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शायद अमूल वाली लड़की के पास रोने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं बचा है

कल सुबह का अखबार खोला तो अमूल की उस लड़की के विज्ञापन पर नज़र गई जिसे देखते हुए मेरी ही तरह महानगरों/कस्बों कई बच्चे बड़े हुए होगे। अमूल द टेस्ट ऑफ इंडिया के विज्ञापन वाली लाल बूटेदार फ्रॉक पहनी हुई हंसमुख-चुलबुली लड़की जो किसी भी महौल पर प्यार से व्यंग्य करती और हमें खुश रहने की सीख देती है, वह कल रो रही थी। जहां तक मुझे याद है अमूल के विज्ञापन वाली लड़की को हमेशा मुस्कुराते ही देखा है सिवाय श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज़ क्यूरीयन के निधन के बाद। निर्भया हादसे के समाय वह गुस्से में थी, पर कल वो न ही गुस्से में थी, न व्यंग्य कर रही थी, वह रो रही थी।

फोटो अमूल ट्विटर

जिस तरह से 8 साल की बच्ची की हत्या की गई, उसके बाद उसपर राजनीति और कमोबेश रोज़ किसी न किसी बच्ची के साथ दुर्व्यवहार की खबरे आ रही हैं, अमूल के विज्ञापन वाली लड़की के पास रोने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है शायद। राजनीति, संघर्ष और अफवाह की तमाम विरोध की हवाओं में हम यह समझना ज़रूरी है कि बच्चियों या महिलाओं के साथ होने वाले  कोई भी दुर्व्यवहार सिर्फ उनकी नहीं, हम सब की समस्या है।

सामंती मानसिकता, मर्दानगी की दकियानूस पहचान, जनतांत्रिक मूल्यों की अपेक्षा और यौन संबंध के बारे में जैविक कुंठाए ही बलात्कार या दुर्व्यवहार के समस्या की जड़ है। इसका समाधान केवल नए कानूनों में खोजना या विधायिका के साथ-साथ पुलिस को जेंडर संवेदनशील बनाने की कोशिश करना, समस्या के आगे बीन बजाने जैसा ही है। हमें यह समझना होगा कि आजादी के बाद हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना तो की है पर सामाजिक लोकतंत्र से हम कोसों दूर खड़े है।

इस बात पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारत में बलात्कार या दुर्व्यवहार की घटनाओं की जांच कई बार कानूनी सीमाओं के आगे दम तोड़ देती है। हाल में उन्नाव और कठुआ की घटनाएं जिसने पूरे देश को शर्मशार किया है दोनों ही मामलों या अन्य कई मामलों में पुलिस के साथ-साथ विधायिका के सदस्यों की भूमिका निराशाजनक ही रही है। परंतु यह भी सच है कि समाज में आधी आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक समझना, पुरुषों के उपयोग-उपभोग की वस्तु मानना भी रोगग्रस्त मानसिकता पहले की तरह आज भी मौजूद है।

कानूनी और कार्यपालिकों के सीमाओं को दूर करने के साथ-साथ समाज को अपने सामाजीकरण को भी दुरुस्त करना ज़रूरी है, क्योंकि पूर्वाग्रही समाजीकरण ही आधी आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक बनाता है। समाजीकरण को दुरुस्थ करने के दिशा में यौन शिक्षा ज़रूरी कदम सिद्ध हो सकती है।

दुनिया के कई देशों में स्कूली बच्चों को यौन शिक्षा देने की पहल की जाती है, पर भारत में आज भी यौन शिक्षा को लेकर हाई/ हायर सेकेन्डरी स्कूली शिक्षा में पढ़ाई नहीं होती है और ना ही इसके लिए सिलेबस तैयार है। जबकि इंटरनेट की आसान पहुंच के दौर में हर पीढ़ी के पास सेक्स संबंधित तमाम सामग्री उपलब्ध है। जिन विषयों पर घर के सदस्यों में बात ही नहीं होती है, उसके लिए इंटरनेट का डेटा पैक पर सब कुछ दनदनादन है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हाल में सरकार ने जब आठ सौ से ज़्यादा अश्लील वेबसाइटों को ब्लॉक कर दिया था तब इस पर काफी हो-हल्ला मचा था। आखिर में कुछ साइटों को छोड़ कर सरकार ने बाकी से पाबंदी हटा ली थी।

भारत में पहले भी स्कूलों में यौन शिक्षा के मुद्दे पर बहसें होती रही है पर सांस्कृतिक और राजनीतिक विरोधों की वजह से यह मुद्दा ठंढे बस्ते में जाता रहा है। कभी बाबा साहब अम्बेडकर ने भी मशहूर रघुनाथ धोंडो कर्वे का केस के संबंध में दलील दी थी “यौन संबंध और यौन शिक्षा समाज के स्वास्थ्य का अहम विषय है। इसे अश्लील नहीं कहा जा सकता है, इसपर हमें सामूहिक रूप से सोचकर देखने की ज़रूरत है।” भले ही बाबासाहब के विचार बहुत निर्णायक स्थिति में थे, पर भारत में शिक्षा स्कूलों में ही नहीं समान्य तौर पर बातचीत का विषय नहीं रहे है।

परंतु, बलात्कार या यौन दुर्वव्यहारों के मामलों में नाबालिग बच्चों के बढ़ते मामलों को ध्यान में रखते हुए यौन संबंधों के दुष्परिणामों से बचाने के लिए इसे स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल करने के बारे में ठोस फैसला करने का सही समय शायद आ गया है। क्योंकि किसी भी विकृत समस्या का हल केवल ज्ञान ही हो सकता है, इसमें अब और ज़्यादा देरी होने पर नतीजे भयावह हो सकते हैं। इसके लिए समाज के साथ ही सरकार को भी एक मज़बूत इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा, क्योंकि हम बलात्कार संस्कृति का हिस्सा नहीं हो सकते है।

क्योंकि कश्मीर के कठुआ मामले में बच्ची का वीडियो अश्लील वेबसाइटों पर सर्च होना, यह सिद्ध करता है कि हमारी मानसिकता किस हद तक विकृत हो चुकी है, इसलिए शायद अमूल वाली लड़की के पास रोने के अलावा और कोई विकल्प ही नहीं बचा है।

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