यह जिस किताब का आवरण है, मुझे स्वीकार करते ज़रा भी हिचक नहीं कि इसने मुझे अपने ही शहर की संस्कृति से कितना कम वाकिफ होने की शर्मिंदगी में डाल दिया है।
घंटों बाद वह एक आखिरी कोने में बिल्कुल गुमशुदा अवस्था में दिखा। वहां ढलती उम्र मगर चेहरे पर गरिमामय तेज लिये एक महिला बैठी मिलीं। उन्होंने बताया कि एकलव्य वाले अभी कहीं निकले हैं। अपने बारे में बताया कि वह एक संस्था चलाती हैं- ‘ बुद्धिवादी फाउंडेशन’ – और संस्था से प्रकाशित कुछ पुस्तकों को लेकर एकलव्य के स्टॉल पर ही बैठ रही हैं। उन्होंने अपना नाम कंवलजीत कौर बताया और अपनी संस्था के बारे में भी ढेर सारी बातें बतायीं। मेरे बारे में भी जानने के बाद उन्होंने मुझे एक किताब सप्रेम भेंट की- ‘सरदार महेंद्र सिंह की कहानी: एक बेटी की ज़ुबानी।’
मैंने सोचा यह पिता की स्मृति में लिखी एक बेटी की महज अपने पारिवारिक संस्मरणों की कोई हल्की-फुल्की किताब होगी, बड़े बेमन से उसे ग्रहण किया। मगर नहीं, घर लाकर कई दिनों बाद जब मैंने इस किताब को पलटा तो यह तो मेरे अपने शहर राजधानी पटना की ऐतिहासिकता और उसकी संस्कृति के बिल्कुल छोड़ दिये गये एक अनिवार्य प्रसंग का दिलचस्प दास्तां निकला।
हम संस्कृति को प्रायः स्मारकों और खंडहरों में ही देखने के आदी होते हैं। हमारे शहर की कोई किराना या मिठाई की दुकान भी शहर की सांस्कृतिक-परिवेश का प्रमाण हो सकती है, इसका ध्यान तो हमारे दिमाग में आता ही नहीं।
इतना ही नहीं, जब आपको पता चले कि सरदार महेंद्र सिंह जो स्वयं औपचारिक शिक्षा से वंचित थे मगर मार्क्स-पूर्व के काल्पनिक समाजवादी समाज के अधिष्ठाताओं की तरह अपने फलते-फूलते व्यवसाय में अपने कर्मचारियों को कानूनी हिस्सेदारी देने का भी पात्र रहे हैं तो यह और दिलचस्प प्रसंग बन जाता है।
जी हां, सरदार मोहन सिंह एक ऐसे ही व्यवसायी रहे हैं जो बंटवारे के बाद लाहौर से उखड़ कर पटना आ बसे थे। स्वाभिमानी इतने कि उस समय सरकार से मिल रहे शरणार्थी अनुदान लेने से साफ इंकार कर दिया और टोकरी में फल लेकर फुटपाथ पर बेचने बैठ गए थे। स्थानीय दंबगों के तंग किये जाने पर अधिकारियों को विवश करके पटना स्टेशन के पास फलों के स्थाई और नियमित बाज़ार के लिए जगह आवंटित करवायी। बाद में, वहीं आज के सबसे मशहूर किराना की दुकान ‘पंजाब किराना स्टोर’ अपने पिता के साथ मिलकर खोली। बताते चलें कि यह सूबे की पहली किराना दुकान थी जिसने साफ-सुथरे चावल की पैकेट बनाकर बेचने की परंपरा डाली थी। यह दुकान इतनी चली कि परिवार के सदस्य पैसों से खेलने लगे। मगर, अभावों और संघर्षों की आग में तपकर और भीतर से कहीं समाजवादी संकल्पों के बीज धारण करके अपने को गढ़ने वाले सरदार महेंद्र सिंह को यह गंवारा ना हुआ और उन्होंने इस संयुक्त पारिवारिक व्यवसाय को बिना एक पैसा लिए छोड़ दिया।
उन्होंने फिर बोरिंग रोड चौराहा पर मामूली चाय-टोस्ट की दुकान से शुरुआत की। बाद में ‘ क्वालिटी कॉर्नर’ के नाम से मिठाई की दुकान में तब्दील होकर वह आज भी राजधानी की एक बेहतरीन रेस्टोरेंट को रूप में प्रसिद्धी पा रही है। ‘क्वालिटी कॉर्नर’ को अपनी लंबी जीवन-यात्रा में भारी उथल-पुथल देखने पड़े हैं। सिख-विरोधी दंगे में इसे पूरी तरह उजाड़े जाने का मारक दंश भी झेलना पड़ा। परंतु, सरदार महेंद्र सिंह ने पटना से बहुतेरे सिख परिवारों के भारी पलायन के बावजूद अपने इस रेस्टोरेंट को पुनः खड़ा करके राजधानी के प्रति अपने विश्वास को तनिक भी डिगने ना दिया।
मगर, यहां एक और ख़ास घटना का ज़िक्र किये बिना ना तो सरदार महेंद्र सिंह के चमत्कारिक चरित्र को और ना ही ‘क्वालिटी कॉर्नर’ की विकास-यात्रा की चमक को परखा जा सकता है। बोरिंग रोड चौराहा पटना का पॉश इलाका है, इसलिए यहां बड़े घरों की लड़के-लड़कियों की भारी चहल-पहल हमेशा बनी रहती है। आए दिन ढेरों अप्रिय घटनाएं भी होती रहती हैं। मगर, सरदार जी बड़ी दिलेरी के साथ उनका सामना और समाधान करने में पीछे नहीं रहते थे।
एक दिन वीमेंस कॉलेज की दो लडकियां कुछ दंबग और मनचले लड़कों की छेड़खानी से बचने के लिए क्वालिटी कॉर्नर में घुस आयी। घबराई लडकियों को सरदार जी ने तुरंत पीछे के दरवाज़े से सुरक्षित निकलवा दिया। इसके बाद, उन लड़कों का पता लगाया। मालूम हुआ कि वे लड़के क्वालिटी कॉर्नर के नियमित ग्राहक हैं। एक तो मकान मालिक का लड़का भी था। फिर क्या था, सरदार जी ने दूसरे दिन सुबह दुकान बंद रखी और शटर पर नोटिस लगा दिया, “दुकान के कुछ ग्राहकों के अभद्र व्यवहार का विरोध करने के लिए दुकान बंद है। जब तक वे अपने अपराध के लिए माफी नहीं मांग लेते दुकान नहीं खुलेगी।” कहते हैं, मकान मालिक का लड़का और उसके साथियों के माफी मांगने के बाद ही दुकान खुली।
इसके बाद भी यदि हम इस दुकान और उसके रिफ्यूज़ी मालिक के यशोगान से इंकार करें तो यह एक तरह से अपने शहर की श्रेष्ठ परंपराओं के ही गौरवगान से इंकार करने से कम नहीं होगा।
सरदार महेंद्र सिंह जो स्वयं तो औपचारिक शिक्षा से वंचित थे मगर शिक्षा के प्रति उनके ज़बरदस्त अनुराग को उनके अत्यंत खुले और परिमार्जित आचरण में देखा जा सकता है। आधुनिकता से कोसों दूर और एक निहायत धर्मभीरु खानदान से होने के बावजूद उन्होंने अपनी इस लेखिका पुत्री को न सिर्फ पटना यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी. की उच्चतम पढ़ाई पूरी करने को प्रोत्साहित किया बल्कि अंतर्जातीय विवाह तक की इजाज़त दी। यह शायद हिंदी के एक बड़े विद्वान और अति सांस्कृतिक व्यक्तित्व के धनी नलिन विलोचन शर्मा के पड़ोसी होने का भी प्रतिफल हो।
इसी तरह, सफल व्यवसायी होने के बावजूद उन्होंने बाज़ारू रिश्ते की जगह अपने कर्मचारियों के साथ भाईचारे की ऐसी मिसाल कायम की कि जिसे किताबों या सिनेमा के पर्दे पर ही प्रायः देखना संभव हो पाता है।
उन्होंने एक लावारिस लड़के को दुकान की साफ-सफाई के लिए सड़क से उठाया और बाद में उसे सिख नाम देकर अपना भाई ही घोषित कर दिया। अपनी मृत्यु की पहली वसीयत के ज़रिये अपने सभी कर्मचारियों को ‘क्वालिटी कॉर्नर’ में हिस्सेदारी का अधिकार दे दिया।
यह किताब हमारे शहर की तहज़ीब में अपना भी एक गाढ़ा रंग भरने वाले उसी उदात्त चरित्र के नायक सरदार महेंद्र सिंह की जीवनी है, जिन्हें इसके हाथ लगने से पहले तक ना जानना वाकई मेरे लिए भारी शर्मिंदगी का सबब तो था ही। मैं उनकी विदुषी पुत्री डॉ. कवलजीत कौर का ऋणी हूं, जिन्होंने एक अनायास मुलाकात और बेपरिचय के बावजूद मेरे हाथ अपनी यह श्रमसाध्य कृति सौंप कर मुझे इस शर्मिंदगी से उबार दिया।