कमोबेश हर साल बेहतर शिक्षा संस्थान के शीर्ष पांच संस्थानों में ही रहने वाले JNU में पढ़ने के दौरान वंचित समुदाय कि महिला सहपाठी को कभी-कभी उसके उपनाम(सरनेम) से मज़ाक में ही पुकारने से वह काफी असहज़ हो जाया करती। एक दिन उसने मुझे समझाया हम वंचित समुदाय की लड़किया अपने उपनाम(सरनेम) से पुकारने जाने पर सामाजिक संरचना में मौजूद पूर्वाग्रहों के कारण गर्व का अनुभव नहीं करती, इसलिए प्लीज तुम मेरे जातिगत उपनाम से पब्लिकली मत पुकारा करो। मैंने महसूस किया है कि जातिगत पहचान होने के बाद लोगों का व्यवहार मेरे प्रति बदल जाता है। मुझे भीड़ का हिस्सा बनकर ही अपनी ऊंचाईयों को छुने दो, भीड़ से अलग अपनी पहचान बनाने की साहस मुझमें नहीं है।
उस दिन एक बात भी समझ में आई कि महाशक्ति या विश्वगुरू का स्वप्न देखने वाला देश भारत आज भी इस त्रिशंकु में हमेशा झूलता रहता है कि उसके साथ खड़े इंसान का उपनाम(सरनेम) क्या है? जाति, धर्म और वर्ग से जुड़ी व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा पर भारी दिखाई देता है। वंचित समुदाय के हर एक युवा लड़के-लड़कियों को ज़िंदगी हर समय अपनी पहचान खुल जाने और उसके बाद के डर के बीच गुज़रती है, अगर यह नहीं होता, तो मेरी महिला साथी कभी असहज़ नहीं होती।
भारत में हर समाज, समुदाय और हर वर्ग की महिलाओं के अपने मुद्दे है, जो उस समाज, समुदाय और वर्ग के पुरुषों से अलग है, जिससे वो अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में लड़ रही हैं और बेहतर जीवन की चाह में उनसे संघर्ष भी कर रही हैं। आधी आबादी की बेहतर जीवन की चाह पूरी होकर ही देश के समावेशी विकास प्रदान कर सकती है जिससे आधी आबादी को जीवन जीने का नया अर्थ मिलेगा। इसके लिए समाज और सरकारों को महिलाओं के मुद्दों को समझना होगा, जिससे संघर्ष करने में आधी आबादी को उर्जा आहूत हो रही है।
महिलाओं के जीवन के समावेशी विकास में शिक्षा का विशेष महत्व है पर आधी आबादी की दुनिया में हर जातीय, धार्मिक और वर्गीय समाज में उसके अपने परंपरागत नियम-कायदे और आर्थिक गतिशीलता का अभाव उनको अक्षर-ज्ञान या सामान्य शिक्षा से आगे बढ़ने ही नहीं देता। जिसके कारण महिलाएं कभी बाल-विवाह तो कभी दहेज जैसी सामाजिक कुरतियों से आगे बढ़ ही नहीं पाती है।
आधी आबादी के लिए सामंतवाद, जातिवाद के बीच आर्थिक मदद की खबर एक सुकून ज़रूर देता है। इस योजना के तहत इंटर पास अविवाहित छात्राओं और स्नातक करने के बाद और पितृसत्ता के बाधाओं भरे महौल में बिहार सरकार द्दारा मुख्यमंत्री बालिका उत्थान योजना के तहत लड़कियों को स्नातक तक सरकारी आर्थिक अनुदान मिलेगा। मुख्यमंत्री बालिका उत्थान योजना के पहले भी बिहार सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के प्रसार के लिए कई सकारात्मक योजनाएं चलाई हैं।
मुख्यमंत्री साइकिल योजना, महिला साक्षरता योजना, मुख्यमंत्री बालिका पोशाक योजना और मुख्यमंत्री बालिका प्रोत्साहन योजना। फिर भी देखा यह जा रहा है कि बाल विवाह- दहेज प्रथा अभी भी सामाजिक समस्या है। बिहार में शिशु मृत्युदर 38 है जिसमें बालक की दर 31 और बालिकाओं का मृत्युदर 46 है। पोषाहार, टीकाहार, देखभाल में कमी एवं कम उम्र में विवाह के कारण कन्या मृत्यु दर, वजन में गिरावट, कुषोपण की समस्या होती है। इन समस्याओं को देखते हुए पूर्व की योजनाओं में राशि में वृद्धि और मुख्यमंत्री बालिका उत्थान योजना को मंज़ूरी दी गई है।
बिहार की आधी आबादी शिक्षा के मामले में मर्दों से काफी पीछे है, 2011 की जनगणना में बिहार की कुल साक्षरता 61.8 फीसदी आंकी गई, पर यह भी देखा गया कि सिर्फ 51.50 फीसदी आधी-आबादी में ही पढ़ने-लिखने की क्षमता है। जो यह सिद्ध करता है कि बिहार की आधी-आबादी अक्षर-ज्ञान या समान्य शिक्षा से भी आगे बढ़ना चाहती है। लड़कियों के शिक्षा के लिए बिहार सरकार की पूर्व की योजना और मुख्यमंत्री बालिका उत्थान योजना से लड़कियों के ड्रॉप-आउट की समस्या कम ज़रूर होगी।
परंतु, आधी आबादी को शिक्षित करने के लिए आर्थिक गतिशीलता बिहार के समाज में महिलाओं को लेकर मौजूद पितृसत्तामक सोच का दमन कहां तक कर सकेगी, यह एक यक्ष प्रश्न है? क्योंकि अब तक बिहार जैसे प्रदेश में तमाम बदलावों ने हर विभेदों को समाप्त करने में असफलता ही हासिल की है।
बिहार का समाज अपनी सोच में लड़कियों के मामलों में काफी पितृसत्तामक व रूढिवादी होने के साथ-साथ जातिवादी भी रहा है। यदि समाज महिलाओं के लिए सामंतवाद, जातिवाद और पितृसत्ता के इन पेंचों को थोड़ा ढीला कर आधी आबादी की महिलाओं जाति, धर्म और वर्ग की त्रिशंकु से पहचान छुपाने की पीड़ा से मुक्त कर सके तो बिहार की महिलाएं भी अपनी मेहनत और ऊर्जा से अपना और राज्य का समावेशी विकास कर सकती हैं।