मैं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रति पूरे सम्मान के साथ कहना चाहूंगा कि राजनैतिक अर्थों में वे भले एक सम्मानीय राजनेता हों, जिनके लिए नेहरू ने यह कहा हो कि यह युवक एक दिन भारत का नेतृत्व करेगा। भले उनको नेहरू के बाद की राजनीति की लोकतांत्रिक मर्यादाओं का मानक माना जाता हो, भले उन्हें उनकी राजनैतिक क्षमताओं के कारण अन्तरराष्ट्रीय महत्व के मामलों में प्रतिपक्ष का नेता रहने के बावजूद भी भारत के नेतृत्व का अवसर मिलता हो, भले उनकी ओजस्वी कविताओं पर राष्ट्र रक्षा का भाव हृदय में तूफान मचा देता हो, भले उनके भाषण, उनका पक्ष संसद में शान्तिपूर्वक सुना जाता हो, भले उन्हें श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार को राजधर्म का पाठ पढ़ाने वाला उपदेशक माना जाता हो, परन्तु मैं बहुत स्पष्टता से और दृढ़तापूर्वक मानता हूं कि उन्होंने राष्ट्रीय एकता के मानस को बहुत बड़ी क्षति पहुंचाई है।
सवाल केवल एक विवादित ढांचे को गिराने भर का नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि उनके जैसे व्यक्तित्व की अगुवाई में उस ध्वंस जैसा असंवैधानिक और अधार्मिक कृत्य हुआ, जिसे फिर एक बड़े हिन्दू मध्यवर्ग ने अपना जस्टिफाइड पॉलिटीकल स्टैंड मान लिया। वरना उन्हें अपनी पार्टी के नेतृत्व वाली प्रदेश सरकार को राजधर्म के पालन का पाठ पढ़ाने की नौबत क्यों आयी?
इस घटना के बाद अपनी-अपनी धार्मिक असुरक्षा की भावना फैलाकर दोनों तरफ की कट्टरपंथी ताकतों ने भारत की सांस्कृतिक एकता को एक बार फिर ज़बरदस्त क्षति पहुंचाई।
समय के साथ उन मुसलमानों, जिनके पुरखे धर्म के आधार पर बने एक देश को अपनाने से इनकार कर अपनी मातृभूमि पर ही पुराने विश्वास के साथ रह गए थे, के खिलाफ घृणा से बढ़कर हिंसा का माहौल बन गया। मैं मानता हूं कि इसके ज़िम्मेदार अटल बिहारी वाजपेयी सहित उनकी पीढ़ी के और राजनेता हैं।
अंग्रेज़ों की मुखबिरी जैसी पुरानी बातों को छोड़ भी दें, तो भी कम-से-कम मेरी नज़र में अटल जी सम्माननीय नेता हो सकते हैं, श्रद्धेय नहीं। सन् 1924 में पैदा हुए श्री अटल जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सच्चे स्वयंसेवक के रूप में भले प्रचारित किए जाएं, लेकिन उन्हें आज़ादी की लड़ाई का सिपाही या उस लड़ाई की विरासत का रखवाला तो नहीं ही माना जाएगा।