लेखिका: अंजू शर्मा
यह कहानी एक आम महिला की है, जो अपनी हिम्मत की वजह से एक मज़बूत इंसान में तब्दील होकर एक मिसाल बन चुकी हैं। कौसर एक मध्यम वर्ग परिवार से हैं और दिल्ली के निज़ामुद्दीन बस्ती में रहती हैं। वह अपनी दुनिया में अपने पति और तीन बच्चों से साथ बहुत आनंद में थीं।
कौशर ने कभी बाहर जाकर काम करने का नहीं सोचा था इसका एक कारण यह भी था कि वो एक रूढ़िवादी परिवार से ताल्लुक रखती थीं, जहां महिलाओं के बाहर जाकर काम करने पर पाबन्दी है।
कौशर की हंसती खेलती ज़िन्दगी पर साल 2007 पर ग्रहण लग गया, जब उनके निकाह के दो साल बाद ही उनके पति को लकवा मार दिया। मजबूरन कौशर को घर की बंदिशे तोड़कर काम करने बाहर जाना पड़ा, पर कम पढ़ी लिखी होने के कारण उनको कहीं नौकरी नहीं मिली।
कौशर ने सिलाई का काम करना शुरू किया पर आमदनी घर चलने के लिए पर्याप्त नहीं थी। रिश्तेदारों ने भी अपना पलड़ा झाड़ लिया और कौशर के परिवार की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होने लगी।
1 सितम्बर 2009 को चिंतन ने नो चाइल्ड इन ट्रैश प्रोग्राम के ज़रिये निज़ामुद्दीन बस्ती के कबाड़ी भाइयों के बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया। कौशर को उम्मीद जगी कि वो एक अध्यापिका बनकर बच्चों को पढ़ा सकती हैं और अपनी ज़िन्दगी भी सुधार सकती हैं। पर इतनी जगहों से निराशा हाथ लगने के बाद, डरते-डरते उन्होंने अपना आवेदन दिया।
कहावत “कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती” कौशर की ज़िन्दगी की सबसे बड़ी सच्चाई बन गयी, जब कौशर को पता चला कि उसकी नियुक्ति हो गयी है और जैसा कि कहते हैं बाकि सब इतिहास है। आज कौशर बच्चों को कंप्यूटर भी पढ़ा सकती हैं।
इन बीते 9 सालों में कौशर ने अपने ऊपर बहुत मेहनत की और धीरे-धीरे चिंतन की मदद से अपनी क्षमता वृद्धि की। कौशर का काम देखकर सुंदर नर्सरी में दूसरी कक्षा खोलने का अवसर भी दिया। कौशर ने साल 2010 में 35 बच्चों का दाखिला करवाया। वह अपने प्रयासों को देखकर बहुत खुश हैं पर आज भी उनमें वही जोश और जुनून है। कौशर ने हर मुश्किलों का सामना करके आपने आप को तराशा और अपनी ज़िन्दगी को नई दिशा दी। आज उनके तीनों बच्चे गैर-सरकारी विद्यालय, मथुरा रोड में पढ़ते हैं और उनके पति भी गाड़ी के कलपुर्जों का बिजनेस कर रहे हैं और पूरी तरह स्वस्थ हैं। खुशहाली ने फिर से कौशर की ज़िन्दगी में दस्तक दे दी।
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[नोट- अंजू शर्मा चिंतन में फिल्ड ऑफिसर का कार्य संभालती हैं।]