पंद्रह साल की थी जब पहली बार एहसास हुआ कि औरत होना बहुत दर्दनाक है। जब माहवारी के दौरान दर्द पेट से होते हुए धीरे-धीरे कमर और पैर/तलवे तक पहुंचता है, तब ज्ञात होता है कि एक लड़की से औरत बनने तक का सफर आसान नहीं है।
बचपन से ही नास्तिक हूं। इसके कई कारण हैं लेकिन उनमें से एक है माहवारी। वैसे तो अगर आप अपने माँ-बाप, आस-पड़ोस, रिश्तेदार से पूछेंगे कि हमारा जन्म कैसे हुआ तो अमूमन एक ही जवाब मिलेगा- “अरे, पता नहीं है, तुमें तो भगवान ने भेजा है।” हद तो तब हो जाती है जब हिन्दू धर्म में लड़कियों को देवियों का रूप मान लिया जाता है।
कोई लक्ष्मी, कोई सरस्वती, कोई पार्वती- अच्छा वैसे यहां भी भेदभाव है। बेटियां लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती तक तो ठीक है, काली का रूप नहीं होनी चाहिए। चलिए ऐसे समझते हैं, अगर लड़की ने बिना कुछ बोले, अंग्रेज़ी दवाखाने से अखबार में पैड लपेटकर उसे काले पॉलिथीन में ले कर आये तो लक्ष्मी/सरस्वती/ पार्वती का रूप है। और अगर कोई लड़की माहवारी के वक्त घर के पुरुष सदस्य से दर्द, माहवारी के कारण और उससे जुड़े मिथ्यों के बारे में खुल कर बात करे तो काली। इस समाज के लिए काली- रूप हो या रंग, गले से नीचे उतर पाना असंभव है।
माहवारी आने से एक रोज़ पहले मैं गलती से घर के मंदिर में चप्पल पहन कर घुस गयी। मम्मी ने भौहों को सिकोड़ते हुए कहा, “ये आखिरी बार तुम्हें माफ कर रहीं हूं, वैसे बच्चे भगवान का रूप होते हैं, उनके छोटे-छोटे पाप माफ हैं।” एक लड़की जिसके लिए चप्पल पहन कर मंदिर में घुसना क्षम्य था, कुछ घंटों बाद खाली पैर भी घुसना पाप हो गया। भगवान को छूना, आरती लेना, प्रसाद खाना- ये सब जो कल तक सामान्य था, अचानक से पाप हो गया। अब ऐसे में इंसान नास्तिक न हो तो क्या हो? विकल्प ही नहीं है।
औरत बनने का संघर्ष माहवारी के पहले दिन से ही शुरू हो जाता है। पौधे ना छूने से अचार की शीशी ना छूने तक, भाई से दूर रहने से बाहर ना निकलने तक- इन सारे निरर्थक बातों से संघर्ष शुरू करना थोड़ा कष्टदायी है। खैर, ये सिलसिला यहां खत्म नहीं होता,अभी और ज़लील होना बाकी है। जब पांचवी में थी तो मेरी एक दोस्त ने पूछा- “क्या तुम्हें लड़कियों वाली प्रॉब्लम है?” मैंने बहुत देर तक सोचा कि आखिर ये कौन सी प्रॉब्लम है जो सिर्फ लड़कियों तक सिमित है। मैंने कहा- “नहीं यार, ऐसी तो कोई प्रॉब्लम नहीं है। लड़कों की तरह हमें भी पैन्ट्स पहनने देते तो स्पोर्ट्स क्लास में आसानी होती।”
उस वक्त ‘प्रॉब्लम’, लड़की हो या लड़के, सबके के लिए एक जैसी होती थी ट्रीगोनोमेट्री का ना समझ आना, फिजिक्स की क्लास में नींद आना, संस्कृत का ऊपर से चले जाना- उस वक्त प्रॉब्लम्स लिंग विशेष नहीं थे।
मैं 9th में थी जब मेरा सामना ‘लड़कियों वाली प्रॉब्लम’ से हुआ। फिर पता चला कि पीरियड्स को भी धर्म से जोड़ दिया गया है और हिंदी में इसे मासिक धर्म बोला जाता है। वो धर्म जो सिर्फ लड़कियों पर लागू होता है। वो धर्म जिसमें स्त्री अपवित्र और भगवान अछूत होता है। वो धर्म ही कैसा जो इंसान को अपवित्र बना दे और धर्म को सर्वोपरी।
जब मुझे दूसरी बार पीरियड्स आया, मैं स्कूल में थी। पहली बार मेरे स्कर्ट पर दाग लगा तो थोड़ा डर गयी। उस वक़्त पैड सिर्फ हमारी अंग्रेजी की शिक्षिका के पास हुआ करता था, स्कूल के फर्स्ट-ऐड बॉक्स में नहीं। डर था कि लोग मज़ाक उड़ायेंगे लेकिन मैंने ये तय किया कि मैं दाग नहीं छुपाऊंगी। मैंने उस दिन सबकी आँखों में अपने लिए ‘बेचारी लड़की’ पढ़ा। अगली घंटी स्पोर्ट की थी, मैं बाहर जा रही थी खेलने। अचानक से एक लड़की ने कहा- “हालत देखी है अपनी? खेलना है इसको।” मैं चुपचाप निकल गई।
कबड्डी टीम का चयन हो रहा था, मैं अपने स्पोर्ट्स टीचर के पास गयी और बोला, मुझे भी खेलना है। उन्होंने सवाल नहीं किया, और जब लोग सवाल ना करें तो समझ जाइए कि आपमें उनका भरोसा अडिग है। मैंने ज़िन्दगी में उससे बेहतर प्रदर्शन नहीं किया, पापा की बात याद थी- “अगर साबित ही करना है तो खुद को खुद के लिए करो, किसी और के लिए नहीं।” और उस दिन दाग का डर भी चला गया।
ऐसा नहीं है कि लड़कों को पीरियड्स के बारे में स्कूल में नहीं पढ़ाया जाता। दसवीं तक अमूमन लड़कों को पीरियड्स की जानकारी जीव विज्ञान के ज़रिये हो जाती है। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज खुलकर इसपर बातचीत करने की अनुमति नहीं देता। लड़के पीरियड्स को महत्त्वपूर्ण नहीं समझते। पीरियड्स पर चुटकुले बनाये जाते हैं, अलग-अलग गुप्त नामों से संबोधित किया जाता है और ऐसे फिर धीरे-धीरे समाज की संवेदना मर जाती है। आज भी भारत में महिलाओं की बहुत बड़ी आबादी माहवारी के वक्त अरोगाणुरहित (अनस्टेर्लाइज़्ड) गंदे कपड़ों, राख, बालू इत्यादि का इस्तेमाल करती हैं।
अगर आपके गांव में कोई लड़की अरोगाणुरहित वस्तुओं का प्रयोग कर बीमार हो रही है तो क्या ये सिर्फ ‘लड़कियों वाली प्रॉब्लम’ है? अगर आपकी किसी दोस्त को अचानक से माहवारी आ जाये और स्कूल/कॉलेज के फर्स्ट-ऐड बॉक्स में पैड न हो तो क्या ये सिर्फ “लड़कियों वाली प्रॉब्लम’ है? अगर आपकी पत्नी को माहवारी के दौरान अपवित्र माना जाये तो क्या ये सिर्फ “लड़कियों वाली प्रॉब्लम” है? अगर आपकी बेटी को उनके दोस्तों, स्कूल, खेल कूद से एक हफ्ते दूर रखा जाए तो क्या ये सिर्फ “लड़कियों वाली प्रॉब्लम” है? सोचिये और माहवारी के ऊपर खुल कर बात कीजिये।