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फेयरनेस क्रीम का एड हमारे ज़हन को रंगभेदी बना रहा है

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काला या सांवला होना कोई बुरी बात नहीं पर भारतीय समाज में इसे दोयम दर्जे का स्थान दिया गया है। यहां गोरे रंग को सीधा सुंदरता से जोड़ दिया गया है। अगर आप गोरे हैं तो आपके पास ज़्यादा और अच्छे अवसर हैं, आपके ज़्यादा दोस्त हैं और आप ज़्यादा कॉन्फिडेंट हैं। पर अगर आपका रंग काला है या सांवला है तो समाज आपको इस गोरे होने की दौड़ में ज़रूर दौड़ायेगा।

विज्ञापनों का अपना एक बेहद बड़ा बाज़ार है जो काले रंग के नुकसान और गोरे होने के फायदे और वह कितना ज़रूरी है हमेशा बताता रहता है। इस तरह के विज्ञापनों में गोरी महिलाओं और पुरूषों के विचार को प्रेज़ेन्ट कर उन्हें ही खूबसूरत बताया जाता है जिसे देखकर बाकी महिलाओं और पुरूष के कॉन्फिडेंस में कमी आती है और वह भी गोरे होने की इस भीड़ में शामिल हो जाते हैं। हमारे समाज में बचपन से ही गोरे रंग को अच्छा और काले रंग को बुरा बता दिया जाता है।

अगर बात हिन्दू धर्म की करें तो यहां भी गोरे और काले रंग का खूब भेद किया जाता रहा है। हमारे घरों की दीवार में टंगे कैलेंडर को याद कीजिए। उसमें जितनी भी देवी देवता हैं सबके-सब गोरे और असुर या राक्षस को काला रंग पोत दिया गया है। धर्म से चलकर यही रंग-भेद बाज़ार तक चला आया है। ऐसा माना जाता है कि बाज़ार अपने चरित्र में ज़्यादा उदार है लेकिन हम अपनी फिल्मों, म्युज़िक एलबमों और टीवी धारावाहिकों को देखते हैं तो पाते हैं कि इनका हाल भी उतना ही खराब है। यहं केवल ऐसी महिलाओं और पुरूषों को मुख्य रूप में दिखाया जाता है जो गोरे हैं और जो गोरे नहीं है या सांवले हैं तो उन्हे या तो काम बेहद मुश्किल से मिलता है और अगर काम मिल भी गया तो बहुत उपेक्षित भूमिका दी जाती है।

गोरे होने के इस बाज़ार में काले रंग को नीचा दिखाने के लिए ही विज्ञापन बनाए जाते हैं। ये विज्ञापन पूरे बाज़ार में छा चुके हैं टीवी, अखबार, पत्रिकाएं रेडियो, दीवारों पर लगी होर्डिंग्स, सोशल मीडिया,  मल्टीमीडिया सभी जगह शरीर के रंग से जुड़े स्टिरियोटाइप की ही पकड़ मज़बूत बन चुकी है। पूरा बाज़ार, फिल्में, टीवी, शहर के होर्डिग्स सबके सब आपको किसी ना किसी तरह से कहते रहते हैं कि आप पर्याप्त सुंदर नहीं हैं। बाज़ार और समाज ने खूबसूरती की जो परिभाषा गढ़ी है अगर आप उसमें फिट नहीं हो रहे हैं तो फिर आपके अस्तित्व को ही नकारा जायेगा या फिर उसे हास्यास्पद बना दिया जायेगा।

कई बार तो हमें पता भी नहीं होता कि हम कब इस स्टिरियोटाइप के शिकार हो बैठे हैं। हम मज़ाक में या फिर जाने-अनजाने रंगों को लेकर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भेदभाव करते रहते हैं और इसके नुकसान से अनजान बने रहने का नाटक करते हैं।

जबकि इसके कई नुकसान हैं। कितने ही युवा जो गोरे नहीं है एक अजीब तरह की हीनभावना से ग्रसित रहते हैं। उनके सेल्फ कॉन्फिडेंस में कमी आना शुरू हो जाती है। इस तरह गोरे रंग के विज्ञापन करने वाली हज़ारों करोड़ रुपये वाली कंपनियां करोड़ों युवाओं के साथ खेलती है। उनकी मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालती है। और जब गोरे होने के लिए इन फेयरनेस क्रीमों का इस्तेमाल किया जाता है तो वह ज़ाहिर तौर पर विफल ही होते हैं। साथ ही उन्हें त्वचा संबंधी कई प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं जैसे-चेहरे पर मुहासे का आना, त्वचा रोग, स्कीन कैंसर आदि।

पता नहीं हम क्यों नहीं समझ पाते हैं कि त्वचा का गोरा होना या काला होना प्राकृतिक है जिसे बदला नहीं जा सकता। लेकिन इस तरह के प्रिंट और वेब विज्ञापन आपको केवल भ्रमित करने और एक रंग विशेष को ऊंचा दिखाने के लिए ही काम करते हैं। ये विज्ञापन एक तरफ तो आपको बाकियों से कमज़ोर महसूस करवाते हैं और वहीं दूसरी तरफ रंग भेद की वजह से पीड़ित बनाते हैं। हमारी स्कूली शिक्षा से लेकर ऑफिस, कॉलेज, शादी हर जगह आप के रंग से आपका मूल्यांकन किया जाता है। पिछले कुछ सालों में गोरे होने का यह व्यापार भारी मात्रा में फला-फूला है। पहले गोरा दिखाने की क्रीम केवल महिलाओ के लिए बाज़ार में उतारी गई थी। लेकिन अब लड़कों के भीतर भी गोरे रंग के प्रति हीनभावना भरी जा रही है।

साल 1990 में इमामी ने अपनी क्रीम को बाजार में उतारा उसके बाद 1998 में फेयरऐवर आई। 1999 मे फेयरग्लो और साल 2000 के बाद इन गोरा दिखाने वाली क्रीमों का तो जैसे जमावड़ा ही लग गया है। गोरे रंग को लेकर कई तरह के सपने दिखाये जाने लगे। विश्व सुंदरी, बेहतर पति, नौकरी हर चीज में गोरे रंग की भूमिका को महत्वपूर्ण बताने वाले विज्ञापनों ने अचानक से हमारे जीवन पर हमला बोल दिया। हमारे ड्रॉइंग रूम में रखी टीवी से लेकर अखबारों और शहर के बैनरों तक पर ऐसे विज्ञापनों का कब्ज़ा हो गया।

साल 2005 में पुरूषों का भी अपना एक अलग बाजार खुल गया जिसका विज्ञापन कितने ही फिल्मी सितारों ने किया। इनमें उन्होनें सांवला होने को एक बड़ी परेशानी बताई।

साल 2010 के आकड़ों के हिसाब से एक साल में औसतन 423 मिलीयन डॉलर का खर्च भारत सिर्फ इन क्रीमो में करता था। साथ ही 2014 के आकड़ो को देखा जाए तो हम देखेगें कि इन आकड़ो में और ज्यादा बढ़ोत्तरी आई जो 3000 करोड़ तक पहुंची। आज हम देख सकते हैx कि कैसे भारत में देखते-देखते इन ब्यूटी प्रॉडक्टस का जाल फैल चुका है।

वैसे तो ये क्रीम चेहरे पर लगाई जाती है। पर चेहरे से ज़्यादा ये आपके दिमाग पर असर करती हैं और आपके विश्वास को खत्म कर देती है। एशिया और खासकर भारत जैसे देश में जहां लोग स्वभाविक रूप से काले या सांवले रंग के होते हैं वहां गोरे रंग को लेकर पागलपन खतरनाक है। कभी-कभी ताज्जुब होता है कि हम करोड़ों भारतवासी एक ऐसे चेहरे और उसके रंग को लेकर रोज जीने को मजबूर कैसे हैं जिन्हें हम पसंद ही नहीं करते या जिनका होना हमारे खुद के अस्तित्व के खिलाफ है?

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