अक्सर ऐसा माना जाता है कि अन्तःक्रिया या संवाद के दौरान सवाल, जानने या खोजने की इच्छा से पैदा होते हैं। जो सवाल पूछता है वह अपनी स्वाभाविक जिज्ञासा प्रकट करता है। जिनके पास जानने वाले की जिज्ञासा को संबोधित करने का उत्तर होता है, वह अपने उत्तर से उसे संतुष्ट करना चाहते हैं। इसी अर्थ और प्रक्रिया द्वारा सवाल, सीखने का माध्यम बनते हैं। यदि संवाद की यही स्थिति कक्षा में हो तो सवालों का प्रयोग मूल्यांकन या जांचने के लिए भी किया जाता है।
जांचने के औज़ार के रूप में सवाल अपने कथ्य और रूप के बदले, पूछने वाले और बताने वाले के सापेक्षिक संबंधों के आधार पर अपनी भूमिका सुनिश्चित करते हैं। हमारे परिवेश में सवालों को जिज्ञासा की संतुष्टि की अपेक्षा जांचक की भूमिका में अधिक स्वीकृति और प्रतिष्ठा मिली है। इसी कारण किसी कक्षा या विचार गोष्ठी में जैसे ही प्रश्न-उत्तर का दौर आरंभ होता है पूछने वाले और जांचने वाले विषय और जिज्ञासा के साथ यह भी संज्ञान में लेते हैं कि कौन, किससे, क्या, और कहां पूछ रहा है।
तात्पर्य यह है कि सवालों की शक्ति सवालों में न रहकर उनके पूछने और बताने वाले में स्थापित हो जाती है। इस स्थिति में इनके द्वारा जो परिवेश तैयार होता है वह पूछने वाले और बताने वाले के बारे में प्रत्यक्षतः और अप्रत्यक्षतः बहुत कुछ बताता है।
ऐसे ही एक परिवेश में सवाल की भूमिका पर विचार करते हैं।
हाल में मुझे एक कार्यशाला में सहभागिता का अवसर मिला। इस कार्यशाला के अधिकांश प्रतिभागी अपनी अकादमिक और व्यावसायिक पृष्ठभूमि में समान थे। इस कार्यशाला के विषय विशेषज्ञों की शैक्षिक पृष्ठभूमि और योग्यता प्रतिभागियों के समान थी लेकिन अनुभव और पद की दृष्टि से वे वरिष्ठ थे। प्रत्येक व्याख्यान के बाद प्रश्न-उत्तर का सत्र होता था। कुछ सत्रों में खूब सवाल पूछे गए और कुछ सत्रों में न के बराबर सवाल हुए। यदि सवालों के कथ्य और संख्या के आधार पर निष्कर्ष निकाल लें तो कह सकते हैं कि जिन सत्रों में सवाल-जवाब अधिक हुए वे अन्तःक्रियात्मक थे। उनमें वैचारिक उद्दीपन था। प्रस्तोता-श्रोता के बीच का संवाद ज्ञान के निर्माण में योग कर रहा था। जिन सत्रों में सवालों की संख्या कम थी। वे इन उद्देश्यों में सफल नहीं हुए।
जब पूछने वाले-बताने वाले के सापेक्षिक शक्ति संबंधों के आधार पर इन सत्रों पर मनन करता हूं तो तीन भिन्न स्थितियां प्रकट हुईं। पहली स्थिति में प्रस्तोता या वक्ता पदवान था लेकिन विषयवस्तु या ज्ञान की दृष्टि से वह कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाया। श्रोताओं के बीच में उसके लिए अनके सवाल थे लेकिन ये सारे सवाल केवल सुगबुगाहट बनकर रह गए। क्यों? क्योंकि वक्ता का पद स्वाभाविक संवाद की बाधा बन रहा था। कमज़ोर प्रस्तुति पर उठने वाला हर सवाल विषय वस्तु की कमज़ोरी के बदले व्यक्ति की कमज़ोरी को भी इंगित कर रहा था। उस व्यक्ति का पद-मद उसे अपनी इस सीमा को देखने से रोक रहा था। श्रोता भी इस सीमा को ना उजागर कर ‘आ बैल मुझे मार‘ की स्थिति से बचना चाह रहे थे।
कुल मिलाकर चापलूसी मिश्रित सराहना से ऐसे सत्र समाप्त होते थे। यहां विचार, विचार प्रक्रिया को उद्वेलित करने के बदले शब्दों का ऐसा समुच्चय बनकर रह गए जिन्होंने मौन निर्मित किया। ऐसा मौन जिसमें संतुष्टि के बदले असंतुष्टि थी। इस असंतुष्टि के लिए वक्ता और श्रोता दोनों ज़िम्मेदार थे। जहां वक्ता का अहंकार उसे सच्चाई देखने से रोक रहा था वहीं वक्ता भी अनपेक्षित स्थिति से बचने के लिए असंतुष्ट रहने को सहमत थे।
दूसरी स्थिति में वक्ता ज्ञानवान था लेकिन पदवान नहीं था। वह ज्ञान की प्रस्तुति से श्रोताओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस आकर्षण में वक्ता के लिए स्वीकृति और प्रतिरोध दोनों का अंश था। उससे खूब सारे सवाल पूछे गए। वस्तुतः ये सवाल उसके ज्ञान की परिधि का मूल्यांकन कर रहे थे। यहां उसके पास पद के भार का गुरूत्वाकर्षण नहीं था। इसलिए वह आलोचना के लिए स्वतंत्र था। उसकी आलोचना उसके व्यक्तित्व को निखार रही थी। यहां लाभ या नुकसान का गणित नहीं था बल्कि संवाद का विस्तृत क्षेत्र था जिसमें तार्किक और बौद्धिक उठापटक थी। जो श्रोता पहली स्थिति में चुप्पी धारण करके संतुष्ट थे वही अब हमलावर थे।
स्पष्ट है कि इस स्थिति में सवालों की अधिकता ज्ञान और जिज्ञासा की अपेक्षाकृत वक्ता की कमज़ोर स्थिति की उपज थी जहां वह केवल ज्ञान के सहारे श्रोताओं का सामना कर रहा था। वह पद की शक्ति से चुप्पी पैदा करने में सक्षम नहीं था। यह स्थिति वक्ता से अधिक श्रोताओं के लिए विचारणीय है। कैसे हम अपनी स्वाभाविक जिज्ञासा के साथ साहस का तालमेल कर ज्ञान द्वारा पद को चुनौती दें? यदि आप इस स्थिति तक पहुंचने में समर्थ तो आप सही अर्थों अपनी भूमिका द्वारा रूपान्तरण का कार्य कर सकते हैं।
उपरोक्त दोनों स्थितियों के विपरीत कुछ ऐसे वक्ता भी थे जो ज्ञान और पद दोनों धारण करते हैं लेकिन उन्होंने इन दोनों सत्तासूचक उपलब्धियों का उपयोग स्वयं को विशिष्ट बनाने के लिए नहीं किया। उनके ज्ञान की अभिव्यक्ति शब्द जाल में नहीं उलझी थी। उनमें अपने अध्ययन विस्तार को बताने का उतावलापन नहीं था। वे अनुभव और लोक की भूमि से प्रमाण लेकर तर्क और विश्लेषण को समृद्ध कर रहे थे। वे अपने श्रोताओं को चर्चा में भागीदार बनाने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे वक्ता श्रोताओं को संप्रेषित कर रहे थे कि वे भी चर्चा में किसी ज्ञानवान या विद्वान के समान योगदान कर सकते हैं। इस तरह के संप्रेषण से प्रतिभागी स्वयं को प्रस्तोता के निकट पा रहे थे। वे अपनी जिज्ञासाओं को प्रस्तोता से साझा कर रहे थे। यहां एक ओर ज्ञान अहंकार से मुक्त था तो दूसरी ओर पद भी विनय से सुशोभित था।
इन तीनों स्थितियों से स्पष्ट है कि जब किसी संवाद में सवाल का जन्म शक्ति संबंधों के आधार पर होता है तो संवाद में स्वाभाविकता का स्तर कम होता जाता है। अपेक्षित उत्तर के द्वारा सराहना और पुरस्कार प्राप्त करना, जानने वाले की निगाह में अपनी खास स्थिति बनाना जैसे लक्ष्य हावी हो जाते हैं। इन्हीं लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कई बार सवाल न पूछने की युक्ति अपनायी जाती है। इसके द्वारा यह संदेश संप्रेषित करने की कोशिश की जाती है कि प्रस्तोता के विचार अप्रश्नेय थे। जबकि मनुष्य की विचार शक्ति और संवाद की क्षमता अप्रश्नेय की स्थिति को खारिज करती है। हां यह ज़रूर है कि प्रस्तोता को अपने अप्रश्नेय होने का अहंकार पैदा हो सकता है। सचेत प्रस्तोता को प्रश्न न पैदा होने की स्थिति को अपनी सफलता के बदले असफलता मानना चाहिए। हमें ध्यान रखना चाहिए कि सवाल, संवाद के द्वारा व्यक्तित्व के बारे में बताता है तो व्यक्तित्व भी सवालों को उद्दीप्त करता है। अतः खुद की छवि में दृढ़ता के बदले सुनम्यता को स्थान देना चाहिए और पद व अहंकार के बदले ज्ञान और विनय का वरण करना चाहिए।