पीपीएच, दिल्ली में मेरे जीवन की पहली नौकरी थी। अनिल दा (प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक-शिक्षक-लेखक अनिल राजिमवाले) की दो लाइन का पोस्टकार्ड पाते ही मैं बिना देर किये पटना से दिल्ली रवाना हो गया था। दिल्ली पहुंचने के दूसरे दिन अनिल दा मुझे झंडेवाला स्थित पीपीएच के हेडक्वार्टर रजनीपाम दत्त भवन ले गये। वहां उन्होंने मुझे सीधे संपादकीय विभाग के इंचार्ज मुंशी जी (स्व. रामशरण शर्मा ‘मुंशी’) के हवाले कर दिया। अनिल दा जब मेरा परिचय देने लगे तो मुंशी जी ने तपाक से कहा, “मुझे पता है इनके बारे में। नागार्जुन के मित्र कवि कन्हैया के पुत्र सुमन्त।”
बाद में पता लगने पर कि मुंशी जी हिंदी के सबसे बड़े मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा के छोटे भाई हैं तो मेरा अभिमान बालिश्त भर बढ़ गया। मुंशी जी से जब मैंने पूछा कि आपको कैसे मालूम कि मेरे पिता नागार्जुन के मित्र हैं तो उन्होंने बताया, “नागार्जुन जब पटना के बारे में ज़िक्र करते हैं तो कन्हैया जी का नाम ज़रूर लेते हैं।”
फिर तो नागार्जुन, रामविलास शर्मा तथा अपने रिश्ते के बारे में वे ढेरों अंतरंग संस्मरण सुनाने लगे। उसी सिलसिले में उन्होंने एक ऐसा संस्मरण भी सुनाया जिसे जाने बिना मेरी समझ से, हमारे समय के इन दोनों ही महामानव (बाबा नागार्जुन, रामविलास शर्मा) के मन की बनावट को समझा नहीं जा सकता।
उस दिन बाबा नागार्जुन, मुंशी जी के यहां खाने पर आमंत्रित थे। रामविलास जी भी तब दिल्ली आकर बस चुके थे। तीनों ही खाने पर बैठे। मुंशी जी की टीचर पत्नी धन्नो जी सीधे तावा पर सेंकी हुई रोटियां परोस रही थीं। बाबा ने कुछ रोटियां खाने के बाद और रोटी परोसने को मना कर दिया। मगर, धन्नो जी लाख मना करने के बाद भी लाड़ से एक रोटी डाल ही दीं। फिर क्या था, बाबा एकदम से बरस पड़े धन्नो जी पर। मामला बहुत बिगड़ता देख रामविलास जी ने बाबा की लगाम थामी, “नागार्जुन, तुम तो धन्नो पर ऐसे बिगड़ रहे हो जैसे वह तुम्हारी पत्नी है!” बाबा की तो बोलती ही बंद! ऐसे झक्की थे बाबा।
बाबा की यह अद्भुत विशेषता थी! वह जिस घर में ठहरते, वहां वे पूरे घर को अपना मुरीद बना लेते थे, खासकर पत्नियों को। वे खाने में अपनी पसंदगी के बड़े पक्के थे, यह चाहिए… वह चाहिए! ज़रा भी इधर-उधर हुआ नहीं कि पिनक पड़ते थे।
पत्नियां जो उन्हें जानती थीं, सतर्क हो जाती थीं। पटना में ही उनके एक परम अनुयायी कवि अंकिमचंद्र ‘अरुण’ की पत्नी का विचित्र अनुभव था। वे बताती थीं, “बाबा उन्हें बेटी की तरह प्यार करते हैं। मेरी बीमारी को लेकर खूब दुखी रहा करते हैं। मगर, खाना खिलाने में ज़रा भी इधर-उधर हुआ नहीं कि उनकी पिनक देखते ही बनती है।”
हालांकि वे लंगरटोली, पटना वाले हमारे घर भी यदाकदा आते थे। मगर, मेरी मां का क्या अनुभव था उन्हें खाना खिलाने में, मां ने हमें यह कभी नहीं बताया।
बाबा नागार्जुन ने थोड़े ही समय के लिए बौद्ध भिक्षु के तौर पर महान यायावर तथा प्रकांड बौद्ध विद्वान राहुल सांकृत्यायन की शागिर्दी भी की थी। तो शायद यह उसी का असर था कि बाबा के जीवन में भी रोमांटिसिज़्म कम नहीं था! महिलाएं और लड़कियां उनके लिए एक विचित्र खिंचाव का सबब थीं! उनके प्रति उनका व्यवहार संतई और थोड़ी-थोड़ी लफंगई दोनों ही तरह का होता था!
बाबा का JNU में भी खूब मन लगता था। वहां वे अक्सर एक प्रोफेसर दंपति के यहां टिकते थे। तुलसी जी (प्रो. तुलसी राम) उन दिनों अध्ययन ही कर रहे थे। उन्होंने एक बार मुझे बताया, बाबा का मन वहां ही क्यों टिकता है जानते हैं सुमन्त जी? यह बात स्वयं बाबा ने ही कुछ वाचाल लड़कों के बीच बतायी है। उनकी एक सुंदर बेटी है जिसे बाबा खूब दुलार करते हैं। बाबा कभी-कभार उसके गालों को चूमते भी हैं। बाबा ने बताया कि इस तरह उनके बुढ़ापे की हड्डी में थोड़ी जान आ जाती है।
इस सिलसिले में यदि मैं उनकी एक कॉलेज टीचर शिष्या के लिखित संस्मरण का यह छोटा टुकड़ा यहां पैबश्त कर दूं तो मेरी समझ से यह प्रसंग और गाढ़ा और प्रामाणिक हो जायेगा। (नागार्जुन नहछू, सविता भार्गव, नया पथ, जनवरी-जून, 2011)
“अरे, तुम तो मेरी अपनी हो। यह कहते हुए बाबा मेरे गालों पर हाथ फेरते हुए मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया। बाबा ने कभी लड़कियों को डांटा-फटकारा हो, यह मुझे याद नहीं। अलबत्ता लड़कियां तो उन्हें प्यारी ही लगती थीं। उन पर विशेष तौर पर उनका लाड बरसता था। एक बार ऐसा ही कुछ नज़ारा उपस्थित हुआ। दोपहर के भोजन के बाद बाबा ने लेटते हुए कहा कि अब हम सोयेंगे। किसी से नहीं मिलाना। दरवाज़ा बंद कर दीजिए।
बाबा को लेटे अभी आध-पौन घंटा बिता होगा कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। मेरे ही कॉलेज की छात्राएं थीं। बाबा से मिलना चाह रही थीं। मैंने उन्हें शाम में आने को कहकर दरवाज़ा बंद कर दिया। इसी बीच बाबा तखत पर उठ बैठे और बोले, कौन है भाई। अरे उन्हें बुलाओ।
बाबा आप ही ने तो कहा था कि…
अरे भई, लड़कियों को थोड़े ही मना किया था। जाओ आवाज़ दो उन्हें।
(हां-हां क्यों नहीं। अभी कोई और होता तो बुढउ भिनभिना जाते।) मैं मन ही मन बुदबुदाई। ‘बुढउ’ की संज्ञा बाबा के छोटे बेटे श्यामाकांत की ही दी हुई थी। अक्सर मैं और श्यामाकांत बाबा के इस पक्षपात पर मज़ा लेते हुए टिप्पणी किया करते थे।
अरे, बुढउ को कम मत समझो। अभी उनका दिल जवान है, श्यामाकांत हंसकर कहते।”
आज बाबा का जनमदिन है। इस अवसर पर मेरे लिए बाबा के इस रूप को याद करने का एक खास प्रयोजन है। कोई भी बड़ा कवि या साहित्यकार चाहे वह ऊपर से कितना भी उज्जड्ड या खडूस क्यों न दिखे, भीतर से गहन रोमांटिक हुए और झक्कीपन लिये बिना अपनी ख्याति के शीर्ष पर पहुंच ही नहीं सकता। बाबा हमारे समय के एक ऐसे ही महान कवि हैं जिनकी आगे की कई पीढ़ियों तक ख्याति की दुदुंभी बजती रहेगी।