जून का महीना बोर्ड-परीक्षा परिणामों की घोषणा के लिए जाना जाता है। इन परीक्षा परिणामों की घोषणा के साथ तरह-तरह के आंकड़े और व्याख्याएं आने लगती हैं, जो ना केवल विद्यार्थियों की सफलता और असफलता के बारे बताती है बल्कि विद्यालयी व्यवस्था के विषय में कुछ धारणाएं भी पैदा करती हैं।
सर्वप्रथम परीक्षा संबंधी व्याख्याएं विद्यार्थियों की विविधता को उनकी अकादमिक विषयों में उपलब्धि के सापेक्ष विभेद में बदल देती है। बच्चों को मंडी में सजे आम की तरह श्रेणियों में बांट दिया जाता है। किस विद्यार्थी ने किस विषय में अच्छा किया है? इसकी चर्चा करने के बजाय स्कूल में रैंक, ज़िले में रैंक और राज्य में रैंक को बताने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगती है।
हर विद्यार्थी अपने प्राप्तांक के अनुरूप अधिक से कम की लाइन में पंक्तिबद्ध हो जाते हैं। उनके जीवनानुभवों, रूचियों और अभिवृत्ति के स्थान पर परीक्षा में प्राप्तांक भविष्य का फैसला करने लगते हैं। इसी तरह कुछ अन्य व्याख्याओं को देखिये- लड़कियां, लड़कों से आगे, या सरकारी स्कूल के विद्यार्थी निजी स्कूल से आगे, फलां राज्य के परीक्षा परिणाम में सुधार आदि।
पहले तरह की व्याख्या में परीक्षा के प्राप्तांक आधार थे वहीं दूसरी तरह की व्याख्या में विद्यार्थियों को उनके जेंडर, विद्यालय, परिवार और राज्य व क्षेत्र आदि के सापेक्ष वर्गीकृत कर उसका विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण का यह तरीका एक वर्ग को दूसरे के प्रतियोगी के रूप में खड़ा कर देता है। इस तरह की प्रस्तुति में सामाजिक सच्चाई में विरोधाभासों को उभारने की कोशिश की जाती है और अपवादों का प्रतिष्ठित किया जाता है।
इसके अलावा यह विश्लेषण समाज और शिक्षा के समग्र चित्र को संज्ञान में लेने के बदले परीक्षा परिणाम को पैरामीटर मानकर सतही निष्कर्ष परोस देते हैं। जैसे- लड़कियां, लड़कों की तुलना में पढ़ने में अच्छी होती हैं। कभी आपने सोचा कि कौन सी लड़कियां, लड़कों की तुलना में पढ़ने में अच्छी हैं? लड़कों की तुलना में लड़कियों की नामांकन दर आज भी अपेक्षाकृत कम हैं। स्कूल जाने वाली लड़कियों अपेक्षाकृत ऐसे संपन्न परिवारों से हैं जो शिक्षा का महत्व समझते हैं और शिक्षा की आर्थिक और सामाजिक लागतों को वहन कर सकते हैं। वे स्कूल फीस, ट्यूशन, आवागमन आदि का खर्चा उठा सकते हैं।अपनी बच्चियों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। कुल मिलाकर जिन लड़कियों के समूह का परीक्षा परिणाम बेहतर करार दिया जाता है वे खास आर्थिक-सामाजिक वर्ग और क्षेत्र से संबंध रखती हैं जो लड़कियों के वृहद् समुच्चय का छोटा हिस्सा हैं।
ऐसे ही प्रचारित किया जाता है कि सरकारी विद्यालय खस्ताहाल होते हैं या गांव में पढ़ाई की अच्छी सुविधा नहीं है। ये भी प्रचारित पूर्वग्रह हैं जो परीक्षा के आंकड़ों पर सटीक बैठते हैं। लेकिन ये व्यवस्था में व्याप्त अवसरों की असमानता की उपज है। इसे समझने के लिए ‘अच्छे’ परीक्षा परिणाम की व्यवस्थाजन्य शर्तों को उजागर करना होगा और उसके सापेक्ष विचार करना होगा कि क्या सरकारी अथवा ग्रामीण विद्यालयों में परीक्षा की तैयारी और तत्परता निजी या नगरीय विद्यालयों जैसी थी?
हम परीक्षा परिणामों को सीधे तौर पर सीखे हुए ज्ञान का आकलन मान लेते हैं। वास्तविकता यह है कि परीक्षा में अच्छे अंक लाना एक सशर्त और यांत्रिक प्रक्रिया का परिणाम है। इसमें पढ़ाई के घण्टों की अधिकता, खेल और अन्य मनोरंजन गतिविधियों में न्यूनतम भागीदारी, समय सारिणी आदि के द्वारा कठोर अनुशासन का पालन, परीक्षात्मक युक्तियों जैसे-लेखन शैली, प्रश्नोत्तर का अभ्यास आदि की दक्षता का विकास शामिल है। इन शर्तों का पूरा करने का दायित्व विद्यार्थी, अभिभावक, शिक्षक और विद्यालय प्रशासन का होता है।
विद्यार्थी से अपेक्षा होती है कि वह कक्षा में नियमित उपस्थित रहे, दिए गये कक्षा और गृह कार्यों को करें, स्मृति को चाकू की तरह तीक्ष्ण धार वाला बनाए, समय-समय पर होने वाली मासिक या त्रैमासिक परीक्षाओं में इस धार का प्रदर्शन करे। अध्यापक से अपेक्षा होती है कि वह रोज़ ‘अर्जुन‘ रूपी विद्यार्थी को मछली की आंख रूपी परीक्षा के प्रति सचेत करे।
चूंकि जिज्ञासा और रोचकता आदि का परीक्षा से कोई सीधा संबंध नहीं है इसलिए वह अच्छे अंक के लिए परीक्षा का चक्रव्यूह भेदने की हर रणनीति का अभ्यास भी सुनिश्चित करवाएं। पाठ्यपुस्तक के अलावा सहायक पुस्तकों आदि के द्वारा संभावित विषयों और प्रश्नों को रटवाये। अच्छे अंक पाने की अपरिभाषित कसौटियों जैसे-सुंदर और स्वच्छ लेखन, उद्धरणों के प्रयोग, कई रंग की स्याही से लिखने आदि के महत्व पर प्रकाश डाले।
अभिभावकों से अपेक्षा होती है कि वे बच्चे की स्कूल आने-जाने में नियमितता की बाधाओं को समाप्त करें, घर पर संसाधन जैसे-समय, कोचिंग, मॉनीटरिंग आदि उपलब्ध कराएं और परीक्षा की तैयारी के समस्त लागतों का वहन करें। विद्यालय से अपेक्षा की जाती है कि उसकी समग्र अधिगम संस्कृति विद्यार्थियों को तनाव मुक्त रखते हुए परीक्षा का सामना करने के लिए तैयार करे। विद्यालय से अपेक्षा है कि वह अभिभावक, शिक्षक और विद्यार्थी के बीच परीक्षा को लेकर व्यूह रचना की निगरानी करता रहे। इनके बीच संतुलन को कायम रखे। अच्छे परीक्षा परिणाम की उक्त मशीनी शर्तों के सुचारू संचलन से ही परीक्षा में सफलता का परिष्कृत उत्पाद तैयार होता है। यदि कोई भी भागीदारी उक्त अपेक्षाओं की भूमिका पर खरा नहीं उतरता तो विद्यार्थी के परीक्षा परिणाम पर असफलता का ठप्पा लगा दिया जाता है।
इन शर्तों के फ्रेम से परीक्षा परिणाम की लोकप्रिय व्याख्याओं में से एक-निजी विद्यालय, सरकारी विद्यालयों से बेहतर हैं, पर विचार करते हैं। हर वर्ष की भांति जैसे-जैसे परीक्षा परिणाम आते गए वैसे-वैसे एक बार पुनः बताया गया कि लगा निजी विद्यालयों का परीक्षा परिणाम सरकारी विद्यालयों से अच्छे हैं। इसका कारण निजी विद्यालयों के संदर्भ में उपर्युक्त चर्चित फ्रेम के चारों आधारों (विद्यार्थी, अभिभावक, शिक्षक और विद्यालय) का सफलता के मानकों पर खरा उतरता है। यदि इनमें से कोई आधार कमज़ोर पड़ता है तो उसकी क्षतिपूर्ति करने की व्यवस्था की जाती है।
उदाहरण के लिए यदि अभिभावक घर पर बच्चे की मदद नहीं कर सकता तो ट्यूशन का इंतज़ाम कर देता है। विद्यालय बच्चे पर अधिक दबाव देने से बचना चाहता है तो काउंसिलिंग की व्यवस्था कर देता है। जबकि सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों के संदर्भ में क्षतिपूर्ति का कोई उपाय नहीं होता। यदि बच्चे को घर के कामों में हाथ बंटाना है तो उसकी पढ़ाई के घण्टे कम होंगे, अभिभावक अपेक्षित संसाधन नहीं दे पायेंगे तो बच्चे को केवल विद्यालय के ऊपर निर्भर रहना पड़ेगा। ऐसी स्थितियों में विद्यार्थी के परीक्षा परिणाम अपेक्षानुरूप कैसे आएंगें?
हमारे यहां सरकारी और निजी स्कूल सीधे-सीधे संसाधन हीन और संसाधन संपन्न सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधि है। दुर्भाग्य यह है कि शिक्षा व्यवस्था संसाधन संपन्न समूह के साथ खड़ी है। इस संसाधन संपन्नता में शिक्षित, नगरीय, मध्यमवर्गीय और पुरूषप्रधान समूह की छवि छुपी हुयी है जो परीक्षा परिणाम को त्वरित करने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी से युक्त है।
ये परिवार अपने बच्चों साक्षरता के विस्तृत और बहुआयामी अनुभव उपलब्ध कराते हैं। चाहे लेखन शैली में नये शब्दों का प्रयोग हो या वाक्य विन्यास व लिखावट आदि में परिष्करण, विज्ञान या गणित की साक्षरता के लिए जागरूकता हो या सामान्य ज्ञान का अखबार या अन्य प्रिंट माध्यमों से समृद्ध होना, ये सब संपन्न परिवारों के रोज़मर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। ऐसे विद्यार्थी जिनके विद्यालय और घर पर साक्षरता के नाम पर केवल स्कूल की पाठ्यपुस्तक हैं, मार्गदर्शन के लिए शिक्षक हैं और परीक्षोन्मुख तैयारी के लिए कोई अन्य सहयोग नहीं है वे स्वाभाविक रूप से निबंध, आलोचना, जीवनी, गुण-दोष, आदि के सवालों में भाषायी सीमा के कारण पीछे रह जाएंगे। उनमें विज्ञान वर्ग के विषयों के प्रति आकर्षण होगा लेकिन उन्हें पढ़ाने और उनकी परीक्षा की पद्धति उनके अनुभवों को संज्ञान में नहीं लेगी। वे अंग्रेजी को ‘हिंदी‘ में पढ़ेगें।
अन्ततः उनकी यह संसाधन हीनता परीक्षा परिणाम में परिलक्षित होगी और इस तरह के लक्षणों वाला पूरा समूह सफलता के पैमाने पर पीछे रह जाएगा। इसके अलावा संसाधन-संपन्नता एक अन्य प्रच्छन्न लाभ सुनिश्चित करती है। अमूमन मनोविज्ञान का हवाला देते हुए परीक्षा के सवालों को हम वस्तुनिष्ठ तरीके से ज्ञान की परीक्षा लेने का माध्यम मान लेते हैं। इन प्रश्नों में ऐसे संतुलन की परिकल्पना करते हैं जहां कठिनाई स्तर औसत होती है और स्मृति, बोध और अनुप्रयोग आदि प्रकार के प्रश्नों में संतुलन होता है। यह व्याख्या अधूरी है। सवाल पूछा जाना चाहिए कि परीक्षा के सवाल किस समाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक वर्ग के लोगों ने बनाया है। इसका कारण यह है कि प्राश्निक ही तय करता है कि प्रश्नां का उत्तर क्या होगा? ऐसी दशा में वे अपने वैयक्तिक संदर्भ और अधिमान के आधार पर तय करते हैं कि किस सवाल को परीक्षा में पूछा जाए? और उसका अपेक्षित उत्तर क्या होगा? ये सवाल न चाहते हुए भी उन विद्यार्थियों के पक्ष में होते हैं जो प्राश्निक की पृष्ठभूमि से संबंधित होते हैं।
क्या माहौल वास्तव में निराशाजनक है? क्या इसमें रूपान्तरण की कोई गुंजाइश नहीं है? इस बार दिल्ली के सरकारी विद्यालयों का परीक्षा परिणाम उम्मीद की किरण दिखाते हैं। इनके परीक्षा परिणाम निजी विद्यालयों से बेहतर हैं।
यहां भी परीक्षा की यंत्रवत व्यवस्था कायम थी। अभिभावक और विद्यार्थियों की कड़ियां अपेक्षाकृत कमज़ोर थीं, लेकिन विद्यालय प्रशासन और शिक्षकों ने अपनी ताकत इस कमज़ोर कड़ी की क्षतिपूर्ति की।
सबने मिलकर एक सकारात्मक माहौल बनाया जहां अध्यापक, बच्चे, अभिभावक अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे थे। घर पर सहयोग या संसाधनों में अभाव की पूर्ति विद्यालय के शिक्षकों द्वारा शिक्षण में नवाचार द्वारा की गयी। प्रशासन ने शिक्षकों की मेंटरिंग की। उनकी आंतरिक अभिप्रेरणा को बनाये रखने के लिए फेलोशिप और सामाजिक प्रतिष्ठा जैसे बाह्य पुरस्कार दिये। विद्यार्थियों में विद्यालय के प्रति आकर्षण को निर्मित किया गया। विद्यालय और समुदाय के संबंध को मज़बूत किया गया। इस सबके लिए न तो शिक्षकों पर अतिरिक्त कार्य बोझ बढ़ाया गया और न ही अभिभावकों पर किसी प्रकार का आर्थिक बोझ। सबने मिलकर सरकारी विद्यालयों की ‘ब्रांडिंग‘ की। इस समग्र प्रयास से यह पूर्वग्रह का खारिज हुआ कि निजी विद्यालय, सरकारी विद्यालयों से बेहतर हैं और स्थापित किया कि सरकारी विद्यालय, निजी विद्यालयों से बेहतर हो सकते हैं।</strong