एक ज़माना था जब दूरदर्शन पर आने वाले “महाभारत” को सारा मोहल्ला एक साथ बैठकर देखता था। टीवी बहुत कम लोगों के पास हुआ करता था। फिर समय आया केबल टीवी का, जब सारा परिवार साथ बैठकर कोई शो देखा करता था। अब “नेटफ्लिक्स” और ऑनलाइन सीरीज़ का ज़माना है, जो हर कोई अपने छोटे टीवी यानी मोबाइल पर अकेले देखता है। शायद कटेंट बढ़ गया है और हम कम हो गए हैं। खैर! जिस भी समय की बात हो, किड्स टैलेंट शोज़ को हमेशा टीवी पर एक अलग जगह मिली है।
मेरी उम्र आठ-नौ साल रही होगी, सा रे गा मा पा लिटिल चैंप्स जैसे अन्य टैलेंट शोज़ टीवी पर आते थे। संगीत में दिलचस्पी के कारण बहुत ही मन से ये कार्यक्रम देखता था, लगता था कि कभी मैं भी यहां अपनी जगह बनाऊंगा, पर जब थोड़ा बड़ा हुआ तो समझ आया कि उन कार्यक्रमों में रिएलिटी के नाम पर झूठ और शोषण के अलावा और कुछ नहीं है। टैलेंट शोज़ के भयानक पहलुओं से रूबरू कराने से पहले बता दूं कि जिस मकसद से ये शोज़ चलाएं जाते हैं (बच्चे के अंदर की छिपी हुई कला को बाहर निकालना) उसके ठीक उलट उस कला का गला घोंट देते हैं।
पहले ये बच्चों के अंदर के बचपने को खत्म कर उसके हल्के से मन में भारी भरकम इमोशन्स भरते हैं, फिर उनमें मौजूद हज़ारों जिज्ञासाओं को टीआरपी की बलि चढ़ा देते हैं। बचपन से उन्हें एक सिस्टम को फॉलो कराया जाता है, कब हंसना है? कब रोना है? कितना ड्रामा करना है? टीआरपी के भूखे भेड़िये बच्चों के असली जज़्बातों को खत्म कर देते हैं।
जज़्बात खत्म करने से वह बच्चों के अंदर की कला को वहीं मार देते हैं, फिर वह बच्चे बस बस शो की स्क्रिप्ट की कठपुतली बन जाते हैं। तीन से चार व्यक्ति स्टेज के सामने बैठे इन कठपुतलियों को दूसरों के लिखे, गाए हुए गानों को गंवा कर जज करते हैं। वयस्क मज़ाक और ज़बरदस्ती की इमोशनल अपील एक समय बाद उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन उनकी नींव को खोखला बना देती हैं।
इन प्रोग्रामों को देखने वाले बच्चे भी अभी से ही भौतिकवादी सीढ़ियां तलाशना शुरू कर देते हैं। शो में आए मां-बाप ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे बच्चे उन पर नहीं बल्कि वो बच्चों पर निर्भर हों। जज़्बातों को उग्र कर उसमें फिल्म प्रमोशन का तड़का डाल टीआरपी वाले तो खूब कमा लेते हैं पर शो जीतने वाले को छोड़कर अन्य प्रतिभागी कौन सी गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाते हैं पता भी नहीं लगता। चकाचौंध से उतर उन्हें वापस अपनी ज़िंदगी में लौटना पड़ता है जो फिर उन्हें बेरंगी लगती है।
टीवी की चकाचौंध में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिऐ ये बच्चे अपने मन की आवाज़ को अनसुना कर देते हैं। शायद इसलिए ही यूरोपियन और वेस्टर्न देशों में स्वतंत्र कलाकारों की भारी संख्या है और भारत में कमी। खैर, यूट्यूब और अन्य सोशल मीडिया मंचों की वजह से इंडिपेंडेंट कलाकारों की संख्या में इज़ाफा हुआ है पर लोगों की प्राथमिकता अभी भी टैलेंट शोज़ ही हैं।