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पकड़ुआ बियाह एक सामाजिक कुरीति है, कोई समानता का आंदोलन नहीं

आदिकाल से ही सामाजिक कुरीतियां सामाजिक बदलाव का कारण बनी हैं। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ समाज में ही आंदोलन होते रहे हैं, बिहार में भी इस तरह के कई आंदोलन होते रहे हैं। यह सच है कि ऐसे आंदोलन ने अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है, मगर इस कड़ी में कई ऐसी घटनाएं भी घटी जिसने सामाजिक स्तर को और नीचा ही किया है। किसी भी आंदोलन का अच्छा और बुरा पहलू रहा है, मगर कई दफे बुरे पहलू ने आंदोलन की महत्ता ही समाप्त कर दी और समाज को और गर्त में ले जाने का काम किया है।

ऐसा ही एक आंदोलन (इसे जबरन आंदोलन कहना ज्यादा उचित होगा) है नब्बे के दशक में बिहार में शुरू हुआ ‘पकड़ुआ बियाह’ (या फोर्स्ड मैरेज)। समाज में फैली भयानक विषमता इसकी शुरुआत का मुख्य कारण थी, पकड़ुआ बियाह सामाजिक विषमता और अमीर-गरीब के बीच एक विशाल खाई का ही परिणाम था।

पकड़ुआ बियाह के तहत लड़कों को जबरन अगवा कर बंदूक की नोक पर उनकी शादी किसी लड़की से करवा दी जाती थी। लड़कों को अगवा कर उनकी शादी करवा देने का खौफ एक समय इतना बढ़ गया था कि लोग अपने लड़कों को दूसरे गांव भेजने तक से डरते थे। इसकी एकमात्र उपलब्धि (हालांकि यह तरीका पूर्णतया गलत था/है) रही कि सामाजिक विषमता के जनक मर्द अब खुद भी आतंकित थे। यहां लड़कियां लड़कों पर (भविष्य में होने वाले परिणाम को जाने बगैर) भारी थी।

पकड़ुआ बियाह को बिहार में दहेज के खिलाफ विद्रोह के रूप में भी मान्यता प्राप्त थी, मगर दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए पकड़ुआ बियाह जैसा विद्रोह दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे दहेज प्रथा तो नहीं रुकी मगर लड़कियों की ज़िंदगी और भी नर्क हो गई। इसने महिलाओं का सामाजिक दर्जा बढ़ाने के बजाय और घटा ही दिया। पकड़ुआ बियाह मुख्यतः सामाजिक पिछड़ापन और अशिक्षा का एक भयंकर परिणाम था।

दहेज की लगातार बढ़ती डिमांड ने पकड़ुआ बियाह के प्रोत्साहन में अहम भूमिका निभाई। दहेज की रकम ना होने के कारण गरीब घर के लड़कियों के तिरस्कार ने जैसे आग में घी का काम किया। चूंकि हमारे समाज में एक उम्र के बाद लड़कियों की शादी को प्रतिष्ठा का विषय माना जाता रहा है, इसलिए लोगों ने इस प्रतिष्ठा को बचाने के लिए अपहरण जैसे अपराध का सहारा लेकर पकड़ुआ बियाह को ही अंतिम रास्ता समझा।

हाल ही में बिहार में एक इंजीनियर के साथ मारपीट कर ज़बरदस्ती उसकी शादी करवा दी गई, मना करने पर उसकी पिटाई भी की गई। चार लोगों ने ज़बरदस्ती उसे उठाकर शादी के रस्मों में शामिल करवाया। ऐसा करते वक़्त उसकी आंखों में खौफ साफ-साफ देखा जा सकता था। अब सवाल यह है कि क्या यह दांपत्य जीवन सुखी हो पाएगा? क्या लड़का उस लड़की को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर पाएगा? क्या दोनों पति-पत्नी के रूप में हंसी-खुशी अपना जीवन-यापन कर पाएंगे?

पकड़ुआ बियाह के बाद लड़की को ज़बरदस्ती लड़के के साथ ससुराल भेज दिया जाता है, ज़ाहिर है कि ससुराल वाले उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। ऐसे में लड़की को ना पति अपनाता है और ना ससुराल वाले। इस हालत में शादी उसके लिए किसी नरक के दरवाजे खोल दिए जाने जितना भयावह हो जाती है।

कई दफा वर पक्ष का इंकार भी पकड़ुआ बियाह का कारण बनता है। लड़का अगर ऊंची जाति या अमीर घर से है और किसी निचली जाति या गरीब घर की लड़की से प्यार करता है तो उसके घरवाले उस लड़की से उसकी शादी करवाने को राज़ी नहीं होते। ऐसे में लड़के के कुछ रिश्तेदारों की मदद से पकड़ुआ बियाह को अंजाम दिया जाता है, लेकिन शादी के बाद अंजाम लगभग एक जैसा ही होता है। ससुराल आने के बाद लड़की को दी जाने वाली मानसिक व शारीरिक यातना कई बार अत्यंत वीभत्स हुआ करती है।

ऐसी शादियों के सफल होने की गुंजाइश अत्यंत कम होती है। कुछ मामलों में शारीरिक संबंध की ज़रूरतें ऐसी शादियों की संभाल लिया करती हैं, मगर जिस दांपत्य जीवन की नींव शारीरक संबंध पर ही टिकी हो, उसे शादी का दर्जा देना अनुचित होगा। कई दफा समाज के दवाब व अपनी प्रतिष्ठा बचाने के चक्कर में लड़की को ससुराल वालों द्वारा ऊपरी मन से स्वीकार कर लिया जाता है, मगर ऐसे में लड़की ससुराल में महज़ नौकरानी और शारीरिक भोग की वस्तु भर बनकर रह जाती है। कुछ मामलों में देखा गया है कि जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब लड़की को बहू का दर्जा मिल जाता है, मगर लड़की के उन सालों का ज़िम्मेदारी कौन लेगा जिसमें उसने नरक झेला? लड़का पक्ष से ज़्यादा इसके लिए लड़की पक्ष ज़िम्मेदार होता है।

इतने सालों में कुछ नहीं बदला, बिहार सरकार द्वारा ‘दहेज मुक्त बिहार’ की घोषणा की गई, मगर दहेज प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। सामाजिक ढांचा बदला है, लेकिन बहुत कम।

पकड़ुआ बियाह के मामले फिर से सामने आने लगे हैं। हाजीपुर के आसपास के एक गांव में ऐसे लगातार तीन मामले सामने आए हैं, अन्य जगहों से भी खबरें आ रही हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर लड़कियों के जीवन से खिलवाड़ अब भी जारी है। शादी जैसे पवित्र उत्सव को मातम बनाने का धंधा खूब फल-फूल रहा है।

सामाजिक विषमता और कुरीतियों के खिलाफ यह कैसा विद्रोह है? हमारी सामाजिक सोच तमाम दावों के बावजूद संपन्न नहीं हो पा रही है, बदलाव ज़रूरी है लेकिन इस कीमत पर नहीं।

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