क्या भारत न्यू इंडिया की बात करते करते पौराणिकता की तरफ चुपचाप कदम बढ़ा रहा है ?या फिर समाज को मनुवाद की तरफ ले जाने की कोशिश हमारे कट्टरपंथी राजनीतिक पार्टियां और संगठन कर रहे हैं ?
काफी समय पहले प्रख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक गांधी के बाद भारत पढ़ी। उसका एक प्रसंग आज के समय मे भी काफी प्रासंगिक प्रतीत हो रहा। उसमे वो एक घटना का जिक्र करते हैं जिसमे राजपूत समुदाय दलितों के साथ मारपीट और दंगा फसाद सिर्फ इसलिए करता है, क्योंकि अम्बेडकर की जयंती पर उन लोगों ने अम्बेडकर की मूर्ति को हाथी पर बैठाकर घुमाया था। जो सवर्णों को नागवार गुज़रा क्योंकि हाथी की सवारी का अधिकार सिर्फ सवर्णों के लिए ही आरक्षित था, दलितों के लिए नहीं। भले ही वो सिर्फ एक मूर्ति ही हो।
ये घटना आज़ादी के कुछ समय बाद की थी, इसलिए बहुत ज़्यादा आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन बीते एक-आध सालों में जिस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर दलित विरोधी चीज़ें हुई हैं वो ये सोचने पर मज़बूर कर देती हैं कि क्या वाकई हम इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं?
- ऊना की घटना मानवता को शर्मशार करने वाली ही है , जिसमें दलित युवकों को नंगा कर पीटा गया।
- फिर उसके बाद भीम आर्मी परिदृश्य में आई। वहां भी दलितों के एक जुलूस की वजह से ही दंगा हो गया।
- अब साल के शुरुआत में ही भीमा कोरेगांव में दलितों के आयोजन पर पत्थरबाज़ी करने से हुई।
सोचने वाली बात ये है, क्या सिर्फ सवर्णों की ही अस्मिता होती है? दलित अस्मिता की बात करना क्या गलत है? भीमा कोरेगांव युद्ध की 200 वीं वर्षगांठ पे एकत्रित हुए दलितों के समारोह में पत्थरबाजी की क्या आवश्यकता? एक तो हज़ारों सालों से जिस जाति को नीच बता कर उसका शोषण करते रहे हैं, अगर वो अपनी एक जीत का जश्न मना रहे हैं, तो ये भी मनुवादियों से हजम नही हो रहा है और बातें हिन्दू एकता की?
वो एक अलग बात है कि चुनाव के समय उन्हीं दलितों के घर खाना खाया जायेगा। आंबेडकर का गुणगान शुरू होगा और दुनियाभर का दिखावा चालू। और चुनाव बीतते ही वही नेता अम्बेडकर को गाली देने लगेंगे। दलितों के शांतिपूर्ण सम्मलेन को भी वो सवर्ण अस्मिता पर चोट की तरह लेंगे।
कुल मिलाकर भारत अब पौराणिक युग में प्रवेश करके ही रहेगा। जिसमें सारे अधिकार सिर्फ सवर्णों के लिए आरक्षित होंगे। और दलितों को सिर्फ सेवा ही करनी पड़ेगी। शायद मोदी जी का यही नई इंडिया है। और इस पूरे प्रकरण पर आप प्रधानमंत्री की किसी टिप्पणी का इंतज़ार मत करिये क्योंकि फिलहाल कहीं कोई चुनाव नहीं है।
भारत वर्ष के लोग कब भारतीय बनेंगे? कब तक ब्राम्हण और ठाकुर बने रहेंगे? कब तक दलित और मुस्लिम रहेंगे? शायद आप भी वही जवाब देंगे जो मेरे दिमाग में है? फ़िलहाल तो नहीं ! क्योंकि खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को नीचा दिखाने की नीच परम्परा की शुरुवात जो हो चुकी है।