कुछ दिनों पहले जब UGC को खत्म करने और एक नया कमीशन बनाये जाने की बात हुई उससे पहले अव्वल विश्वविद्यालयों को स्वायत्ता देने की बात हुई, उससे पहले HEERA की स्थापना की बात हुई बाद में बजट में HEFA की घोषणा की गई। पिछले साल से ये एजेंसी काम भी करने लगी है।
अब अगर कोई सामान्य इंसान इन घटनाओं को अलग-अलग देखें तो मुश्किल से अनुमान लगेगा कि असल में चल क्या रहा है? मगर इन घटनाओं को एक साथ जोड़कर एक श्रेणी में रखकर देखने पर एक डरावनी तस्वीर उभरती है, ये सारी घटनाएं अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही घटना के अलग-अलग चरण हैं। और वो घटना है उच्च शिक्षा पर नवउदारवादी हमला।
जब पिछले दिनों सरकार ने घोषणा की कि UGC के खात्मे के बाद बनने वाला नया कमीशन बस अकादमिक मामलों को देखेगा और अनुदान का अधिकार मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास होगा तभी यह स्पष्ट हो गया था कि ये अधिकार मंत्रालय नहीं बाज़ार के पास होगा।
अब कैबिनेट के फैसले ने स्थिति और साफ कर दी है, कैबिनेट ने HEFA की मूल पूंजी 2000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 10000 करोड़ रुपये किए जाने की अनुमति दी और HEFA के दायरे में पहले जहां IIT, NIT, IISc, IISER आते थे अब इसका दायरा बढ़ाकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है।
खेल को समझिये उधर UGC को समाप्त किया गया इधर HEFA की पूंजी और दायरा बढ़ाया गया। मतलब विश्वविद्यालयों को शोध और विकास तथा आधारभूत संरचना के विकास के लिए दिए जाने वाले अनुदान को HEFA के माध्यम से लोन में बदल दिया गया है।
HEFA की अधिकारिक वेबसाइट पर जाकर इसके बारे में पढ़िये। ये सरकारी संस्थान नहीं है ये RBI के पास कम्पनी एक्ट के अंडर पंजीकृत एक नॉन बैंकिंग फाइनेंसिंग कम्पनी है जिसका पूरा नाम Higher Education Financing Agency (HEFA) है। नाम पर ध्यान दीजिये ये फाइनेंस है ग्रैंट नहीं।
HEFA काम कैसे करती है? HEFA का काम बाज़ार से पूंजी लेकर उच्च शिक्षण संस्थानों को उधार देना है। और बाज़ार से पूंजी लेने के बारे में वेबसाइट पर बताया गया है कि परोपकारी दानकर्ताओं और कॉरपोरेट के CSR के द्वारा HEFA पूंजी जमा करेगी।
पूंजीवादी बाज़ार में कौन परोपकारी दानकर्ता है ये तो सरकार को ही पता होगा। और CSR का खेल पुराना है। HEFA से एक तीर से कई निशान लगाये गए हैं। CSR जहां पहले से ही एक पाखण्ड था अब तो कॉरपोरेट को CSR का भी इस्तेमाल मुनाफा कमाने के लिए करने का मौका दिया गया है, क्योंकि HEFA को अनुदान नहीं उधार देने के लिये बनाया गया है। और इस उधार का मूलधन चुकाने की व्यवस्था शिक्षण संस्थानों के संसाधनों से की जाएगी और ब्याज सरकार भरेगी।
मतलब शिक्षण संस्थानों की फीस भी बढ़ेगी उनपर बाज़ार का नियंत्रण भी बढ़ेगा और सरकार जनता के पैसे को जनता के ऊपर खर्च न करके उसे कॉरपोरेट को ब्याज के नाम पर देगी। उच्च शिक्षा के बाज़ारीकरण की ये साजिश बहुत सुनियोजित है तथा चरणबद्ध तरीके से इसे अंजाम दिया जा रहा है। अगर अब भी शिक्षा को बचाने की लड़ाई नहीं लड़ी गयी तो कल हमारे बचाने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा।