शाम का वक्त था, अभी आसमान गुलाबी हुआ ही था। मैंने अपना बैट और विकेट दालान के कोने में समेटकर रखा और हाथ-मुंह धोकर होमवर्क करने बैठ गई। गणित में खास रूचि नहीं थी, लेकिन होमवर्क करना अनिवार्य था। लिखना शुरू किया तो पता चला कि कॉपी में बस आखिरी पन्ना खाली था। माँ रसोई घर में रात का खाना बना रही थी। उसने डांट लगाते हुए कहा- “क्रिकेट खेलना याद रहता है, कॉपी लेना याद नहीं रहता।” पता नहीं, भारत में सारा दोष बच्चों के खेल पर क्यों आ जाता है? खैर, यह एक अलग शोध का विषय है। माँ ने फिर रसोई से चिल्लाते हुआ बोला- “सनी (छोटा भाई) से बोलो लेता आएगा, शाम हो गयी है।”
मैंने साइकल को स्टैंड पर लगाया और भाई के पास गयी। उसने कहा कि वो काफी थक गया है और वो नहीं जाएगा। होमवर्क करने के लिए कॉपी का होना ज़रूरी था। मैंने फिर एक बार सनी को मनाने की कोशिश की, लेकिन वो टस से मस ना हुआ। सनी को बद्तमीज़ी करते हुए दादाजी ने सुना। दादाजी को देख राहत मिली कि अब सनी को डांट मिलने वाली है। अच्छा, अगर आपकी वजह से आपके छोटे भाई/बहन को डांट लगती है तो उसकी खुशी ही अलग होती है। लेकिन मेरी खुशी के गुब्बारे दादाजी के दो शब्दों ने फोड़ दिया- “हनी (मेरे प्यारा वाला नाम) बाहर आइये !” मैं घर की हूं सबसे लाडली, इतना पता था कि डांट तो नहीं पड़ेगी। उन्होंने कड़ी आवाज़ में पूछा- “क्या काम है सनी से ?”
“कॉपी मंगवानी है” मैंने कहा।
“तो खुद क्यों नहीं ले आतीं आप ?” दादाजी ने पूछा।
“शाम हो गयी है” मैंने बहुत कॉन्फिडेंटली बोला।
“तो ?”
इसका तो का जवाब मेरे पास तब भी नहीं था, आज भी नहीं है। फिर उन्होंने कहा- “सनी आपसे 2 साल छोटा है, ऐसा क्या है, जो वो कर सकता है और आप नहीं? उसके चान्सेस ज़्यादा हैं गुम होने के। एक बात हमारी ध्यान से सुनिए और समझिये भी। अपने काम के लिए किसी के ऊपर निर्भर या किसी के अधीन होने की ज़रूरत नहीं है।
लैंगिक असमानता से ऊपर उठो, समाज का सामना करना सीखो, तुम नहीं करोगी, तो कोई और लड़की करेगी। क्या तुम उस वक्त के आने का या किसी के हिम्मत जुटाने का इंतज़ार करती रहोगी? किसी के पीछे चलना आसान है, लेकिन सबसे आगे चलकर सही रास्ता दिखाना मुश्किल। अगर ये समाज तुम्हें रोकता है तो सवाल करो। अगर बेतुके जवाब देता है ये समाज, तो विरोध करो। और अगर तुम्हें लगता है कि ये समाज लड़कियों को लेकर असामाजिक है तो विद्रोह करो। एक लड़की को ऐसा ही होना चाहिए- सशक्त, अडिग और खरा।”
जब कॉपी लेने दुकान पहुंची तो लगा कि दुनिया की कोई भी घड़ी किसी भी लड़की के घर से निकलने का समय नहीं तय कर सकती। अगर एक लड़की के जीवन में कोई कुछ भी तय कर सकता है तो वो खुद है। समाज ने लड़कियों के लिए एक नियमावली बनायी है। इस नियमावली में लड़कियों के बाल की लम्बाई से दुपट्टे की चौड़ाई, सिन्दूर की लम्बाई से हील की लम्बाई तक, कमीज के गले की गहराई से आस्तीन की लम्बाई तक, काजल के गाढ़े रंग से लिपस्टिक की रंगाई तक, हंसी की आवाज़ से लेकर बैठते वक्त पैरों के बीच की रिक्ति तक, लड़की की लम्बाई से चौड़ाई तक सब उल्लिखित है।
हम लड़कियां ‘अच्छी लड़की’ के वर्ग में आने के चक्कर में अपनी स्वतंत्रता को ताक पर रख देती हैं। एक मुखौटा पहन लेती हैं, अगर हम अपने आप से ईमानदार नहीं है, इस समाज से क्या अपेक्षा करते हैं?
‘तुम लड़के की तरह रहती हो’- अब ये एक नया ट्रेंड है. ‘अच्छी लड़की’ नहीं हूं, ये बोलकर शर्मिंदा ना कर सके तो लड़का बोल दिया। बाइक चलाना, जिम में भारी डम्बल उठाना, ज़ोर से बात करना, पैर फेककर बैठना इत्यादि। अब जब तक बाइक, जिम, ज़ोर से बात करने पर ‘केवल पुरुषों के लिए’ वाला टैग नहीं आता तब तक इस सहज समाज को मुझे ऐसे ही झेलना होगा।
मैं, बेशक, समाज के इस ‘अच्छी लड़की’ वाले वर्गीकरण में नहीं आती हूं। मैं देर रात काम कर के घर वापस आती हूं, मेरा पति सुबह मुझे झंझोर कर उठाता है, दिल खोलकर हंसती हूं, 7 टैटूज़ हैं, अकेले निकल जाती हूं घूमने, पत्नी धर्म का पालन तो कतई नहीं करती, लाल लिपस्टिक लगाती हूं और मेरे मित्र ‘पुरुष’ ज़्यादा हैं- लेकिन मैं ईमानदार हूं, खुद से और खुश हूं जिन्दगी से।
किसी ने मुझसे पूछा – “एक औरत होने की सबसे अच्छी बात क्या है?” मैंने कहा- “एक औरत होना।”
शायद ये दादाजी वाली कहानी कहीं किसी को हिम्मत दे या शायद ना भी दे लेकिन मैं लिखती हूं ताकि मुझ जैसी अगर एक भी लड़की इसे पढ़ रही हो तो वो बेखौफ और बेबाक होकर जीना सीख जाए। मैं लिखती हूं ताकि दादाजी की बातें शायद यूंही किसी और भी लड़की पर असर करे और वो कॉपी लाने के लिए अपने भाई या सैनेटरी पैड लाने के लिए अपने पति से आस ना लगाए।
Youth Ki Awaaz को 10 साल हो गए हैं, बधाई। जश्न भी हो रहा होगा, 10 साल का सफर तय किया है। हम जैसे सीज़नल राइटर्स के लिए यह जश्न है लिखने का, अपने विचारों को व्यक्त करने का। ये जश्न है लिखने द्वारा सशक्त होने का, ये जश्न है खुद की बातों को निर्भीक हो टाइप करने का। ये जश्न है अपनी शब्दों से बदलाव लाने का, ये जश्न है सच का। बधाई YKA, मुझ जैसी कई और युवाओं की आवाज़ बनने के लिए। कामना है कि बेबाक लिखने का सिलसिला यूं ही चलता रहे।