जब रंग को रंग की तरह देखा जाता है तो प्रकृति के सारे रंग अपने आप में अनूठे लगते हैं। चाहे वो काला हो या सफेद, हरा हो या पीला। फिर क्यों इंसान के शरीर का रंग भेदभाव पैदा करता है? क्यों शरीर पर पड़ते ही काले रंग की रंगत सफेद रंग की चकाचौंध में फीकी पड़ जाती है? इंसानों में रंग को लेकर भेदभाव तो आम बात है, लेकिन बात जब स्त्री की आती है तो ये भेदभाव और गहरा हो जाता है। समाज में स्त्री अपने रंग को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। घर-परिवार से लेकर कामकाजी महिलाओं तक समाज के हर स्तर पर वे अपने रंग को लेकर भेदभाव का सामना कर रही है।
समाज में औरतों को जज करना तो जैसे एक अवधारणा बन चुकी है। कभी कपड़ों के लिए, उठने बैठने के तरीकों के लिए, ज़्यादा बोलने के लिए और खासकर रंग के लिए। माता-पिता में अगर किसी का रंग सांवला है तो, लोगों की पहले से ही सोच बन जाती है कि इसके बच्चे तो सांवले होंगे। लोगों की सोच का हम पर इतना असर पड़ जाता है कि खुद हमारे माँ-बाप ये सोचने लगते है कि हम दोनों में से किसी का रंग तो हमारे बच्चे पर चढ़ेगा ही। यह बात मैं इसलिए आसानी से कह सकती हूं, क्योंकि मैंने कहीं न कहीं इस सोच को अपने घर में पनपते हुए देखा है।
मेरे पैदा होने से पहले माँ को बस यही डर लगा रहता था कि उनके बच्चे का रंग उनपर न जाए। वो क्या है न मम्मी का रंग सांवला जो था। जबसे मेरी मां शादी कर पापा के घर आई थी, तबसे उनको सांवले रंग पर ताने सुनने को मिलते रहे। जबकि घर के बड़े-बुजुर्ग अपनी इच्छा से मां को ब्याह कर घर लाए थे। शादी से पहले कई बार मिलने भी गए थे, किसी रिश्तेदार ने भी शादी से पहले कोई आपत्ति नहीं जताई थी।
शादी के कुछ दिनों बाद मां की जेठानियां उनको सांवले रंग के लिए ताने देने लगी। कैसी दिखती है, तुझ पर ये रंग नहीं अच्छा लगता, इस कलर की लिपस्टिक नहीं अच्छी लगती और जाने क्या-क्या! ये बात मुझे आजतक समझ नहीं आई कि इसका निर्णय कोई और कैसे ले सकता है कि आप पर क्या अच्छा लग रहा है और क्या नहीं? शरीर के रंग को लेकर मेरे घर में पनपी इस रुढ़िवादी सोच ने मेरी मां को भी अपनी चपेट में ले लिया। जब मैं इस दुनिया में आई, मेरा रंग थोड़ा साफ था। मां को लगा चलो अच्छी बात है कि मेरी बेटी को आगे चलकर अपने रंग के कारण इस दिखावटी समाज के ताने नहीं सुनने पड़ेंगे।
उम्र जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरे रंग में भी बदलाव आने लगा। समय के साथ मेरे शरीर की रंगत बदलती गई, साफ रंग से मेरे शरीर ने कब, सांवले रंग की चादर ओढ़ ली, पता ही नहीं चला। कच्ची उम्र में मेरा ध्यान इस ओर नहीं गया।
ये दोगला समाज कैसे मुझे मेरे रंग के आधार पर आंक सकता है। कैसे ये समाज कह सकता है कि मैं काली हूं, सांवली हूं, या गोरी नहीं हूँ तो मुझ में कमियां है? कैसे ये विज्ञापन इस बात का निर्णय ले सकते है कि मेरे अंदर वो आत्मविश्वास नहीं है, जो एक फेयर लड़की में होता है? कौन हैं ये लोग जो इस बात को निश्चित करते हैं कि मुझे बेहतर जीवनसाथी नहीं मिलेगा? छोटी उम्र से ये सुनती आ रही थी कि तुम तो साउथ इंडिया की लगती हो, नॉर्थ इंडिया में कैसे आ गई? क्योंकि मेरा रंग सांवला है, मेरे बाल घुंघराले हैं, इससे ये कैसे साबित हो सकता है कि मैं किसी खास जगह से संबंधित हूं।
अक्सर मेरे मन में ये सवाल आता है जो मुझे लगता है कि मेरी जैसी दूसरी लड़कियों के मन में भी उठता होगा कि आखिर रंग के आधार पर कोई किसी को कैसे जज कर सकता है? जबकि मनुष्य अपने व्यवहार, चरित्र, समझ और ज्ञान से बड़ा होता है ना कि रंग से। पुरुष के साथ-साथ यही बात स्त्री पर समान रूप से लागू होती है। रंग को लेकर बाज़ारु अवधारणा को नकारते हुए कई स्त्रियों ने हर क्षेत्र में ऊंचे मुकाम हासिल किए हैं।
हालांकि ये मानसिकता समाज में गहरी पैठ बना चुकी है, लेकिन प्रगति के साथ परिवर्तन अपरिहार्य है। इस ओर सामाजिक संगठन प्रयासरत है और इस सामाजिक कुरीति में सकारात्मक परिवर्तन लाने के कोशिशें जारी है। डार्क इज़ ब्यूटीफुल जैसे कैंपेन इसके जीवंत उदाहरण है। हाल ही में हुई मिस इंडिया प्रतियोगिता में दक्षिण से विजेता रही अनुकृति वास ने भी इस मानसिकता पर गहरा आघात लगाया है।