“डब्ल्यू एच मा*रचो*…..मा*रचो*…मा*रचो*”
रात का समय है। महिला छात्रावास में लड़कियां खाने, सोने, पढ़ने और बातचीत करने में व्यस्त हैं और अचानक आवाज़ आती है। “पूजा… नेहा….” अपने-अपने कमरे से पूजा और नेहा नाम की लड़कियां निकलकर झांक रही हैं कि इतनी रात को मेरा नाम कौन पुकार रहा है। तभी अचानक गाली सुनाई देती है।
समझ से परे लड़कियां परेशान हैं कि कौन है? क्यों गाली दे रहा है? इस पशोपेश में पड़ी अभी वह सोच ही रही है कि तड़ातड़ गालियां चलने लगती हैं। तेज़…और तेज़….और फिर महिला छात्रावास में हलचल मच जाती है। जूनियर्स, सीनियर्स के पास जाती हैं और पूछती हैं कि “ये क्या और क्यों है?
दरअसल लगभग पांच साल से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास में रहकर सिर्फ मैंने ही नहीं बल्कि यहां रहने वाली हर लड़की ने गालियों से परिचय प्राप्त किया है। जैसी गालियां हमने जीवन भर नहीं सुनीं वो गालियां यहां हमें बड़े सलीके से सुनाई जाती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बिना किसी गलती के। अब आप यह सोच रहे होंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है कि बिना किसी गलती के कोई आपको गाली सुनाकर चला जाए तो ऐसा है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरुष छात्रावासों की परंपरा ही है कि यहां के लड़कों को गाली विद्या में पारंगत करना होता है।
नए लड़के जब हॉस्टल्स में रहने के लिए आते हैं तो अपने आदरणीय सीनियर्स से वो दुनिया की अश्लीलतम गालियां यहां सीखते हैं और फ्रेशर्स फंक्शन्स की तैयारियों के दौरान, होली के दौरान या यूं ही कभी मस्ती के मूड में रात को 12 से 2 बजे के बीच अपने हुनर का परिचय देने के लिए महिला छात्रावास की चारदिवारियों के चक्कर लगाते हुए मंत्रोच्चार की तरह गाली जाप करते हैं। बानगी के तौर पर लीडर बोलता है “डब्ल्यू एच मा*रचो*” तो पीछे से पूरा हुज़ूम पूरी ताकत और लय से बोल उठता है,…”मा*रचो*….मा*रचो*” ….
एक हाथ में “ल…” हमारा एक हाथ में “चू …तेरी”
बानगी पेश करने में भी मैं असमर्थ हूं क्योंकि इतने अश्लील शब्द हाथों से टाइप ही नहीं हो रहे हैं। कानों से रात को ख़ून आ जाता है जब रैंडमली लिए जा रहे नामों में से अचानक कोई लड़की अपना नाम सुन ले। वो चिल्लाते हुए किसी भी लड़की का नाम बुलाते हैं । ऐसा नाम जो अक्सर किसी न किसी का होता ही है, जैसे- पूजा, प्रिया, आकांक्षा, प्रियंका, नेहा, आदि। वो लड़के गुट में चलते हैं जिनसे पुलिस औए सुरक्षाकर्मी भी घबराते हैं। उनके हाथ में पत्थर होते हैं और वो ज़ोर से हंसते हैं। आपको राक्षसों को देखना है तो आप इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ जाइए, शायद ऐसे ही होते हैं।
महिला छात्रावास की सभी लड़कियों का सामूहिक रूप से शाब्दिक बलात्कार करते हुए जब उनका गला चीखने-चिल्लानेे के कारण दुखने लगता है तो वो अपने विश्राम गृह की ओर प्रस्थान करते हैं। महिला छात्रावास की लड़कियां कई बार पुलिस हेल्पलाइन पर कॉल करती हैं, कई बार विश्वविद्यालय प्रशासन को लिखती हैं तथा कई बार अध्यक्ष पद प्रत्याशियों से गुहार लगाती हैं, पर ना ही आज तक किसी को पकड़ा गया और ना ही ये परंपरा रुकी। इस परंपरा को आगे बढ़ाने और अक्षुण्ण रखने में विश्वविद्यालय एवं पुलिस प्रशासन भी महती भूमिका निभाती है क्योंकि आज तक इन गुंडे मवालियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई । हालांकि इस परंपरा की जानकारी यहां सभी को है । कोई भी इससे अपरिचित और अनभिज्ञ नहीं है ।
ये तो सत्य है कि किसी चीज़ में हो न हो पर गाली विद्या में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों का कोई सानी नहीं। यहां बिजली के चले जाने पर भी दो छात्रावासों के बीच तब तक गाली गेम खेला जाता है जब तक कि बिजली आ न जाये। अचानक रात को बिजली के चले जाने पर दो छात्रावास के लड़के एक-दूसरे की माँ-बहन तब तक करते हैं जब तक कि बिजली आ न जाए और वो अपना मुंह छिपा सकें।
जिस शिक्षा के मंदिर में औरतों का शाब्दिक बलात्कार करना परंपरा हो, बम बनाना दैनंदिन का कार्य हो और चौराहों पर खड़े होकर लड़कियों को छेड़ना एकमात्र पौरुष का काम हो उस देश का भविष्य इन लोगों के कंधे पर आकर जब वर्तमान बनेगा तो निश्चय ही भारत *विषगुरु* बन जायेगा।
यह परंपरा कब, कैसे और किसके द्वारा शुरू हुई इसका कोई ज्ञान इन छोटी और मासूम लड़कियों को नहीं है पर जब वो पहली बार इससे रूबरू होती हैं तो अपनी सीनियर्स से पूछती हैं कि “दी! ये लोग हम लोगों को गाली क्यों दे रहे हैं?” और इस वक्त सीनियर्स सिर्फ इतना कह पाती हैं कि “बाबू! हम लोग तो कई साल से झेल रहे हैं, पर आज तक नहीं जान पाए।”
क्या ये परंपरा अनवरत यूं ही चलती रहेगी? क्या इस देश की इसी संस्कृति पर हमें गर्व है? आओ फलाना-ढमकाना सेना वालों! कहां हो? देश की स्त्रियों की अस्मिता की परवाह अब आपको नहीं है? या सामूहिक जौहर करने का इतंज़ार किया जा रहा है? जिसके बाद ही हम आपका गौरव बन पाएंगे?
आप सोच रहे होंगे कि स्त्रियां अभी भी कमज़ोर हैं क्योंकि वो आपसे गुहार लगा रही हैं…यही सोच रहे हैं ना आप ?
इन दो कौड़ी के गुंडे-मवालियों को हम लड़कियां खुद देख सकते हैं पर हमें तो पिंजरे में बंद करके रखा जाता है। चार तालों के बीच में फंसी लड़की गालियां सुनने और बर्दाश्त करने के सिवा कर ही क्या सकती हैं। हमारे नियम मानने और शांति से रहने की आदत को हमारी चुप्पी और सहमति समझने की भूल ना करें वरना वो दिन दूर नहीं जब लड़कियां हल्ला बोलकर इन दरवाज़ों को तोड़कर निकल जाएंगी और इन कमीनों को दौड़ाकर मारेंगी। फिर बनेगी एक अलग परंपरा, पर हम प्रतिक्रियावादी बन जाएं इससे पहले यह परंपरा यदि स्वयं बंद हो जाए तो बेहतर है ।
फिलहाल मन बहुत आक्रोश मिश्रित दुःख में है ।