मई 2014 के बाद देश के सामाजिक-सांस्कृतिक हालात में काफी परिवर्तन आए हैं। इसका असर हमें अपने जीवन और पड़ोस में देखने को मिल रहा है। भीड़ हिंसक होती जा रही है। सहिष्णुता घटती जा रही है। हमारे व्यक्तिगत जीवन पर भी नज़र रखी जा रही है। आप क्या खाते हैं? आप क्या पहनते हैं? आप किससे दोस्ती करते हैं?
आपने सरकार की आलोचना की तो “आप देशद्रोही हैं, आप देश का विकास नहीं चाहते, आप देश के विकास में बाधा हैं।” चुनाव आते ही ‘पाकिस्तान’, ‘धर्म’ और ‘आतंकवाद’ का भूत तांडव करने लगता है।
हमने होश संभाला तो कहा गया, “हम भारत के लोग” हैं। स्कूल पहुंचे तो यह बताया गया, “भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए तथा, उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए, दृढ संकल्प होकर आत्मार्पित करते हैं।”
लेकिन आज ये सारे विचार और मूल्य एक-एक करके खंडित किये जा रहे हैं। एक सोची-समझी रणनीति के साथ संविधान की अवधारणा को अप्रासंगिक करने का कार्य जारी है। मगर, सवाल यह है कि क्या इसका मुकाबला राजनीतिक एक्ट से होगा या सांस्कृतिक आंदोलन की राह चुननी होगी।
चुनाव आते ही जनता को ‘पाकिस्तान’, ‘धर्म’, ‘गाय’, ‘जिन्ना’, आदि तथ्यहीन अप्रासंगिक मुद्दों में भटका कर एक प्रदूषित हवा फैला दी जाती है। क्या हम फिर से उस सांस्कृतिक आंदोलन की परम्परा को एक मंच पर संयोजित नहीं कर सकते, जो 1942 में दूसरे विश्वयुद्ध, फासीवाद और बंगाल के भीषण अकाल के साये में शुरू हुआ था।
जो आज़ादी की लड़ाई में जनता की आवाज़ बना और जिसने जनता के संघर्ष को गीत, नाटक, नृत्य, सिनेमा, चित्रकला जैसे बहुरूपी कला के रूप में ढाला। क्या देश की अावाम को जगाने के लिए सारे युवा, लेखक, कलाकार, मज़दूर, किसान अपने श्रेष्ठ कला के साथ भारत के लिये, गंगा-ज़मुनी तहज़ीब के लिए फिर एक बार साथ नहीं आ सकते। ज़िन्दा रहने और आज़ादी के गीत नहीं गाए जा सकते हैं?