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वो बातें जिनका ख्याल एक वोटर को चुनाव के वक्त रखना चाहिए

women voters

Women standing in line to vote

भारत में आज कल की राजनीति एक नया मोड़ ले रही है। जनता चुनावों में मुद्दों से सरोकार ना रखकर सीधे – सीधे स्वयं को पार्टी निष्ठ बना लेती है। मीडिया जिसको लोकतंत्र का ‘ चौथा स्तंभ’कहा जाता है उसने भी अपने हितों को साधने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं को किसी ना किसी पार्टी की प्रशंसा में संलिप्त कर लिया है जो पहले जनता में जागरूकता का कार्य किया करती थी । मगर जाने अंजाने में जनता ही राजनेताओं के इस दुष्चक्र के सफल होने में सहयोग दे रही है चूंकि बेशख साक्षरता दर कितनी भी क्यों ना हो परंतु एक बात स्पष्ट मुखर होती है कि चुनावी शिक्षा का अभाव जनता में अभी भी बना हुआ है और रही सही कसर विभिन्न राजनीतिक दल मूल मुद्दों को केंद्र से हटा किसी भी अवांछनीय मुद्दे को ही उसका केंद्र बना देते हैं। जिसका विकास, रोजगार, सकल घरेलू आय जैसे वांछनीय मसलों से दूर तक कोई सन्बंध नहीं होता।

 

इन दिनों प्रत्येक दल एक दूसरे पर जनता को मुद्दों से भटकाने का आरोप लगाता है मगर खुद ही प्रतिद्वंद्वी के विरुद्ध निजी व  अनावश्यक टिप्पणी करता है जो उस नेता को सस्ती लोकप्रियता पाने में माकूल मदद करता है। आमतौर पर दल का कोई एक लोकप्रीय नेता ही दल का नेतृत्व कर रहा है जो कि चुनावी राजनीति में स्वयं का केन्द्रीकरण कर लेता है। इसका स्पष्ट अर्थ ये हुआ कि वह व्यक्ति विशेष ही पार्टी बन जाता है और जनता मुद्दा निष्ठ ना होकर पार्टीनिष्ठ या उस पार्टी के ‘स्टार फेस’ की निष्ठा में आतुर दिखाई देती है।

चुनावी शिक्षा ये शब्द संभवत आम नागरिकों के लिए थोड़ा सा जटिल लगे परंतु बहुत सरलता से इसका प्रचार – प्रसार करके इस सन्बंध में जागरूकता लाई जा सकती है कि विभिन्न स्तर के चुनावों में क्या अनुसंधान आवश्यक है जिसका विवेक जनता के हित में, जनता के लिए, जनता के द्वारा हो। इसके कुछेक बिन्दु निम्नांकित हैं :-

लोकतंत्र लोगो द्वारा संचालित होता है तो विभिन्न मुद्दों की सूची भी आम- जन तय करें न कि राजनैतिक दल। मतदाता को उस विशेष समय तथा विशेष परिस्थितियों के अनुसार कि उसकी आर्थिक, सामाजिक व व्यावसायिक दृष्टी से उसे किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा कौन सी पार्टी उसके इन मसलों को अपने मेनिफेस्टो में स्थान दे रही है वो भी उसके पूर्व समाधान के साथ। पूर्व समाधान का विषय इसलिए भी दृष्टव्य है क्योकि चुनाव के दौरान पार्टी वायदों की सूची आंखें-मूंदकर तैयार कर लेती है परंतु चुनावोपरांत उसके पास हल नहीं होता। जीतने की लालसा इतनी हावी होती है कि मुद्दों की फेहरिस्त बस कागज़ के कपड़ों में चुनाव चिन्ह के साथ तय लगे रह जाते हैं।

दूसरा ध्यातव्य है कि चुनाव किस स्तर का है विधानसभा या लोकसभा आदि। वर्तमान दौर में राजनैतिक दल का कोई एक स्टार फेस ही अपने दल का अंधाधुंध गुणगान करता है जोकि बहुत हास्यास्पद सा प्रतीत होता है या ऐसा लगता है कि किसी पुराने दरबार का चारण कवि एक बार पुन: दिख गया हो।

जबकी वह नेता संभवतः उस क्षेत्र का मूल निवासी ही न हो और अपने कार्य-क्षेत्र की गतिविधियां और स्वयं लिए गए सराहनीय फैसले नागरिकों के बीच रखता है। मतदाताओं को चुनाव के स्तर पर केंद्रित रह कर हर दल का आकलन करना चाहिए। जैसे कि: अगर राज्य के विधान सभा चुनाव है तो मतदाताओं को किसी भी दल द्वारा किए गए केंद्रीय या किसी अन्य राज्य में किए गए कार्यों को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए चूकि उसका सरोकार अब विधायक से होगा ना कि उस केंद्र के किसी मंत्री या ऐसे ही किसी स्टार फेस से।

तीसरा, यह कि मतदाताओं को अपने स्थानीय उम्मीदवारों पर केंद्रित रहना चाहिए। सरल भाषा में मतदाता को उस स्थानीय उम्मीदवार की योग्यता, क्षमता से प्रभाव में आना चाहिये ना कि उसकी पार्टी की स्थिति से। इससे एक लाभ यह निश्चित ही है कि यदि कोई उम्मीदवार दल बदल करता भी है तो इससे मतदाता को किंचित भी फर्क नही पडेगा और उपयुक्त उम्मीदवार को ही वोट देना चाहिए, जिसने कि उसके जीवन की समस्याओं से जुड़े और जूझते मुद्दे को अपना ध्येय बनाया हो न कि व्यर्थ सांप्रदायिकता की नीति अपनाई हो।

इन चरणों को अपनाने से कुछ समय के लिए राजनैतिक अस्थिरता के आने की संभावना है परंतु यह उपाय राजनीति का स्तर उठाने और विकास की रफ्तार बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

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