हमारे समाज में एक बेहद ही प्रचलित धारणा है कि महिलाएं कमज़ोर होती हैं। कई बार महिलाओं को सरकारी स्तर पर भी तंग किया जाता है। पुलिस एफआइआर तक नहीं लिखतीं, उल्टा एडजस्ट करने की सलाह दे डालती है। आधी रात को गिरफ्तार करने आ धमकती है, लेकिन अगर हम आंकड़ों की तह में जायें, तो इस तरह की ज़्यादातर परेशानियां वैसी महिलाओं को ही झेलनी पड़ती हैं, जिन्हें अपने कानूनी अधिकार पता नहीं होते। अत: हर महिला को अपने कुछ बेसिक कानूनी अधिकार पता होने चाहिए, ताकि वह किसी भी तरह की प्रताड़ना से अपना बचाव कर सके।
1. महिला को थाने पर नहीं बुला सकती है पुलिस
आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure-CPC) की धारा 160 के तहत किसी भारतीय महिला को उसकी मर्ज़ी के विरुद्ध पूछताछ के लिए थाने में नहीं बुलाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में पुलिस महिला के आवास पर जाकर महिला कॉन्स्टेबल, फैमली मेंबर या परिचित की मौजूदगी में पूछताछ करना होगा। यह कानून किसी भारतीय महिला को थाने में उसकी मर्ज़ी के बगैर सशरीर उपस्थित नहीं होने का अधिकार प्रदान करती है।
2. किसी भी थाने में दर्ज हो सकती है FIR
सुप्रीम कोर्ट के आदेश मुताबिक किसी संज्ञेय अथवा गंभीर अपराध (रेप, एसिड अटैक आदि) की शिकार महिला किसी भी थाने में ज़ीरो एफआइआर दर्ज करवा सकती है। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि उक्त मामला उस इलाके के थाना क्षेत्र के अंतर्गत घटित हुआ ही हो। ऐसे मामलों में स्थानीय पुलिस न सिर्फ FIR करेगी बल्कि वह शुरुआती जांच भी करेगी, ताकि शुरुआती साक्ष्य नष्ट न हों। फिर जांच के बाद उस जांच रिपोर्ट और FIR को संबंधित थाने को रेफर किया जायेगा। इस प्रक्रिया के तहत दर्ज एफआइआर को जीरो एफआइआर कहा जाता है। सामान्यतः यह देखा जाता है कि इलाका और हल्के का हवाला देकर थाना इंचार्ज सर्वाइवर की प्राथमिकी दर्ज करने से मना कर देते हैं। किसी भी थाने जीरो एफआइआर दर्ज होने के बाद उक्त थाने के सीनियर अधिकारी की जिम्मेदारी होती है कि वह संबंधित इलाके के पुलिस थाने को कार्रवाई के लिए निर्देशित करें।
3. ई-मेल व रजिस्टर्ड डाक से भी दर्ज होते हैं FIR
दिल्ली पुलिस द्वारा जारी एक गाइडलाइन के मुताबिक महिलाएं ई-मेल व रजिस्टर्ड डाक के ज़रिए भी अपनी शिकायत दर्ज करवा सकती हैं। यानी जो महिलाएं शिकायत दर्ज करवाने सीधे पुलिस थाने नहीं जा सकतीं, वे अपनी लिखित शिकायत ई-मेल अथवा रजिस्टर्ड डाक के ज़रिए उपायुक्त अथवा आयुक्त स्तर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को सीधे उनके मेल आईडी अथवा पते पर भेज सकती हैं।
4. प्राथमिकी दर्ज कराने की समय-सीमा नहीं
महिला के लिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि थाने में प्राथमिकी दर्ज करवाने की कोई समय सीमा नहीं होती और वह जब चाहे प्राथमिकी दर्ज करवा सकती है। महिला से यह कहकर रिपोर्ट दर्ज करने से मना नहीं किया जा सकता है कि घटना को घटित हुए काफी वक्त बीत चुका है। यानी पुलिस यह नहीं कह सकती है कि घटना को काफी वक्त हो गया और अब प्राथमिकी दर्ज नहीं की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के मुताबिक पुलिस को महिला की प्राथमिकी हर हाल में दर्ज करनी होगी, भले ही घटना और दर्ज कराये जा रहे प्राथमिक रिपोर्ट के बीच कितना ही फासला क्यों न हो।
5. बयान दर्ज करते समय निजता का अधिकार
सीआरपीसी (आपराधिक प्रक्रिया संहिता) की धारा 164 के तहत बलात्कार सर्वाइवर महिला अंडर ट्रायल स्थिति में भी बिना किसी की मौजूदगी में सीधे जिला मजिस्ट्रेट के सामने अपने बयान दर्ज करवा सकती है। इसके अलावा सर्वाइवर महिला ऐसे अनुकूल जगहों पर भी एक पुलिस अधिकारी व महिला कांस्टेबल के सामने अपने बयान दर्ज करवा सकती है, जहां पर किसी चौथे व्यक्ति द्वारा उसके बयान को सुने जाने की संभावना न के बराबर हो। यह व्यवस्था इसलिए की गयी है, ताकि महिलाएं बयान दर्ज करवाते समय तनाव से दूर रह सकें और सहज होकर अपना बयान दर्ज करवा सकें।
6. सूर्यास्त के बाद महिला की गिरफ्तारी नहीं
एक महिला को सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। कई बार ऐसे मामले देखने-सुनने में आते हैं, जब पुलिस द्वारा महिलाओं को देर रात प्रताड़ित किया गया हो। यहां तक कि महिला कॉन्स्टेबल की मौजूदगी में भी रात के वक्त किसी महिला की गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है। महिला को सिर्फ दिन में ही गिरफ्तार किया जा सकता है। गंभीर अपराध में किसी महिला के संलिप्त होने की स्थिति में भी पुलिस द्वारा मजिस्ट्रेट की लिखित गिरफ्तारी के आदेश प्रति प्रस्तुत करने पर ही महिला को गिरफ्तार किया जाना संभव है। इस आदेश में इस बात का स्पष्ट उल्लेख होना आवश्यक है कि रात के समय उक्त महिला को गिरफ्तारी क्यों ज़रूरी है।
7. मुफ्त कानूनी सहायता
दिल्ली हाईकोर्ट के एक आदेश के मुताबिक आपराधिक दुर्घटना की शिकार महिला द्वारा थाने में प्राथमिकी दर्ज कराये जाने के बाद थाना इंचार्ज की यह ज़िम्मेदारी है कि वह उक्त मामले को तुरंत स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी को भेजें और उक्त संस्था की यह ज़िम्मेदारी है कि वह सर्वाइवर महिला को मुफ्त वकील की व्यवस्था कराये। सामान्यतः देखा जाता है कि महिलाएं अनभिज्ञता में अक्सर कानूनी पचड़ों में फंस कर रह जाती हैं।
8. सर्वाइवर की पहचान की रक्षा अनिवार्य है
आइपीसी की धारा 228ए के तहत बलात्कार सर्वाइवर महिला की पहचान उजागर करने को अपराध माना गया है। सर्वाइवर महिला का नाम और पहचान उजागर करने वाले किसी भी ऐसे कृत्य को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। यानी किसी भी दशा में बलात्कार सर्वाइवर महिला की पहचान उजागर करना अपराध है, जो पुलिस और मीडिया दोनों पर लागू होता है। यहां तक की हाईकोर्ट अथवा लोअर कोर्ट में फैसलों के दौरान भी सर्वाइवर का नाम उजागर नहीं किया जा सकता है।
9. डॉक्टर को रेप की पुष्टि का अधिकार नहीं
सीआरपीसी की धारा 164 ए के तहत प्रत्येक बलात्कार सर्वाइवर की मेडिकल जांच ज़रूरी है और बलात्कार की पुष्टि के लिए केवल मेडिकल रिपोर्ट ही पर्याप्त नहीं है साक्ष्य के तौर पर। मसलन, अगर डाक्टर कहता है कि बलात्कार नहीं हुआ तो केस बंद नहीं हो सकता है, यही नहीं, सर्वाइवर को डॉक्टर से अपनी मेडिकल रिपोर्ट की एक प्रति भी लेने का अधिकार है। चूकि बलात्कार एक लीगल टर्म है, जिसका मूल्यांकन एक मेडिकल अधिकारी नहीं कर सकता। मेडिकल अधिकारी सिर्फ सर्वाइवर के हालिया सेक्सुअल एक्टीविटी के मिले सुबूतों पर बयान दे सकता है कि बलात्कार हुआ या नहीं।
10. कार्यालयों में यौन उत्पीड़न कमेटी का गठन ज़रूरी
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी विशाखा गाइडलाइंस के मुताबिक महिलाओं के साथ होनेवाले सभी तरह के यौन उत्पीड़न संबंधी मामलों के निपटारे के लिए सभी निजी और सार्वजनिक कार्यालयों में यौन उत्पीड़न शिकायत कमेटी का गठन किया जाना ज़रूरी हो गया है और उसकी प्रमुख का महिला होना भी आवश्यक है।
-स्रोत : क्रिमिनल प्रोसिजर कोड