खबर मिली कि ABP न्यूज़ के दो एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी और अभिसार शर्मा को ऑफ एयर कर दिया गया है। इस बात का कोई ठोस कारण नहीं प्राप्त हुआ लेकिन जानकारी हासिल हुई है कि यह सरकारी असहमतियों का नतीजा है।
अगर यह सरकार की आलोचना का नतीजा है तो यह आप जान लीजिए कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में डरा हुआ पत्रकार एक मरा हुआ नागरिक पैदा करता है और मरा हुआ नागरिक मुल्क और लोकतंत्र दोनों के लिए खतरनाक है।
सवाल एजेंडा पत्रकारिता अथवा सरकारी असहमतियों का नहीं है बल्कि सवाल उससे इतर लोकतंत्र के नाम पर बनी धारणाओं के ठीक उलट गतिविधियों का है। लोकतंत्र में आप असहमत होइए, आपकी असहमतियों को सम्मान के साथ स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। एक लोकतांत्रिक देश को मज़बूती केवल सहमति से ही नहीं बल्कि आलोचना, विवेचना और असहमति से मिलती है।
इतिहास की कारगुज़ारियों से गुज़रते इस नौनिहाल मुल्क को देखना केवल मनोरंजक ही नहीं विचलित कर देनी वाली स्थितियां भी लग रही हैं। वैचारिक टकराहट नागरिकों के बीच केवल कड़वाहट ही घोलने का काम करती है। वैचारिक असहमति मानवीय विध्वंस का पर्याय बन जाए तब मुल्क की बर्बादी को बचाना असंभव ही है।
नेहरू और जयप्रकाश नारायण के बीच असीमित असहमतियां थीं। दोनों के रिश्ते बेहद ही कटुता से भरे थे। लेकिन उस दौर में लोकतांत्रिक मर्यादाएं कितनी ऊंची थीं, उस पहलू को जानिये।
भारत की स्वाधीनता के बाद तत्कालीन गवर्नर-जनरल माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा कि उन्हें अपने मंत्रिमंडल में कुछ युवाओं को शामिल करना चाहिए और उन्होंने विशेष रूप से जेपी के नाम का उल्लेख किया। 1953 ई. में पंडित नेहरू ने जयप्रकाश नारायण और उनके समाजवादी साथियों को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने का आमंत्रण दिया था। जेपी ने भी तमाम असहमतियों के बावजूद सरकार में शामिल होने के लिए 14 शर्तें रखीं। हालांकि सहमति बन नहीं पाई और जेपी सरकार में शामिल नहीं हो पाए।
लेकिन जब अमेरिकी लेखक जॉन गुंटर भारत आएं तो उन्होंने नेहरू से साक्षात्कार के दौरान पूछा कि उन्हें भारत में और किनसे मिलना चाहिए। गुंटर ने लिखा कि नेहरू ने उन्हें जेपी से मिलने की सलाह दी और आगे कहा कि जेपी भारत के भावी प्रधानमंत्री हैं।
यह उस दौर के लोकतंत्र की खूबसूरती थी जहां राजनीतिक असहमतियां कभी भी नैतिक भावनाओं पर हावी नहीं हुई। 1962 के चीन युद्ध में नेहरू के सामने राज्यसभा के मनोनीत सदस्य और हिंदी कविता कुल के परम श्रद्धेय रामधारी सिंह दिनकर ने नेहरू सरकार की नीतियों की जमकर आलोचना की थी। नेहरू ने शांत भाव से दिनकर की आलोचनाओं को स्वीकार किया। जबकि नेहरू ने ही दिनकर को राज्यसभा सदस्य के लिए मनोनीत किया था। तो यह थी उस दौर की लोकतांत्रिक पवित्रता की कहानियां जो मौजूदा दौर में प्रासंगिक तो है लेकिन आज के दौर में अनोखी लगती है।