मैं सुमित, बिहार राज्य के पुर्णिया ज़िले का निवासी। हम आदिवासी समुदाय की जनसंख्या 2011 जनगणना के अनुसार बिहार की कुल जनसंख्या का लगभग 1.50 प्रतिशत है, जो बिहार की राजनीति में कोई अहम भूमिका नहीं निभा सकती। ये बातें राजनीतिक दलें बखूबी जानती हैं, इसलिए आदिवासी समाज को अनदेखा और इनसे सौतेले व्यवहार किया जा रहा है।
हालांकि, थोड़ी बहुत चिंता इन्हें आदिवासी जनसंख्या के 1.50 प्रतिशत वोट की भी है। क्योंकि इन्हें अन्य जाति-धर्म के लोगों का हम आदिवासियों के करीब होने का डर भी है।आदिवासी समाज के लोग सीधे-साधे, दिल के अच्छे, मेहनती होते हैं जिसकी वजह से अन्य धर्म-जाति विशेष के लोग सम्मान के साथ-साथ अपनापन बनाये रखते हैं। ये रिश्ता राजनीतिक गणित को बिगाड़ना के हिम्मत भी रखती है, इसलिए भी राजनीतिक पार्टियां थोड़ा बहुत आदिवासी समुदाय को नज़रअंदाज करने से डरती भी हैं।
लेकिन, फिर भी आदिवासियों की तरफ ना तो चुने गए नेताओं का ध्यान रहता है, बस चुनावी समय मे बहला-फुसलाकर या पैसों का लालच देकर वोट ले लिया जाता है। बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लगभग आदिवासी समुदाय से परिचित हैं, रुबरु हैं, इन्हें आदिवासी समुदाय अपना सर्वे सर्वा मानती है, अपना विकास उनमें देखती है और समर्थन देती है। फिर भी जनता दल यूनाइटेड सुप्रीमों नीतीश कुमार आदिवासी समाज के पीठ मे छुरा घोंपने का काम कर रहे हैं। आखिर ऐसा क्यों?
विगत कुछ वर्षों से आरक्षण में कटौती हुई है, जैसे:-
बिहार पुलिस सब इंस्पेक्टर की 1717 सीटों में अनुसूचित जनजाति की मात्र 9 सीटें जो कि आरक्षण का 1% भी नहीं।
गेस्ट टीचर नियुक्ति में अनुसूचित जनजाति को एक भी सीट नहीं।
आखिर ऐसा क्यों?
कहीं अनुसूचित जनजाति की आरक्षण खत्म करने की तो साज़िश नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या आदिवासी समुदाय का विकास सम्भव है? या फिर आदिवासी समुदाय के शिक्षा स्तर को गिरकर, उन्हें बेरोज़गार बनाकर लुप्त करने की सरकार की साजिश तो नहीं।