आजकल यह बहस ज़ोरों पर है कि पिछले कुछ वर्षों में नौकरियां बढ़ी हैं या घटी हैं। इन दोनों पक्षों के समर्थक अपने-अपने तरह से आंकड़े एकत्र कर रहे हैं और उनकी व्याख्या कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि यहां नौकरी का केन्द्रीय संदर्भ ‘शिक्षित’ व्यक्ति को रोज़गार प्रदान करने से है। शिक्षितों को दो वर्गो में रख सकते हैं। पहले, जिन्होंने कोई प्रोफेशनल डिग्री ली है, दूसरे वे जिन्होंने कोई परंपरागत डिग्री जैसे- बी.ए., बी.एससी. आदि की उपाधि ली है।
हम मान लेते हैं कि प्रोफेशनल डिग्री के बाद रोज़गार की संभावना बढ़ जाती है। हाल के आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले कुछ वर्षों में ऐसी डिग्री वाले बेराज़गार युवाओं की संख्या भी बढ़ी है। अब ये युवा भी किसी भी प्रोफेशन को अपनाने को तैयार हैं या सामान्य स्नातक अर्हता वाली सरकारी नौकरियों को स्वीकार रहे हैं। निहितार्थ है कि रोज़गार की समस्या दोनों प्रकार के डिग्री धारकों में हैं। यह भी एक सामाजिक सच्चाई है कि हम स्वरोज़गार और स्टार्ट-अप का कितना भी नारा क्यों न लगा लें अधिकांश युवाओं के लिए रोज़गार का अभिप्राय नौकरी से है। अतः रोज़गार के लिए पात्र और इच्छुक युवा, जो रोज़गार में नहीं हैं, वे नौकरी की खोज करते हैं।
नौकरी की खोज की इस अवधि में वे खुद को नौकरी के लिए तैयार करते हैं। नौकरी के लिए इस तैयारी को शोधपरक विश्लेषणों में संज्ञान में नहीं लिया गया है। उच्च शिक्षा और रोज़गार के नामांकन आंकड़ों के बीच वे युवा जो ना तो उच्च शिक्षा में हैं और ना ही नौकरी में हैं वे इसी श्रेणी में आते हैं। यह ‘तैयारी’ शिक्षा और नौकरी के अंतराल के बीच की एक वैध अवस्था बनती जा रही है, जिसकी व्यापक स्वीकार्यता है।
इसके संबंध में एक प्रमाण देना चाहूंगा। स्नातक(ग्रैजुएशन) उत्तीर्ण करने जा रहे विद्यार्थियों का समूह मुझसे मिलने के लिए आता है। बातचीत के क्रम में वे अपनी भावी योजना को साझा करते हुए कहते हैं कि वे अब नौकरी के लिए तैयारी करेंगे। इस दौरान वे किसी कोचिंग में प्रवेश लेगें और उसके मार्गदर्शन में इस तरह की परीक्षाओं को पास करने का प्रयास करेंगे।
हर वर्ष स्नातक उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों की एक बड़ी आबादी नौकरी की तैयारी में लग जाती है। इसके लिए वे महानगरीय शैक्षिक केन्द्रों जैसे- दिल्ली, भोपाल, इलाहाबाद, चंडीगढ़ आदि स्थानों पर प्रवास करते हैं। इन स्थानों पर आप ऐसे क्षेत्र ज़रूर पाऐंगे जो तैयारी कर रहे युवाओं के हब हैं। ‘तैयारी’ की यह प्रक्रिया औपचारिक शिक्षा के बाद अनौपचारिक शिक्षा का ऐसा क्रम आरंभ करती है जिसका अंत नौकरी प्राप्त करने पर ही होता है। यह पूरा खेल प्रायिकता(प्रोबैबलिटी) का है जिसमें प्रतियोगी इस विश्वास के साथ लगा रहता है कि वह कठिन परिश्रम और कोचिंग द्वारा सीखायी गयी युक्तियों द्वारा सफल होगा। इस स्थिति ने कोचिंग पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले, इस प्रक्रिया में आवास, भोजन और अन्य संसाधन प्रदान करने वालों का असंगठित सेवा क्षेत्र तैयार कर दिया है जो लगातार उच्च शिक्षा के औपचारिक संस्थानों के समांतर विकसित हो रहा है।
विचारणीय है कि आखिर वह कौन सी तैयारी है जो 15 वर्षों की औपचारिक शिक्षा में नहीं हो पायी लेकिन कोचिंग संस्थानों के द्वारा करायी जा रही है। किसी भी प्रतियोगी परीक्षा का पाठ्यक्रम देखिए। उसमें तर्क शक्ति, गणित और भाषा की योग्यता, सामान्य ज्ञान और समस्या समाधान का समावेश होता है। कोचिंग संस्थान इसी विषयवस्तु को ध्यान में रखकर प्रशिक्षण देते हैं। तो क्या मान लिया जाए कि हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों की अकादमिक संस्कृति में गणित, भाषा, समस्या समाधान और सामान्य अध्ययन के लिए कोई स्थान नहीं है? पाठ्यक्रमों की संरचना के आधार पर इसे सिद्ध नहीं कर सकते हैं। तो क्या मान लिया जाये कि हमारे औपचारिक शिक्षण में इन पक्षों को स्थान नहीं मिलता है।
नामांकन का बढ़ता दबाव, परीक्षाओं की अधिक आवृत्ति, पाठ्यपुस्तक केन्द्रित संस्कृति और विद्यार्थियों के ‘कुछ होने’ के बदले ‘कुछ बनने’ की प्रक्रिया में देखना हमारे शिक्षण की सीमाएं हैं। इसलिए विद्यार्थी महाविद्यालयों से उपाधि तो लेते हैं लेकिन उस उपाधि के अनुरूप ना तो विषय ज्ञान रखते हैं और ना ही सामान्य गणितीय, भाषायी, तार्किक और अभिव्यक्ति क्षमता। इसके लिए कोचिंग संस्थान औपचारिक शिक्षा का विस्तार बन गए हैं जो परीक्षात्मक ज्ञान की पूर्ति करते हैं। बढ़ते प्रतियोगिता स्तर के तर्क द्वारा इसे वैध ठहरा सकते हैं। लेकिन ऐसा मान लेने पर औपचारिक शिक्षा में दिया गया समय और शिक्षण गैर-उपादेय हो जाता है।
वस्तुतः औपचारिक शिक्षण सामान्य और विशिष्ट अभिक्षमताओं(एप्टिट्यूड) में संतुलन स्थापित नहीं कर पाया है। यहां सामान्य से अभिप्राय गणित, भाषा और अभिव्यक्ति की क्षमताओं से है जबकि विशिष्ट का अभिप्राय विषय आधारित कौशलों का। हम उक्त सामान्य अभिक्षमताओं का पोषण करने के बदले इन्हें कठिन मानकर इनसे बचने के उपाय अन्य विषयों के शिक्षण में खोजते हैं। जबकि प्रतियोगी परीक्षाएं इन सामान्य अभिक्षमताओं को सर्वाधिक महत्व देती हैं। इसी का प्रभाव उन आंकड़ों में देखा जा सकता है जहां विद्यार्थी किसी पाठ्यक्रम में प्रवेश लेते हैं और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं।
इन संस्थानों के शिक्षण पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता है। ये विश्लेषण क्षमता या सर्जनात्मक चिंतन की तैयारी नहीं करवाते बल्कि वे परीक्षा केन्द्रित तैयारी करवाते हैं। इनका लक्ष्य सवाल हल करने की गति और विषयवस्तु को मांजना होता है। ये अभिक्षमता या अभिरूचि के आधार पर मार्गदर्शन आदि में कोई रूचि नहीं लेते। इनके लिए प्रत्येक विद्यार्थी एक ग्राहक है जिसे वे नौकरी का सपना बेचते हैं। ग्राहकों के समुदाय के बीच अपनी विश्वसनीयता को पुख्ता करने के लिए कोचिंग संस्थान हर वर्ष सफल विद्यार्थियों की संख्या का उल्लेख करते हैं। उनके साक्षात्कार छापते हैं।
यदि ये संस्थान उपस्थित और स्वीकार्य हैं तो यह स्पष्ट है कि रोज़गार के लिए औपचारिक शिक्षा के बाद आपको अलग से समय, धन और प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। ऐसी स्थिति में उत्पादक कार्यशक्ति का एक बड़ा हिस्सा अपनी ऊर्जा को उत्पादक बनाने की तैयारी में लगा देता है। इसके लिए वह अपने अभिभावकों पर निर्भर करता है। इससे संभाव्य श्रमशक्ति, आश्रित श्रमशक्ति में तब्दील हो जाती है।
आजकल नौकरी के लिए प्रोफेशनल और पर्सनल स्किल के टेस्ट का नया चलन शुरू हुआ है। इसके लिए भी दुकानें खुल गयी हैं जो कुछेक दिनों के प्रशिक्षण से व्यक्तित्व विकास का दावा करती हैं। इनके व्यक्तित्व विकास में अंग्रेज़ी में बातचीत, खुद की साजसज्जा पर ध्यान रखना और पाश्चात्य शैली में सामान्य शिष्टाचार का प्रशिक्षण शामिल होता है। किसी छोटे कस्बे या गांव से आने वाले विद्यार्थी जब खुद की पर्सनालिटी को ‘शिक्षित’ व्यक्ति की उक्त पर्सनालिटी से भिन्न पाता हैं तो वे सबसे पहले हावभाव और बातचीत को मांजने में लग जाता हैं। इस प्रक्रिया द्वारा खुद को महानगरीय छवि में ढालने की कोशिश करता है। शायद इससे प्रतियोगी में विश्वास पैदा होता होगा कि वह ‘नौकर’ बन सकता है!
मेरे अनुसार इस छवि के प्रति लालसा और प्रशिक्षण भारत के वृहद् मध्यम वर्ग के लिए भावी आबादी की तैयारी है। यही मध्यम वर्ग शिक्षा अर्जित सांस्कृतिक पूंजी का प्रतिनिधि बनता जा रहा है। नौकरी की तैयारी और व्यक्तित्व को मांजने वाले ये सभी संस्थान, औपचारिक शिक्षा के लक्ष्यों के सापेक्ष कुछ द्वन्दों को उपस्थित करते हैं। इन संस्थानों में अधिकांशतः विषय विशेषज्ञ के बदले ऐसे शिक्षक पढ़ाते हैं जो किन्हीं कारणों की वज़ह से प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल नहीं हो सके। इनके लिए इस तरह का शिक्षण ही जीविका का साधन है।
समय के दबाव में यहां गहन अध्ययन के बदले परीक्षात्मक अध्ययन को बढ़ावा दिया जाता है जिसमें शोध की अभिवृत्ति के बदले स्मृति आधारित शिक्षण होता है। उक्त स्थितियों में हमारा ज़ोर नए ज्ञान के निर्माण और विस्तार के बदले संचित ज्ञान द्वारा नौकर बनने की योग्यता को सिद्ध करना हो जाता है। इसके पहले यह पुनरुत्पादन मुखी प्रवृत्ति युवाओं के मस्तिष्क को कुंद करे, हमें प्रतियोगी परीक्षाओं की प्रकृति और उच्च शिक्षा दोनों पर विचार करना होगा।
हमें विचार करना होगा कि औपचारिक शिक्षा में ऐसी अकादमिक संस्कृति कैसे विकसित करें जहां समसामयिक घटनाओं के प्रति जागरूकता, विचार अभिव्यक्ति, अपने विषय को गहनता से जानना, तर्क शक्ति जैसी विशेषताएं हमारी शिक्षण प्रक्रिया का हिस्सा हों? हमें यह भी ध्यान रखना होगा की प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा सामान्य अभिक्षमताओं के साथ विशिष्ट योग्यताओं का भी मापन करने का प्रयास करें जिसमें स्मृति के अलावा अन्य संज्ञानात्मक क्षमताओं का उपयोग हो।