मुझे याद है, 1987-88 भारतीय जमीन पर क्रिकेट का वर्ल्ड कप खेला जा रहा था, शायद उस दिन भारत के विरोध में न्यूजीलैंड की टीम थी और दूसरे ओर से गेंद, चेतन शर्मा के हाथ में थी, शायद यह क्रिकेट में बहुत कम होता है कि किसी गेंदबाज़ ने लगातार अगली तीन गेंदों पर, अलग बल्लेबाज़ को क्लीन बोल्ड किया था। इसके पश्चात, शर्मा भागता हुआ, अपने साथी खिलाड़ी के साथ खुशी मना रहा था।
इसके पश्चात शारजाह में पाकिस्तान के साथ खेलते हुए, शर्मा की आखरी गेंद जो उस मैच के लिये निर्णायक साबित हो गई, और पाकिस्तान के बल्लेबाज़ जावेद मियादाद छक्का मारकर अपनी टीम को जीत दिला कर हीरो बन गये। वही शर्मा भारत की हार के लिये एक खलनायक की तरह देखे जाने लगे। ये हार शर्मा के लिये इतनी घातक साबित हुई कि वह फिर कभी, एक शानदार फॉर्म के साथ क्रिकेट नहीं खेल सके।
इसी संदर्भ में दिसंबर 1982 के एशियन गेम्स हॉकी का फाइनल मैच देखें जहां भारत और पाकिस्तान दोनों ही आमने सामने थे। दिल्ली में खेले जा रहे इस मैच में हज़ारों लोगों की उपस्थिति के साथ-साथ भारतीय राजनीति के कई जाने माने नाम भी मैच का लुत्फ उठाने आए थे। लेकिन मैच का परिणाम बहुत ही एकतरफा रहा। 7-1 से भारत की हार बहुत निराशाजनक थी वही पाकिस्तान के लिये ये किसी युद्ध के जितने की तरह एक खुशी का अवसर था। इस हार का सारा ठीकरा उस समय के भारतीय गोलकीपर मीर रंजन नेगी पर आ गिरा, जिन्हें इस हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराया गया। चेतन शर्मा की तरह ही नेगी का हॉकी खेल भी एक तरह से इस हार के बाद खत्म सा हो गया।
चेतन शर्मा की तरह ही, नेगी दोनों अलग-अलग खेल में मिली हार से जहां व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने खेल में धराशाई हो गये थे। लेकिन यहां कारण क्या था, खेल में मिली हार या पाकिस्तान से मिली हार? जिसे हमारा देश, हमारे नागरिक, हमारा समाज, हमारी राजनीति, हमारा मीडिया अस्वीकार करता है। लेकिन अब यहां दो सवाल और किये जा सकते हैं, अगर ये हार पाकिस्तान की जगह किसी और देश से हुई होती तो क्या तब भी चेतन शर्मा और नेगी को इस तरह हार के लिये इतने ज़ोर-शोर से ज़िम्मेदार माना जाता?
अब एक आखरी और अहम सवाल कि अगर चेतन शर्मा और नेगी की जगह किसी भारतीय मुसलमान खिलाड़ी के खराब प्रदर्शन से ये हार होती, तब हालात क्या होते? शायद बहुत ही ज़्यादा भयानक जहां हम देशभक्त, राष्ट्रवाद जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने में बिल्कुल भी ना हिचकिचाते।
मोहम्मद अजहरुद्दीन,की कप्तानी में पाकिस्तान से हार के बाद अक्सर मैंने चर्चा सुनी थी कि अजहरुद्दीन का झुकाव पाकिस्तान की तरफ ज़्यादा है। लेकिन यही सचिन तेंदुलकर, सौरभ गांगुली, राहुल द्रविड़, मेहन्द्र सिंह धोनी, विराट कोहली की कप्तानी में, महज़ एक हार होती है।
लेकिन क्यों ? ज़मीनी हकीकत है जिसे हम सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते कि हम हमारे मुसलमान समाज को अक्सर पाकिस्तान की तरफ एक झुकाव की तरह देखते हैं। लेकिन क्यों, क्या इसका कारण ये है कि पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है? यह सुनने में तो अजीब लगेगा लेकिन ये सच है, भारतीय समाज, खासकर भारतीय बहुसंख्यक समाज, भारतीय मुसलमान समाज को पाकिस्तान के सिलसिले में अक्सर शक की नज़र से ही देखता आया है, फिर वह चाहे साल 1982 हो या 2018।
मेरा यहां, चेतन शर्मा, नेगी और पाकिस्तान के साथ-साथ हमारे समाज की मानसिकता को दिखाने का एक कारण है खासकर हम जब आज खुले में नमाज़ पढ़ना, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर मुद्दों को देखते हैं। मोदी सरकार के बाद जिस तरह मुसलमान समाज पर शब्दों और भीड़ के माध्यम से प्रहार हो रहे हैं इसके बावजूद भाजपा हर राज्य चुनाव में निखर रही है। सही मायनों में अगर इसे समझें तो, हमारा समाज खासकर बहुसंख्यक समाज, आज मुसलमान समाज पर हो रहे हमलों को स्वीकार कर रहा है और चुनाव में अपना मत देकर कहीं ना कहीं इस पर एक मोहर भी लगा रहा है।
लेकिन भारतीय मुसलमान समाज की छवि को जिस तरह लगातार गिराने की कोशिश है यह अचानक नहीं हुई। बस एक तरह से पूर्ण ताकत के रूप में उभर कर आई है। बस अब चिन्हों के माध्यम से भी इस पर प्रहार हो रहा है मसलन अक्सर फिल्मों में एक खलनायक मुसलमान किरदार को ही दिखाया जाता है। और इस तरह की फिल्म का हीट हो जाना इस बात का संकेत है कि मुसलमान किरदार को खलनायक रूप में दिखाना कहीं ना कहीं हमारे समाज को भी स्वीकार्य है।
इसी सिलसिले में, लेख के आखिर में एक उदहारण ज़रूर देना चाहूंगा। फिल्म बेबी, नीरज पांडे के निर्दर्शन में बनी इस फिल्म में एक डायलॉग है जहां मुसलमान किरदार जो की फिल्म में खलनायक के रूप में दिखाया गया है ये कहता है कि वह हर फॉर्म में धर्म के स्थान पर मुसलमान लिखता है वहीं दूसरी ओर जो किरदार मौजूद है, वह आर्मी से है, बहुसंख्यक समाज का हिस्सा है कहने में नहीं हिचकिचाता कि वह धर्म के स्थान पर भारतीय लिखता है।
हम यहां सोच सकते हैं कि किस तरह राष्ट्रवाद को धर्म और निजी आस्था से आज बड़ा बनाया जा रहा है लेकिन ये उपदेश फिल्म के माध्यम से सार्वजनिक रूप में अल्पसंख्यक समाज को ही क्यों दिया जा रहा है? वही बहुसंख्यक समाज राष्ट्रवाद पर पहरा देते हुये ये किस तरह समझ रहा है कि इस देश पर उसका और सिर्फ उसका ही मालिकाना हक है?