उर्दू शायरी की *मकबूल शख्सियत अहमद फराज़ अदब के नुमाया सितारे थे। शायरी को इज़हार का सरमाया बनाने वाले फराज़ में कारगर कलामों की दिलचस्प ताकत रही। सामाजिक-सियासती-*शकाफती हवालों को उन्होंने शायरी और गज़ल की फनकारी से हम तक पहुंचाया। उनकी गज़लों में नाकाम मुहब्बत व मिलन की सदाएं, कमाल के अंदाज-ए-बयां में मिलती हैं। गज़ल के दीवाने उन्हें खास चयन व शायरी में *मुख्तलिफ सदाओं के लिए याद करते हैं।
“आज एक बरस और बीत गया उसके बिना, जिसके होते हुए होता था ज़माना मेरा”
फराज़ के कलामों के बिना गज़ल गायिकी के सितारे थोड़े अधूरे मालूम पड़ते हैं। गज़ल के बहुत से फनकारों की आवाज़ होने का मौका उन्हें नसीब हुआ था। फराज़ की यह शख्सियत फैज़ और हबीब जालिब जैसे नुमाया शायरों के साए में जवां हुई।
इस तरह यह कहना जोखिम नहीं कि फराज़ का *तसव्वुर करना दरअसल फैज़ और जालिब की विरासत को पहचानना भी है। तरक्कीपसंद *तहरीक में इन लोगों का यादगार दखल इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता। अब वह फैज़ हों या फराज़ या फिर हबीब जालिब सभी ने अपने ज़माने की सियासत और सामाज पर खुलकर लिखा।
“निसार तेरी गलियों पे ए वतन, के जहां चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले” – ‘फैज़’
फराज़ के चले जाने से तरक्कीपसंद तहरीक को भारी नुकसान उठाना पड़ा। फराज़ व कैफी साहेब तकरीबन एक ही वक्त दुनिया से कूच कर गए। गम पर सरहद की लकीरों का कब अख्तियार हुआ है, फराज़ के लिए हिन्द तो कैफी के लिए पाकिस्तान रोया। कहना लाज़मी होगा कि इनके बाद शायरी की महफिल में उदासी थी। एक तरह से तरक्कीपसंद शायरी का फन हाशिए पर चला गया। नई पीढ़ी में जुनून ज़रूर था, लेकिन अब फराज़ और कैफी की कमी खल रही थी।
“सिवाए तेरे कोई भी दिन रात ना जाने मेरे, मगर तू कहां है ए दोस्त पुराने मेरे”
फराज़ के न होने से उर्दू शायरी के वो कलाम खामोश पड़ गए, जिसे आने वाले *मुस्तकबिल को लिखना था। कैफी व फराज़ दोनों में तरक्कीपसंद शायरी की एकता थी। फराज़ की शायरी किसी भी ज़मीनी सरहद के कब्जे में नहीं रही, हिन्दुस्तान व पाक में वो एक जैसे मशहूर रहें। फन का जादू सियासी सरहदों को मिटा दिया करता है।
फराज़ के कलामों में सामाजिक इंसाफ की तरक्कीपसंद आवाज़ शिद्दत से निखर कर आई थी। उनके किस्म की शायरी अपनी तहज़ीब की आखिरी कड़ियों में थी। तरक्कीपसंद शायरी की बात करें तो यह तहरीक जोश मलीहाबादी व इकबाल से शुरू होकर अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी और मजरूह के कोशिशों से पूरी हुई। फैज़ और कैफी की सोच ने शायरी की इस विरासत को आगे भी जारी रखा। फिर हबीब जलीब, फहमीदा रियाज़ और फराज़ अपने कलामों के ज़रिए यह नेक काम करते रहे। इन फनकारों की बदौलत बीसवीं शदी के उर्दू अदब को नया मुकाम मिला। इस नुमाया तहरीक को लेखकों के संगठन से काफी हिम्मत मिली। फन की मुख्तलिफ किस्मों के ज़रिए सामाजिक असंगति को खत्म करने की लड़ाई जारी थी।
“अब तो शायर पर भी कर्ज़ मिटटी का है, अब कलम में लहू है सियाही नहीं”
रूमानी शायर के रूप में फराज़ ने कलाम को फारसी व उर्दू की विरासत से तराशा। उनकी रूमानी शायरी में मीर की संवेदना व गालिब का फलसफा खूबसूरती से शामिल है। फराज़ फारसी के महान शायर बेदिल से काफी प्रभावित रहे, एक मायने में शायरी का हौंसला उन्हें बेदिल व गालिब से मिला था।
फारसी व उर्दू की विरासत में डूबी फराज़ की रूमानी शायरी में शायरों की सोच ज़िंदा रही। फिर भी जब कभी लिखा उसमें हालात का होना ज़रूरी था। फराज़ ने विरासत से होकर आज व आने वाले कल के बीच पेशकश का पुल बनाया। फैज़ के बाद के शायरों में फराज़ को उनकी विरासत का सच्चा तलबगार कहा जा सकता है। नज़रिए को रूमानियत के साथ मिलाकर शायरी की नयी किस्म बनाने में वो कामयाब हुए थे। रूमानी होकर भी असलियत का एक पहलू दिखाने के लिए उन्होंने दिलचस्प प्रयोग किए।
“जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं फराज़, फिर भी तू इंतज़ार कर शायद”
फराज़ का रूकसत होना दिल को मंजूर नहीं हुआ। वो दुनिया से कूच कर गए, फिर भी कलामों के ज़रिए हमेशा बने रहेंगे। आम आदमी को इंसाफ का हकदार बनाने के लिए शायरी का जागरूक इस्तेमाल यहां देखने को मिला। फराज़ की शायरी हक की लड़ाई को समझने की तरफ बेहतरीन कोशिश होगी। उनका शुक्रगुज़ार हूं कि सियासत को समझता हूं।
“मैंने देखा है बहारों में चमन को जलते, है कोई ख्वाब की ताबीर बताने वाला”
हालांकि उनका शुरुआती सफर रूमानी उर्दू शायरी के नज़दीक था, लेकिन सत्तर दशक तक आकर उसमें तब्दीली देखने को मिली। अब वो ज़िंदगी की कड़वी असलियत से रूबरू तरक्कीपसंद शायर की शख्सियत जीने लगे थे। फराज़ की शायरी कामयाब रही क्योंकि उनके कलामों ने ज़िंदगी की हकीकतों को नज़रअंदाज़ नहीं किया। जब कभी शायरी का जिक्र आएगा तो दीवाने फराज़ के सिलसिले में “हुई शाम तो आंखों में बस गया फिर तू, कहां गया है मेरे सेहर का मुसाफिर तू” को याद करेंगे।
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