19वीं सदी के शुरुआती दशकों की यह बात है, जब जर्मनी में रहने वाले एक यहूदी दम्पत्ति ने अपनी संतान के जन्म से कुछ वर्ष पहले ही ईसाई धर्म अपना लिया था। कहते हैं कि उनकी संतान ने अपनी छह वर्ष की उम्र में ही ईश्वर के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया था। बाद के दिनों में यहूदी माता-पिता की इस संतान कार्ल मार्क्स ने, धर्म के अफीम के रूप में इस्तेमाल किए जाने की आशंकाओं पर गंभीरता से विचार करते हुए लिखा।
मार्क्स के दुनिया को अलविदा कहने के दशकों बाद दुर्भाग्य से उनकी जन्मभूमि जर्मनी में, हिटलर के दौर में धर्म के नाम पर नाज़ियों ने यहूदियों का भीषण नरसंहार किया, और वह इतिहास के सबसे बड़े और जघन्यतम नरसंहारों में से एक माना जाता है।
धर्म को अफीम होते हुए हमारे देश के लोगों ने भी लगातार देखा है। मुल्क की आज़ादी के साथ ही जब धर्म के नाम पर इस मुल्क के टुकड़े किए जाने लगे, तब अधिकांश प्रभावित लोगों ने देखा कि जो पहले अच्छे पड़ोसी और मित्र हुआ करते थे, धर्म के नाम पर एक-दूसरे के प्रति घोर अमानवीयता दिखाने में उन्हें ज़रा भी वक्त नहीं लगा और थोड़ी भी हिचक नहीं हुई!
धर्म का यही अफीमी रूप हमारे देश के लोगों ने तब भी देखा जब पंजाब में धर्म के नाम पर अलग मुल्क तैयार करने के लिए गोलियां और बारूद इक्कट्ठे किए जाने लगे और भारी हिंसा का सहारा लिया जाने लगा। 84 में लोगों ने देखा कि किस तरह देश की राजधानी में एक धर्म विशेष के लोगों का कत्लेआम हुआ और इतिहास के सीने पर एक कभी नहीं भरने वाला ज़ख्म उभर आया।
अफीम खाए लोगों को आप उन तस्वीरों में भी देख सकते हैं, जो बाबरी मस्जिद ढहाने के दौरान ली गई थी। इसके अलावा समय-समय पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों से जूझने की इस देश को आदत सी हो गई है।
धर्म की अफीम अब भी दुनिया भर की हवा में तैर रही है और हमारे देश में तो इसका असर बिल्कुल भी कम नहीं हुआ है। यदि यह सच नहीं है तो यह सोचिए कि गुजरात के भीषण साम्प्रदायिक नरसंहार के समय नकारात्मक भूमिका निभाने वाले राज्य के मुखिया आज कैसे केन्द्र की सत्ता संभाल रहे हैं? कि आखिर कैसे नकारात्मक भूमिकाओं में उनके सबसे बड़े सहयोगी वर्तमान लोकसभा की सबसे बड़ी पार्टी की कमान संभाल रहे हैं?
इसे भी धर्म की अफीम का असर ही तो कहेंगे कि ठीक अभी जिस समय उच्च शिक्षा की पूरी व्यवस्था तबाह की जा रही है, तब लोग अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में लगी दशकों पुरानी मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर पर भारी विवाद खड़ा करने की जुगत में हैं। मकसद यही है कि इस उन्माद में बुनियादी समस्याएं कहीं दब जाएं।
मार्क्स ने बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से इतिहास और अपने समकाल पर विचार किया था, इसलिए उनके विश्लेषण सटीक भविष्यवाणी की तरह साबित हुए। बहुत ही श्रमपूर्वक, बहुत ही ईमानदारी और मनुष्य की बेहतरी की नीयत से किए गए मार्क्स के चिंतन और लेखन का ही यह असर है कि आज वे अपने जन्म के 200 साल बाद भी इस दुनिया की बेहतरी के लिए सोचने वाली युवतम से युवतम पीढ़ी के सबसे बड़े वैचारिक मित्र और मार्गदर्शक बने हुए हैं और इसमें कोई शक नहीं कि यह सिलसिला कभी थमने वाला नहीं है।