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किसानों की टोपी और झंडों का रंग देखने वालों को उनके पैरों के छाले देखने चाहिए

सिर पर सपनों की गठरी रखकर हज़ारों किसान और आदिवासी नासिक से 180 किलोमीटर का पैदल मार्च करते हुए मुंबई के आज़ाद मैदान में पहुंचे जिसके बाद आश्वाशन लेकर वापस लौट गए।

इसके बाद लोगों ने अपनी-अपनी समझ से कहा कि ये तो वामपंथी हैं, तो कुछ ने कहा ये देश तोड़ने की साजिश है। यदि किसी ने कहा भी कि नहीं ये गरीब आदिवासी किसान हैं तो उसे पूरे एहतराम से समझाया गया कि उनके सिर की टोपी देखों, हाथ में झंडे देखों। हां यदि किसी ने उनके तलवों से रिसते खून और ज़ख्मी पैर देखे तो उसे देखने और राजनीति की समझ ही नहीं है।

अब हमारे देश में संवेदना व्यक्त करने और संवेदनशील होने के मापदंड निर्धारित से हो गए हैं। बस उन्हीं चीज़ों पर संवेदनशील होना चाहिए जिन पर फेसबुक के कथित राष्ट्रवादी संवेदना व्यक्त करें!

नकली जवाबों से असली सवाल एक बार फिर ढक दिए गए। जबकि वर्तमान सरकार ने साल 2014 के चुनाव में दो बहुत बड़ी घोषणाएं की थीं। पहली स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करने की, जो खेती की लागत पर 50 प्रतिशत जोड़कर समर्थन मूल्य देने की बात कहती है। दूसरी घोषणा किसानों की आय, 2022 तक दोगुनी करने की।

फोटो आभार: गरिमा पुंडीर

लेकिन जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 फरवरी 2016 को किसानों की एक रैली में सभी राज्यों से 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के लिए प्रयास करने को कहा है, तब से कृषि का मुद्दा यहीं तक सीमित हो कर रह गया है। इस पर कोई सवाल आज तक खड़ा नहीं हुआ।

यदि कोई सवाल खड़ा करेगा उसे लानत-मलानत झेलनी पड़ेगी, उसे स्वर्ग-नर्क के पाठ पढ़ाए जाएंगे। उसे बताया जाएगा कि ये देश को तोड़ने वाली ताकतें हैं, ये सरकार के खिलाफ साजिश है। वरना किसान तो यहां बहुत खुश है, यकीन न हो तो कृषि मंत्रालय की वेबसाइट पर लगे किसानों के फोटो देख लो।

सरकार कह रही है कि आज़ाद मैदान में आए किसानों की संख्या 10 हज़ार थी, विपक्ष कह रहा है कि 30 हज़ार थी। काश सरकार और विपक्ष दोनों ही इनकी संख्या के बजाय इनकी समस्या गिन लेते तो उन्हें 180 किलोमीटर यात्रा कर अपने दिल के घाव पैरों से न घिसने पड़ते।

उनके पैरों के घाव देखे तो कलेजा उछल गया, गुनाह शब्द की नैतिक परिभाषा मेरे गले में अटक गयी। पहली बार भूख को, बेबसी को, उस गरीबी को निकटता से देखा, जो 2014 में तालाब से पानी भरती हुई कह रही थी, “मोदी जी आने वाले हैं।”

वर्ष 1964 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हेराल्ड विल्सन ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान लोगों को फ्री चश्मे देने की बात कही थी। तब वहां के तमाम लोगों ने सवाल किया था कि इसके लिए पैसे कहां से आएंगे? आप अपनी जेब से देंगे या सरकारी खजाने से?

हमारे यहां ऐसा नहीं है, यहां तो नेता लैपटॉप, टीवी और साड़ी आदि के बाद यदि चांद और सूरज भी फ्री बांटने की बात करें तो न जनता और न ही कोई दल इस पर सवाल करेगा। स्वामीनाथन आयोग की शिफारिशें लागू करना भी चांद-सूरज देने का वादा बनकर ही रह गया है, क्योंकि सत्ता में आने के बाद जो हुआ वह सब इसके उलट था।

जून 2017 मध्यप्रदेश के मंदसौर में किसानों के आंदोलन के उग्र होने के बाद पुलिस फायरिंग में पांच किसानों समेत छह लोगों की मौत हो गई थी। इसे मीडिया से लेकर उत्साहित सोशल मीडिया ने विपक्ष की साजिश बताकर लगभग नकार दिया था। इसके बाद महाराष्ट्र में किसान अपनी मांग लेकर उग्र हुए। दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों समेत, देश भर में जगह-जगह किसानों के छुट-पुट आन्दोलन और आत्महत्या की खबरें अखबारों के किसी न किसी पेज के कोनों में आती रही।

गरीबी का पेट रंगीन राष्ट्रवाद से नहीं भरा जा सकता, न राष्ट्रगीतों के गुनगुनाने से भूख मिटती है। भगवा और हरा झंडा भी बेबसी के आंसू तो पोछ सकता है, लेकिन पेट की आग नहीं बुझा सकता।

लेकिन पता नहीं ये देश का दुर्भाग्य है या सौभाग्य कि एक सेलिब्रेटी की मौत 5 दिन लगातार न्यूज रूम की खबर बनी रहती है और हज़ारों किसानों की आत्महत्या सिर्फ सालों-महीनों के आकड़ों में कुछ सेकंड के लिए ही दिखाई जाती है। ये उस देश की बात है, जो खुद को कृषि प्रधान कहता है।

आखिर एक किसान को चाहिए क्या? उसे सिर्फ 3 चीज़ें चाहिए- पहला खेत के लिए उत्तम बीज और समय पर पानी। दूसरा उसकी फसल की लागत और परिश्रम के बाद उचित दाम और तीसरा उसकी फसल का नकद दाम और ये तीनों चीज़ें, कोई भी सरकार देना नहीं चाहती। इस कारण किसान सिर्फ मतदाता बनकर रह गया है।

उसे आज वामपंथी कह लीजिये, देश तोड़ने वाला कह लीजिये, उसके झंडे और टोपी की कीमत जोड़कर कह लीजिए कि वो गरीब कहां! लेकिन कभी टमाटर, कभी आलू फेंकने और सड़क पर दूध बहाने को मजबूर होने वाले किसान को भी देखिए। वो तस्वीरे मन में कसक ज़रूर पैदा करती हैं, इनका दर्द शहरों की ऊंची मंजिलों पर बैठकर नहीं समझा जा सकता।

आज किसान की हालत यह है कि शहरी आबादी के लिए वह मज़ाक और चुटकुलों का पात्र है, इसके बाद बचते हैं राजनीतिक दल तो मुझे नहीं लगता किसी दल के पास उनके लिए कोई संवेदना हो।

महाराष्ट्र में पिछली सरकार के समय सूखे से जूझते हुए किसानों से केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के भतीजे अजीत पवार ने पुणे में आयोजित एक सभा में कहा था, “भूख हड़ताल करने से पानी नहीं मिलेगा, बांध में पानी नहीं तो क्या करें, क्या पानी-पानी करते हो? नदी में पानी नहीं है तो क्या पेशाब करें?”

इसके बाद 2015 में कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने प्रेम प्रसंग, पारिवारिक कलह और नपुंसकता जैसे कारणों को किसानों की लगातार हो रही आत्महत्याओं की प्रमुख वजह बताया था।

भले ही देश का नारा जय जवान जय किसान हो, लेकिन दोनों के ही हालात आज किसी से छिपे नहीं हैं। न भारत रत्न का हकदार आज तक कोई जवान हुआ और न कोई किसान! ये तो बस जयघोष है, करते रहिए और गाते रहिए, “मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती मेरे देश की धरती…”

फीचर्ड फोटो आभार: अजमल खान 

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