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने वाली व्यवस्था को समय रहते दुरुस्त कर लिया जाता है तो यकीनन झारखंड समेत देश के सभी लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हो सकती हैं।

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