ट्रांसजेंडर समुदाय सारे विश्व में शोषण का शिकार होता आ रहा है। समाज की द्विलिंगी रूढ़िवादी मानसिकता के कारण इन्हें पूरी तरह से सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पायी है। इन्हें आज भी मानसिक तौर पर बीमार घोषित किया जाता है। इस समुदाय के यौन सम्बन्ध को अप्राकृतिक माना जाता है और इनके जन्म को असामान्य ठहराया जाता है।
विश्व बैंक व विश्व स्वाथ्य संघठन ने भी इस समुदाय के सामाजिक एवं आर्थिक सुधार को दरकिनार किया है। द्विलिंगी रुढ़िवादी समाज में अक्सर इस समुदाय पर पुरुष या स्त्री की सामाजिक मान्यताओं को जबरन थोपा जाता है। परन्तु यह समुदाय ना पुरुष है ना स्त्री है। पुरुष प्रधान समाज में इनके प्रति घृणा प्रकट की जाती है।
लिंग के आधार पर किये जाने वाले इस भेद-भाव को समाज ने कभी गंभीरता से नहीं लिया है। स्त्री विमर्श में लैंगिक समानता की बात की जाती रही है, परन्तु इसमें भी मात्र स्त्री पुरुष समानता की बात की गयी है।
स्त्री व पुरुष के आलावा अन्य विविध लैंगिकता की बात ना किये जाने के कारण आज ‘ट्रांसजेंडर समुदाय विमर्श’ को लेकर नए परिप्रेक्ष में बात किये जाने की पहल विश्व में देखने को मिल रही है। इसमें स्त्री, पुरुष और विविध लैंगिकता के समुदाय की समानता की बात की जाती है। स्त्री और पुरुष के साथ-साथ विविध लैंगिकता के व्यक्तिओं के मानवीय अधिकारों की बात इसमें की जाती है।
ट्रांसजेंडर विमर्श एक नया विमर्श है। इसके अंतर्गत ट्रांसजेंडर समुदायों की संस्कृति का अध्ययन किया जाता है।
मनोविज्ञान के वैज्ञानिक पक्षों से यह साबित हुआ है कि ट्रांसजेंडर होना कोई मानसिक बीमारी नहीं है। ट्रांससेक्शुअल कोई शारीरिक या लैंगिक विकलांगता नहीं है। यह एक प्रकार की लैंगिक विविधता है। इस प्रकार की लैंगिकता का होना भी एक कुदरत का ही करिश्मा है।
यह समुदाय मनुष्य की कौम को बढ़ाने में सहयोगी नहीं हो सकता है। इस वजह से रुढ़िवादी पुरुषप्रधान समाज में इन्हें सामाजिक विकास के अयोग्य घोषित किया जाता रहा है। बहुसंख्यक स्त्री और पुरुष की मान्यताओं को यह समुदाय स्वीकार नहीं करता है, इसके कारण इन्हें असामाजिक माना जाता है।
मनुष्य अपने स्वार्थपरकता के कारण अपने उपयोग में आने वाले सामाजिक तत्व को ही स्वीकार करता आया है और इसी सामाजिक तत्व को समाज में तवज्जो दी जाती है। इन सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति ना कर पाने वाले इस समुदाय को अपने ही घर में बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।
ट्रांससेक्शुअल व्यक्ति के यौन सम्बन्ध को लेकर भी समाज में गलत धारणाएं प्रचलित हैं। इस प्रकार से स्थापित किये जाने वाले यौन सम्बन्ध को अप्राकृतिक ठहराया जाना भी पुरुषवादी द्विलिंगी मानसिकता का ही षडयंत्र है।
द्विलिंगी पुरुषप्रधान समाज में यौन सम्बन्ध स्थापित करने का लक्ष्य कौम का विकास करना या स्त्री के शरीर पर अपना आधिपत्य जताने से रहा है। परन्तु ट्रांससेक्शुअल व्यक्ति के लिए यौन सम्बन्ध स्थापित करने का लक्ष्य मात्र आनंद प्राप्ति से रहा है।
पुरुषवादी समाज में स्त्री के शरीर पर पुरुष का आधिपत्य रहा है। पुरुषों की तरह यह समुदाय अपने आधिपत्य को स्त्री के शरीर पर काबिज नहीं करता, इसलिए इन्हें नामर्द, छक्का आदि अपमानजनक शब्दों द्वारा मानसिक यातनाओं का शिकार बनाया जाता है। पुरुषवादी मानसिकता वाले समाज में अपनी विनाशकारी मर्दानगी को स्त्री के शरीर पर साबित ना कर पाने वाले व्यक्ति की मर्दानगी पर सवाल उठाये जाते हैं।
जन्मतः पुरुष लिंग का व्यक्ति होकर स्त्रीत्व को स्वीकार करने वाले ट्रांससेक्शुअल समुदाय के व्यक्ति पर मुख्यधारा का समाज जबरन अपनी मर्दानगी की मान्यताओं को थोपता है।
ट्रांससेक्शुअल व्यक्ति यौन सम्बन्ध स्थापित करके संतान को जन्म नहीं दे सकता है। परन्तु, यह व्यक्ति गोद लिए हुए बच्चे का लालन–पालन करने में सक्षम होता है। पुरुषवादी मानसिकता के समाज में उनकी इस सक्षमता पर भी सवाल उठाये जाते हैं। द्वलिंगी पुरुषवादी मानसिकता के समाज में संतान की देख-रेख का बोझ मात्र महिलाओं पर ही लादा जाता है।
इस समुदाय के व्यक्ति की मातृत्व को लेकर भी पुरुषप्रधान समाज में सवाल खड़े होते हैं। परन्तु ट्रांससेक्शुअल व्यक्ति के लिए मातृत्व का सम्बन्ध निजी अंगों से ना होकर अपनी मानवीय ममता, करुणा एवं प्रेम से रहा है। इस समुदाय के अनुसार मातृत्व की संकल्पना पुरुषवादी संकल्पना से समृद्ध है। ट्रांससेक्शुअल व्यक्ति में भी मातृत्व विद्यमान होता है। क्योंकि मातृत्व किसी विशेष लिंग के निजी अंगों का मोहताज नहीं होता है। आज भी इनके मातृत्व पर सवाल उठाये जाते हैं। उन्हें अपनी मातृत्व का आनंद लेने से वंचित रखा जाता है। आज भी इन्हें बच्चा गोद लेने से रोका जाता है।
“मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी” आत्मकथा की रचनाकार लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ना पुरुष हैं ना स्त्री। उनमें स्त्रीत्व एवं पुरुषत्व दोनों समाहीत है। उनमें मातृत्व भी है और पुरुष से प्रेम करने की क्षमता भी। द्विलिंगी पुरुषवादी मानसिकता को यदि दरकिनार किया जाए तो वह पूर्णतः मनुष्य है। किसी भी व्यक्ति की लैंगिक भावनाओं को ठेस पहुंचना अमानवीय अपराध है।