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अंधविश्वास, अवैध निर्माण और गंदगी से त्रस्त है लखनऊ का कुकरैल नाला

यूं तो लखनऊ को अपनी गंगा-जमुनी संस्कृति के साथ ही विरासत में तमाम ऐसी धरोहरें मिली हैं, जिनकी पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान है। लेकिन यहां कई ऐसी मान्यताएं आज भी प्रचलित हैं, जिनके बारे में आज के युवा शायद ही जानते हों। इन मान्यताओं का अपना एक रोचक इतिहास है, जिनका अनुसरण आज भी हो रहा है। फैज़ाबाद रोड स्थित कुकरैल पुल का नाम शायद आपने सुना हो, दो दशक पहले तक यह काफी मशहूर था। जब रैबीज का इलाज सबके बस में नहीं था और कष्टकारी था, तब यहां कुत्ते के काटने (रैबीज़) से पीड़ित देश भर के मरीज़ झाड़-फूंक से इलाज करवाने आते थे। गरीब तबके का एक बड़ा हिस्सा आज भी कुत्ते से काटने का इलाज झाड़-फूंक से करा रहा है।

कुकरैल ब्रिज लखनऊ

आज भी जारी है परंपरा

कुकरैल पुल से जुड़ी कई मान्यताएं हैं, कुछ लोग शायद इसके बारे में जानते होंगे और कुछ नहीं, क्योंकि बदलते वक्त के साथ इतिहास धुंधला सा गया है। अब इसे आस्था माने या अंधविश्वास, दावा किया जाता है कि जिस किसी व्यक्ति को कुत्ते ने काटा हो उसे कुकरैल नाले में नहाने के बाद किसी दवा और इलाज की ज़रूरत नहीं पड़ती है। लखनऊ में कुत्ता काटने पर कुकरैल पुल में नहाने की परंपरा पिछले कुछ सालों या दशकों की नहीं बल्कि पीढियों पुरानी है। ग्रामीण लोग आज भी इसी परंपरा के कारण यहां आते हैं।

गंदगी और अवैध अतिक्रमण का साम्राज्य

आपको बता दें की यह कुकरैल नाला लखनऊ से तकरीबन 20 से 30 किलोमीटर दूर बक्शी का तालाब के आगे अस्ति गांव से निकलकर भैंसाकुंड के गोमती नगर बैराज में जाकर मिलता है। मौजूदा समय में यह नाला काफी गंदा हो चुका है। इंदिरा नगर और आस-पास विकसित हो चुकी सैकड़ों कालोनियों का गंदा पानी इस कुकरैल नाले में आकर गोमती नदी में समाहित हो जाता है। कुकरैल नाले में झुग्गी-झोपडियों का अवैध साम्राज्य खड़ा हो गया है। सिंचाई विभाग और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही के चलते कुकरैल नाले के अंदर काफी सारे अवैध पक्के निर्माण हो गए हैं।

कुकरैल नाले में हुआ अवैध निर्माण

रोचक है कुकरैल नाले की कहानी

किदवंती है कि बक्शी का तालाब से दूर अस्ति गांव में एक गरीब बंजारा रहता था। उसके पास एक पालतू कुत्ता था, जो उसे बहुत प्रिय था। गरीबी की मार झेल रहे बंजारे को मदद की आवश्यकता पड़ी तो उसने साहूकार के पास जाकर मदद की गुहार लगाई। साहूकार ने कोई कीमती चीज गिरवी रखकर पैसे देने की बात कही। बंजारे ने कहा कि उसके पास एक पालतू कुत्ते के अतिरिक्त गिरवी रखने की कोई वस्तु नहीं है।

साहूकार ने दया करके बंजारे को कुछ पैसे देकर कुत्ते को अपने पास गिरवी रख लिया। बंजारे ने वादा किया कि कुछ समय के बाद पैसा वापस करके अपने प्रिय पालूत कुत्ते को वापस ले जाएगा। इस घटना के कुछ समय बाद साहूकार के घर चोरी हो गई। चोरों ने घर का सारा कीमती सामान गांव के बाहर एक तालाब में छिपा दिया। बंजारे का पालूत कुत्ता साहूकार का ध्यान खींचने के लिए बार बार भौंकता और तालाब की ओर दौड़ता।

कुछ ग्रामीणों ने साहूकार का ध्यान पालतू कुत्ते की उन हरकतों की ओर आकर्षित करवाया तो सभी लोग तालाब की ओर गए। जब कुत्ते ने सभी लोगों को तालाब की ओर आते देखा तो वह तालाब में कूद गया। तालाब से कीमती सामान बरामद होने से साहुकार कुत्ते की सूझ-बूझ और स्वामिभक्ति से काफी खुश हुआ और उसने कुत्ते को आज़ाद कर दिया।

आज़ाद होते ही कुत्ता अपने बंजारे मालिक के पास जाने के लिए निकल पड़ा। जब बंजारे ने कुत्ते को देखा तो उसे खूब गुस्सा आया और उसने सोचा कि यह कुत्ता साहूकार के पास से भाग आया है और इसने मेरी नाक कटवा दी। इसी क्रोध में बंजारे ने कुत्ते को मार डाला। जब बंजारे को वास्तविकता पता चली तो उसे बहुत ही पश्चाताप हुआ और उसने कुत्ते को उसी तालाब में दफना दिया। कहा जाता है कि कुत्ते के वियोग में उस बंजारे की मौत कुकरैल पुल के पास ही हुई थी। 1938 में वहां कब्रिस्तान हुआ करता था और कुकरैल पुल के बगल में एक मज़ार भी थी, इनका आज कोई नामोनिशां तक नहीं है। तब से यहां कुत्ते के काटने के इलाज (झाड़-फूंक) की परंपरा शुरू हुई।

पीढ़ियों से निभाए जा रहा है रस्मों-रिवाज

इंदिरा नगर के शेखपुर कसैला गांव की 84 वर्षीय नूरजहां का कहना है कि कुत्ते से काटने और पीलिया के झाड़-फूंक की परंपरा उनके परिवार में कई पीढिय़ों से चली आ रही है, जिसका अनुपालन आज भी हो रहा है। उन्होंने बताया कि 70 साल पहले कुत्ते से काटने का इलाज काफी महंगा और कष्टकारी थी। आज की तरह बांह में इंजेक्शन नहीं लगते थे, तब पेट में 14 इंजेक्शन लगते थे।

नूरजहां

ये इंजेक्शन बड़े खतरनाक हुआ करते थे, इन्हें लगवाने के बाद पेट फूल जाते थे और सूजन भी बनी रहती थी। इसको लगवाना हर एक के बस में नहीं था। उन्होंने बताया कि उन्हें आज भी याद है कि इतवार और मंगलवार को कुत्ते से काटने का इलाज करवाने वालों की बड़ी भीड़ लगती थी। पहले कुकरैल नाला काफी साफ और स्वच्छ रहता था। उन्होंने बताया कि कुत्ते के काटने से पीड़ित व्यक्ति द्वारा नाले में नहाने के साथ सत्तू की सात पेड़ी बनाने के साथ ही आधी खाकर आधी सिर के ऊपर से एक चक्कर लगाकर नाले में फेकने का रिवाज था। अब नाले में नहाने के बजाए मात्र सत्तू की पेडियां कटवा कर फेकनें की परंपरा है।

अंधविश्वास की बेडियां तोड़े जनता

सामाजिक संस्था ‘वात्सालय’ की महासचिव डा. नीलम सिंह का कहना है कि तीन दशक पूर्व रेबीज़ से बचाव के मेडिकल संसाधन काफी कम थे। इस वजह से उस समय लोग कुत्ते के काटने का इलाज झांड-फूंक से करते थे। यह अंधविश्वास है। रैबिज का इलाज अब काफी आसान है। पहले पेट में सुई लगती थी, अब हाथ में कम दामों पर लगती हैं। जबकि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में लगती हैं। अब यह परंपरा आज भी चल रही है तो जनता को जागरूक करके इस अंधविश्वास को खत्म किया जाना चाहिए।

घातक है शरीर के लिए गंदे पानी से नहाना

पर्यावरण पर बारीक नजर रखने वाली ‘सी कार्बन’ संस्था के अध्यक्ष वी.पी. श्रीवास्तव का कहना है कि अगर कोई गंदगी से भरे नाले में नहाएगा तो वह स्वास्थ कैसे होगा? अब इस तरह की कोई परंपरा चल रही है तो जनता को ध्यान रखना चाहिए कि वह स्वास्थ्य और शरीर के लिए सही नहीं है। इस पर रोक लगाई जानी चाहिए। तमाम रिपोर्ट आ रही हैं कि पर्यावरण काफी प्रदूषित हो गया है। नदी और नाले की गंदगी का स्तर दिनों दिन बढ़ रहा है।

फोटो आभार: अभय राज

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