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क्यों हमारे समाज में पितृसत्ता की जड़ें मज़बूत होती जा रही हैं

कुछ दिन पहले अखबारों के पन्नों से लेकर, सोशल मीडिया के पेज तक हर जगह विनेश फौगाट द्वारा जीते गए गोल्ड मेडल की चर्चा हो रही थी। इस कामयाबी के मौके पर दंगल फिल्म का वो डायलॉग बहुत फिट बैठता है, “म्हारी छोरी छोरे त कम है के”। आज महिलाएं हर विधा में देश और विदेश में अपना लोहा मनवा रही हैं। देश के किसी एक कोने में महिलाएं ऑटो चला रही हैं तो दूसरे कोने में हवाई जहाज। अभी तक जिन जगहों पर केवल पुरुषों का बोल-बोला था आज महिलाएं भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं।

महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी से ऐसा एहसास होता है कि पितृसत्ता की जड़ें अब खोखली होती जा रही हैं और समानता के समाज का निर्माण हो रहा है। लेकिन तभी कोई ऐसी घटना सामने आ जाती है जो यह साबित कर देती है कि पितृसत्ता की जड़ें अभी भी बहुत मज़बूत हैं, खोखली नहीं हुई हैं।

हम जिन महिलाओं को देखकर समानता का गुणगान कर रहे हैं उनकी संख्या से कई गुणा महिलाएं पितृसत्ता की गुलामी में जकड़ी हुई हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कुछ दिन पहले ही पूरे देश के समाने आया, जिसके बारे में लोग चुप्पी साधे हुए हैं।

बिहार के भोजपुर ज़िले के बिहिया में एक युवक की हत्या में शामिल होने के संदेह में उग्र भीड़ ने एक महिला के कपड़े फाड़ दिये और उसे निर्वस्त्र करके सड़कों पर घुमाया। यही नहीं भीड़ ने उस महिला पर अपनी मर्दानगी साबित करते हुए बहुत बर्बरतापूर्ण तरीके से मारपीट भी की। दरअसल, रेलवे स्टेशन के पास 19 वर्षीय विमलेश कुमार नाम के युवक का शव बरामद हुआ था। यह आशंका जताई गई थी कि विमलेश की हत्या कर दी गई है। विमलेश के नज़दीकी लोगों ने बिहिया रेलवे स्टेशन के पास रहने वाली एक महिला पर हत्या का शक जताया था। इस आशंका के चलते भीड़ ने महिला के साथ इस तरह का अमानवीय व्यवहार किया।

भीड़ में शामिल ज़्यादातर लोग युवा थे और उस महिला से हो सकता है उम्र में बहुत छोटे भी हो लेकिन पितृसत्ता में 10 साल का लड़का भी 70 साल की महिला के ऊपर रौब झाड़ सकता है।

हमारे देश में महिलाओं को दोहरे मापदंड पर रखा जाता रहा है। एक मापदंड में महिलाओं को देवी की तरह पूजा जाता है और दूसरे मापदंड में पैर की जूती समझा जाता है। वही नवरात्रों के दिनों में लड़कियों को घरों में देवी की तरह पूजा जाता है लेकिन जैसे ही नवरात्रे खत्म होते हैं, उन्हीं देवियों के साथ यौन हिंसा जैसी घटनाएं आम बात हो जाती हैं।

रक्षाबंधन के समय भाई अपनी बहनों से उनकी रक्षा करने का वादा करता है। रक्षक की भूमिका में सिर्फ अपने घरों की महिलाओं की रक्षा का तो ख्याल रहता है लेकिन घर से बाहर जो महिलाएं हैं उनके साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिए वो कैसे भूल जाते हैं?

रक्षाबंधन पर हर महिला को अपने भाइयों से रक्षा की नहीं बल्कि यौन हिंसा ना करने का वादा लेना चाहिए। महिलाओं को एक वस्तु की तरह परोसने में हमारे फिल्मी जगत की भी भूमिका रही है। आज भी फिल्मों और गानों में महिलाओं को एक वस्तु की तरह दिखया जाता है। कभी महिला को तंदूरी मुर्गी तो कभी बॉम-पटाखे के नाम से उनका वस्तुकरण किया जाता है। बहुत कम फिल्में ऐसी हैं जिनमें महिलाओं की भूमिका को मुख्य धारा में दिखाया गया है।

ना जाने कितने दशकों से गानों में लड़कियों का पीछा करना, उन पर भद्दी टिप्पणियां करना, घूरना जैसी यौन हिंसा को मज़ाक का विषय बनाकर दिखया जाता है। ऐसी सोच लेकर जब लड़के बड़े होते हैं तो उन्हें लगने लगता है कि कोई भी महिला और लड़की उन्हें रिजेक्ट नहीं कर सकती। अगर कोई उन्हें रिजेक्ट कर भी देती है तो वो रिजेक्शन को सहन नहीं कर पाते और एसिड अटैक ओर रेप जैसे अपराधों को अंजाम देते हैं।

किसी भी अपराध में सही दोषी की तलाश और सज़ा देना कानून व्यवस्था के दायरे में आता है। फिर बात-बात पर भीड़ हिंसक रूप धारण क्यों कर लेती है? इस भीड़ को इतनी पावर/अथॉरिटी कौन देता है कि वो कुछ ही पलों में सब कुछ तोड़-फोड़ देते हैं। फिर चाहे किसी महिला को नंगा करके घूमाना हो या फिर किसी महिला की कार को तोड़ना। पितृसत्ता की वजह से हमारे समाज में असंवेदनशीलता बढ़ती जा रही है। बहुत ज़रूरी है कि हम अपने बच्चों में समानता और प्यार के बीच बोए ना कि भेदभाव और नफ़रतों के। तभी हम एक सुंदर समाज के सपने को साकार कर सकते हैं।

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