उषा किरण खान-
यात्री कका उर्फ नागार्जुन जितने संजीदा कवि लेखक थे, आक्रोशित नागरिक थे, ज़िद्दी व्यक्ति थे, बच्चों के साथ उतने ही स्वाभाविक थे। तभी तो गाहे बगाहे का उनका मिलना मुझमें इतनी ऊर्जा भरे रहता कि पितृहीना ने कभी भी उदासी को मेरे आसपास फटकने ना दिया। बचपन में उनसे कविता सुनी थी, पूरी भाव भंगिमा के साथ,
आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की।
हम बच्चों को बहुत मज़ा आया था, बाद में उसका प्रछन्न व्यंग्य पता चला। जेपी के आंदोलन के समय नुक्कड़ सभा में, “इन्दु जी इन्दु जी क्या हुआ आपको, सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को” नाच-नाच कर गाते। उनके आकर्षण से युवजन खिंचे चले आते।
हमारे घर की बदलती पीढ़ी के बच्चे ककाजी के प्यारे होते। बच्चों के लिये फल आदि लाकर रख देते और चाहते कि वे बिना मांगे मर्ज़ी से खा लें। फिर खा जाने पर नकली गुस्सा दिखाते थे।
ऐसे में एक दिन मेरे पति रामचंद्र खान ने सुन लिया और बच्चों को डांटने लगे। बाबा बच्चों की ओर हो गये, उल्टे उन्हें ही डांटने लगे। आपको दफ्तर जाना है या नहीं। उन्होंने कहा, “नहीं सात बजे रात में क्यों जायें दफ्तर?” तो संभालिए अपने स्टेट का लॉ एंड ऑर्डर, घर में मैं हूं संभालने के लिये।
सो यह था उनका बच्चों के लिये प्यार। उनके पास सदा युवजन घिरे रहते। उन्हें नवीन ऊर्जा से भरे युवा पसंद थे।
बाबा को उत्तर प्रदेश का भारत भारती पुरस्कार मिला, वह भी इंदिरा गांधी के हाथों। यहां आने पर बाबा को युवकों ने घेरा, आपको बुरा नहीं लगा उनसे पुरस्कार लेना? कैसे ले लिया। बाबा ने कहा,
वो खड़ी हुईं मैं भी खड़ा हो गया, वो दो कदम आगे आईं मैं भी दो कदम बढ़ा, उन्होंने पुरस्कार दिया मैंने ले लिया, बस।
आपने उनको इतना सुनाया, विरोध किया, फिर भी?
मैंने किया विरोध, उन्होंने तो मुझे कुछ ना कहा। चिढ़ना उन्हें चाहिये था, मुझे क्यों?
युवजन एक दूसरे का मुंह ताकते रह गये।
बाबा किसी बात के लिये अतिरेकी नहीं थे। बुद्ध के मध्यम मार्ग को मानते थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि मनुष्य बचेगा तभी सृष्टि बचेगी।
बाबा के विषय में सब जानते हैं कि वे घूमन्तू प्राणी थे। पर परिवार से अलग कभी नहीं थे। चौदह वर्ष की आयु में विवाह हो गया था पर उनका मन नहीं बंधा था। वे अनजान डगर पर भाग खड़े हुए। बाद में उन्होंने मैथिली में कविता लिखी, “अहिबात पाताल फोडिफाडि, मां मिथिले ई अंतिम प्रणाम”।
वर्षों बाद श्रीलंका से लौट आये थे बौद्ध बनकर, राहुल जी के साथ तिब्बत से खच्चर पर लादकर सामग्री ले आये थे। वे एक्टिविस्ट हो गये थे। उसी क्रम में जेल में थे। यह सब देश की आज़ादी के पहले की बात है। वहीं मेरे बाबूजी से उनकी मुलाकात हुई जो आज तक अनुपम मैत्री का उदाहरण पेश करती है। बाबा को परिवार याद आया। उन्होंने कविता लिखी, “याद आता है तुम्हारा, सिन्दूर तिलकित भाल”
जेल से छूटे तो पिता और ससुर फाटक के बाहर खड़े मिले। थोड़ी ना नुकुर के बाद घर गये, गृहस्थी बसाई। काकी की कोई बात टालते न देखा न सुना। अद्भुत दाम्पत्य था दोनों का। बंधन था तो प्यार का, विश्वास का, मुक्त थे तो तन से मन से। अनुकरणीय चरित्र शीशे की तरह साफ शफ्फाक!
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एडिटर्स नोट- लेखिका पद्मश्री सम्मानित चर्चित मैथिली साहित्यकार हैं।