आज हमारा समाज आधुनिकता के झंडे गाड़ रहा है, भारतीय सभ्यता के और उन्नत होने की दुहाई दे रहा है, समाज में स्त्री-पुरुष के हर क्षेत्र में समान होने के कसीदे पढ़े जा रहे हैं। वहीं हमारे ही समाज में वैवाहिक जीवन में बिस्तर पर स्त्रियों की समानता का ग्राफ शून्य के साथ विराजमान है, अरे जब घर में महिलाएं अपने पसंद के भोजन का मेन्यू निर्धारित नहीं कर सकतीं तो बिस्तर पर साहचर्य सम्बन्ध में पसंद की बात तो बहुत दूर की है। सीधे पितृसत्तावादी शब्दों में कहें तो ये बात ही अश्लील है। हमारे यहां कहने को तो दाम्पत्य जीवन सहभागिता का मर्म है, सहमति ही रिश्ते की ईंधन है परन्तु सच्चाई इससे कोसों दूर है।
भारतीय आदर्श समाज में दाम्पत्य जीवन में साहचर्य संबंध में मेन्यू क्या होगा इसका निर्णय केवल पुरुष ही लेता है, वहां सहचरी की इच्छा-अनिच्छा से कोई लेना देना नहीं होता, तो फिर ये कैसी बराबरी और कैसी सहभागिता? मेरे ख्याल से सहभागिता के माने यही होते हैं कि दो व्यक्ति जो कि पार्टनर हैं एक-दूसरे के साथी हैं, वे अपनी-अपनी इच्छा अनुसार परस्पर संतुष्टि तक एक-दूसरे का सहयोग करेंगे। अमूमन प्रत्येक कार्य(खासकर प्रणय सम्बन्ध के संदर्भ) में ताकि जीवन की रेलगाड़ी हंसी-खुशी और तारतम्यता के साथ चलती रहे।
बहरहाल, ऐसा हो नहीं रहा है चूंकि ऐसा होने भी लगे तो ये कोई आदर्श स्थिति बन नहीं जाएगी क्योंकि दो भूखे लोग भरपेट खाना खायेंगे तो इसमें आदर्श स्थिति क्या है? जबकि दोनों भरपेट खाने पर तृप्त ज़रूर होंगे, जिससे तन-मन दोनों खुश रहेगा और सम्बन्ध भी अच्छा रहेगा। इस अवस्था को आदर्श स्थिति तो कतई नहीं कह सकते लेकिन ये प्रसन्नता के क्षण अवश्य कहे जायेंगे।
दरअसल आदर्श स्थिति का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी था क्योंकि लोग-बाग आदर्श स्थिति अथवा अवस्था के बारे में विचार करते ही उससे कन्नी काट लेते हैं ऐसा क्यों? वो इसलिए क्योंकि अधिकतर का यही मानना है कि आदर्श अवस्था की केवल कल्पना ही की जा सकती है उसे व्यव्हार में लाना नामुमकिन सा है। आदर्श अवस्था स्थापित हो अथवा नहीं इस विषय पर अनेक विद्वानों में मतभेद है। बहरहाल भूख के मुताबिक लोग तृप्ति प्राप्त करें ये उनका मौलिक अधिकार है कोई आदर्श अवस्था अथवा स्थिति नहीं।
जब ये बात पेट की भूख मिटाने में सहज लगती है तो फिर बिस्तर पर शारीरिक इच्छाओं की तृप्ति की बराबरी की बात पर लोग बिफर क्यों जाते हैं? 440 वोल्ट का करंट क्यों लग जाता है? क्रोध से चेहरा क्यों तमतमा जाता है आदि कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर में क्रोध के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। हमारे समाज में सार्वजानिक स्थल पर सेक्स, हस्तमैथुन, सेक्स में पसंद और कामोन्माद अर्थात ऑर्गैज़्म आदि पर बात करना वर्जित है।
माने सभ्य समाज में ऐसी गन्दी और घिनौनी बात करना अच्छी बात नहीं है। हां, मां-बहन की गलियां खुलेआम दे सकते हैं वो भी जी भर के, एक इस काम से सभ्यता के ठेकेदारों को कोई फर्क नहीं पड़ता। दरअसल सहवास में भी चुनाव केवल पुरुष ही करेगा और पसंद भी वही ज़ाहिर करेगा और चरमोत्कर्ष भी वो ही प्राप्त करेगा, सहचरी का कुछ हो या नहीं वो इस बारे में कुछ बोल भी नहीं सकती। उसके लिए तो ये एक वर्जना ही है, ये सब केवल पितृसत्तात्मक समाज की देन है और पुरुषवादी महिलाओं के पालन-पोषण का नतीजा है कि लड़कियां अपनी मर्ज़ी अथवा पसंद को ज़ाहिर नहीं कर पातीं और मानसिक तनाव के गर्त में चली जाती हैं।
अभी हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म ‘वीरे दी वेडिंग’ में अभिनेत्री स्वरा भास्कर के हस्तमैथुन के एक दृश्य और नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुयी फिल्म ‘लस्ट स्टोरीज़’ में अभिनेत्री ‘कायरा अाडवाणी’ के वाइब्रेटर द्वारा मास्टरबेशन के एक दृश्य को लेकर जिन लोगों ने हंगामा खड़ा किया, वो भी पितृसत्ता के ठेकेदार हैं जिनके अनुसार फिल्मकारों और अभिनेत्रियों ने फिल्म में ऐसे दृश्य फिल्माकर धर्म और सभ्यता दोनों को नष्ट करने का प्रयास किया है।
फिलवक्त यौन जीवन, ज़िन्दगी का एक महत्वपूर्ण और ज़रूरी हिस्सा है जो समाज का केंद्रबिंदु है और उसपर खुलकर बिना किसी हिचक के चर्चा हो। इस बारे में हमें अपनी बेबाकी के लिए एक मशहूर शख्सियत अंग्रेज़ी लेखक और पत्रकार स्व. सरदार खुशवंत सिंह से सीख लेनी चाहिए। उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान पूछे गये एक सवाल “आप उम्र के इस पड़ाव में आकर सबसे ज़्यादा क्या मिस करते हैं?” के जबाब में एक वाक्य में उत्तर दिया “बढ़िया सेक्स को बहुत मिस करता हूं|”
एक अन्य इंटरव्यू में उनसे पूछा गया “साहचर्य के बारे में महिलाओं की समझ तथा अनुभव क्या हैं?” उन्होंने गंभीर होते हुए जबाब दिया कि “हमारे यहां अधिकतर महिलाएं सिर्फ बच्चों को जन्म देने का यंत्र समझी जाती हैं और वे आधे दर्जन बच्चों की मां बन चुकी होती हैं लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें सेक्स का असली आनंद क्या होता है कभी पता नहीं चलता।”
इससे एक बात तो साफ होती है कि स्त्रियों को शुरू से ही केवल पुरुष के भोग के लिए तैयार किया जाता है कि शादी के दिन सुहागरात में खुद को अपने पति परमेश्वर के सामने परोस देना और जैसा वो कहें वैसा ही करना। इसका सबसे बेहतर उदाहरण हम प्रख्यात लेखक भीष्म सहनी के मशहूर नाटक ‘माधवी’ का ले सकते हैं। माधवी एक ऐसा क्रन्तिकारी नाटक है जो हमारे समाज में स्त्रियों की दशा और उनके स्थान को पूरी नग्न अवस्था में प्रस्तुत करता है।
ये नाटक ‘महाभारत’ की एक कथा पर आधारित है जिसमें ऋषि विश्वामित्र का शिष्य गालव अपने गुरु से गुरु दक्षिणा मांगने की हठ करता है।ऋषि उसके ज़िद्दी स्वभाव से क्रुद्ध होकर 800 अश्वमेघी घोड़े मांग लेते हैं। अब गालव गुरु-दक्षिणा स्वरुप अश्वमेघी घोड़े प्राप्त करने के लिए दानवीर राजा ययाति के आश्रम पहुंचता है, जहां राज-पाट से निच्चू/निवृत्त हो चुके राजा गालव की प्रतिज्ञा सुनकर असमंजस में पड़ जाते हैं, लेकिन वो ठहरे दानवीर राजा तो वे अपनी दैवी गुणों से परिपूर्ण पुत्री को गालव को दान स्वरुप सौंप दे देते हैं। ये कहते हुए कि उनकी पुत्री को जहां कहीं किसी राजा के पास 800 अश्वमेघी घोड़े मिलें, उनके बदले माधवी को राजा के पास छोड़ दें।
माधवी के बारे बताया गया है कि उसके गर्भ से उत्त्पन्न बालक चक्रवर्ती राजा बनेगा और माधवी गर्भ धारण के बाद एक अनुष्ठान करके पुनः कुंवारी बन जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया में माधवी कई राजाओं के पास ले जाई जाती है और सभी राजाओं को पुत्र रत्न देकर गालव के साथ आगे चल देती है। इस तरह गालव 800 अश्वमेघी घोड़े प्राप्त कर लेता है और ऋषि विश्वामित्र को गुरु दक्षिणा दे देता है।
इस पूरे घटनाक्रम में माधवी को किन-किन मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं से गुज़रना पड़ता है उसकी सुध कोई नहीं लेता, ना तो गालव और ना ही कोई अन्य राजा। माधवी जब-जब मां बनती है तो उसे हर बार अपनी ममता का गला घोटना पड़ता है और अपनी सभी इच्छाओं को तिलांजलि देनी पड़ती है परन्तु इस दौरान उसे गालव से प्रेम भी हो जाता है। मगर आखिरी बार मां बनने के पश्चात् माधवी पुनः कौमार्य प्राप्त करने से मना कर देती है और उसी अवस्था में गालव के साथ होना चाहती है किन्तु गालव बिना कौमार्य के माधवी को अपनाने से मना कर देता है। तब इस मोड़ पर आकर माधवी गालव को छोड़ कर चली जाती है। तब वो इस बात पर विचार करती है कि सभी ने केवल उसका भोग ही किया और किसी ने भी उसे समझने तथा जानने का प्रयास नहीं किया।
नारी की तब भी यही स्थिति थी और आज भी ऐसी ही है। नारी को हमेशा पुरुष की भोग्या अर्थात वस्तु मात्र समझा गया, उसे एक अलग व्यक्ति के रूप में पहचान मिली ही नहीं। उसके विचारों का, इच्छाओं का और पसंद का तिरस्कार ही किया गया।
आज के समय इन दकियानूसी विचारों को त्यागना चाहिए, यदि नर और नारी दोनों समान हैं जो कि हैं तो उन्हें सामान सुख और संतुष्टि प्राप्त करने का हक भी है। ऐसा तो है नहीं कि आदमी हैं, मर्द हैं तो सभी अधिकार केवल उसी के हैं। अरे भले ही वो मर्द है लेकिन है तो वो एक इंसान ही ना जैसे एक औरत इंसान होती है। क्या नर और नारी दोनों के लिए कोई अलग सम्बोधन है? नहीं। दोनों के लिए एक समय पर एक ही शब्द प्रयुक्त होता है वो है व्यक्ति या लोग या इंसान। इन दोनों शब्दों में से किसी एक को हम किसी भी परिस्थिति में प्रयोग कर सकते हैं। जैसे:- किसी स्थान पर चाहे एक आदमी बैठा हो या एक औरत बैठी हो या फिर दोनों एकसाथ बैठे हों। इस स्थिति में हम यही कहेंगे कि वहां एक व्यक्ति बैठा है या दो व्यक्ति बैठे हैं इससे अधिक कुछ नहीं।
तो भईया दोनों एक-दूसरे के सहभागी हैं संपूरक हैं, तो उन्हें सहवास में भी समान सुख और संतुष्टि मिलनी ही चाहिए।
इसी विषय पर एक यूट्यूब चैनल ‘BLUSH’ ने 9 जुलाई 2017 को ‘Mothers & Daughters Series’ का एक यूट्यूब वीडियो ‘Khaney Mein Kya Hai?’ नाम से जारी किया था, जिसमें माँ-बेटी के बीच में अप्रत्यक्ष रूप से ‘कामोन्माद’ पर संवाद होता है जिसे देखने पर आपको मज़ा भी आयेगा और सोचने पर मजबूर भी होंगे।
इस वीडियो में तीन प्रमुख किरदार हैं जिन्हें आयेशा रजा मिश्रा, शिखा तलसानिया और स्वच्छता गुहा आदि कलाकारों ने बड़ी खूबसूरती से निभाया है और इसे डायरेक्ट किया है आकांक्षा सेड़ा ने। बहुत ही उम्दा, हंसी-मज़ाक और समाज को एक बेहतरीन संदेश देने वाला वीडियो है| आकांक्षा सेड़ा ने इस वीडियो को बनाकर समाज में सहवास और कामोन्माद पर बने टैबू अर्थात वर्जना को तोड़ने का अच्छा और आवश्यक प्रयास किया है| इसके लिए इस वीडियो की पूरी टीम को “थैंक यू” तो बनता है बॉस।