कथित हिन्दी पट्टी के लोगों और सिनेमा के बीच के रिश्ते को लेकर पिछले कुछ सालों का मेरा कुछ ऑब्ज़र्वेशन रहा है, जो यहां साझा कर रही हूं। इन लोगों के मन में हिंदी सिनेमा के लिए कितनी ‘अधिक श्रद्धा’ और हिंदी सिनेमा से जुड़े अपने इलाके के किसी व्यक्ति के प्रति कितना ‘अपार स्नेह’ है इसका पता आपको तब लगेगा जब इस पट्टी के किसी इलाके का कोई भी, किसी सिनेमा प्रोजेक्ट का छोटे से छोटा हिस्सा भी हो। मसलन पटकथा, संवाद, गीत-संगीत या कैमरा उनके ज़िम्मे हो। अभिनय के अतिरिक्त सिनेमा की अन्य जिम्मेदारियों को महत्व देने वाला यह रुझान अपेक्षाकृत बहुत नया है। अभिनय की तो बात आज भी जुदा है, जब यह उनके जिम्मे हो तो ये लोग बावले हुए जाते हैं।
नये रुझान के बतौर कुछ हद तक यही बावलापन अब निर्देशन को लेकर भी दिखता है। मेरे खयाल से इस स्नेह और बावलेपन की शर्त सिर्फ इतनी है कि फिल्म मुख्यधारा के अनुकूल होनी या लगनी चाहिए। उदाहरण के लिए पिछले कुछ वर्षों में रिलीज़ हुई फिल्मों ‘गैंग्स ऑफ वास्सेपुर’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘डॉली की डोली’ और ‘अनारकली ऑफ आरा’ के नाम लिये जा सकते हैं, जिनमें इस पट्टी के लोगों की किसी न किसी रूप में उल्लेखनीय भागीदारी रही है। मुख्यधारा से हटकर बनायी गयी बेहतरीन फिल्मों पर यह बात शायद ही लागू होती है!
मेरा ऑब्जर्वेशन सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाओं पर आधारित है। कम से कम यहां ऐसी फिल्मों को हिट कराने की भावुक अपील करते हुए इन लोगों के अपडेट्स चारों तरफ दिखाई पड़ने लगते हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि इस तरह के भावुक अपडेट्स करने वाले अधिकांश लोग सिनेमा से जुड़े इन लोगों के साथ अपना करीबी रिश्ता होने का भी दावा करते हैं। मसलन मेरे बड़े भाई, मेरे अग्रज, मेरे सीनियर, मेरे दोस्त, वर्षों एक ही मोहल्ले में रहने वाले, मेरे सहपाठी, मेरे हमखयाल, एक ही चाय की गुमटी पर बहस करने वाले वगैरह-वगैरह। कुछ और नहीं तो इनके बीच इनकी ‘हिंदी’ वाली पहचान का एक रिश्ता तो जुड़ता ही है।
संभव है कि यह इन लोगों की सांस्कृतिक विशेषता हो, लेकिन दुखद रूप से कई बार प्रशंसा का यह खेल चाटुकारिता के निचले स्तर तक पहुंच जाता है। मैं जितना समझ पायी हूं, वह यह है कि इस तरह की अपीलों में उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों के वे लोग बराबर शरीक होते हैं, जिनके पठन-पाठन, विमर्श, बहस और मनोरंजन की दुनिया हिंदी में खुलती है और जिनकी खुद की दृष्टि में उनकी मातृभाषी अस्मिता अपेक्षाकृत कमज़ोर है या यूं कहिये कि नगण्य है!
यह बुरा नहीं है कि आप किसी फिल्म की जानकारी साझा करें, उसके प्रति अपनी रूचि प्रदर्शित करें, लेकिन यह तो नहीं होना चाहिए कि किसी फिल्म के प्रदर्शन से पहले ही उसकी महिमा मंडन का तूफान ला खड़ा करें, वह भी व्यक्तिगत कारणों से!
मेरी चिंता का विषय यह है कि इस तरह की भावुक एकता ने हिंदी सिनेमा के बड़े दर्शक वर्ग विशेषकर हिंदी पढ़ने-लिखने वाले दर्शक वर्ग की अभिरुचियों को विकृत होने देने में अच्छी-खासी भूमिका निभाई है। आश्चर्य होता है कि सिनेमा के इन प्रेमियों के लिए भोजपुरी सिनेमा फूहड़ हो सकता है, लेकिन उसके उत्थान की चिंता उनके मन में नहीं के बराबर होती है। इसी तरह पड़ोसी भाषा बांगला की समृद्ध सिनेमाई परम्परा के रहते भी मैथिलों को सामान्यत: यह रश्क नहीं होता कि वह अपने ही पड़ोसी के आगे हाथों की ऊँगलियों पर गिनने लायक फ़िल्में लेकर खड़े हैं और उनमें भी उल्लेखनीय फ़िल्मों का सख्त अभाव है। अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, कुमाउँनी, गढ़वाली, राजस्थानी आदि भाषाओं में भी सिनेमा निर्माण की गंभीर पहलकदमी की कोई आहट नहीं सुनाई देती। कोई भी सिनेमा दर्शकों के दम पर चलता है, लेकिन मेरी जानकारी में लोक-लुभावन अपवादों को छोड़कर, क्षेत्रीय सिनेमाओं के लिए ठीक से सिनेमा हॉल तक उपलब्ध नहीं होते!
यूं तो हिंदी सिनेमा के स्टारडम से पूरा देश प्रभावित है, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि कथित हिंदी पट्टी, इसके चकाचौंध से सर्वाधिक चुंधियाई हुई है। यही कारण है कि दशकों तक शत्रुघ्न सिन्हा बिहारी बाबू बनकर बिहार के लोगों की सिनेमाई आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते रहे। इसी तरह अमिताभ बच्चन उत्तर प्रदेश की कला और संस्कृति के लिए कितना योगदान दे सके नहीं पता लेकिन उत्तर प्रदेश के लोगों ने उन्हें हमेशा सर-आँखों पर बिठाए रखा और उनपर नाज़ करते रहे। जबकि ऐतिहासिक तथ्य यह है कि पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्र जैसे प्रदेश, जहां से आये लोगों ने हिंदी सिनेमा को सर्वाधिक योगदान दिया, वहां आज भी उम्दा क्षेत्रीय सिनेमा का समानान्तर विस्तार है, और क्षेत्रीय कलाकारों के प्रति बहुत सम्मान और प्यार भी है।
हो सकता है कि पिछड़ेपन के शिकार कथित हिंदी प्रदेशों के लोग हिंदी सिनेमा में अपने प्रतिनिधित्व के माध्यम से अपने ढुलमुल आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे से निकास की कोई फैंटसी रचते हों! अपनी ही कला और संस्कृति को अपनी ही हीनताबोध के कारण नष्टप्राय कर देने के बाद हिंदी सिनेमा के बड़े पटल पर अपने प्रतिनिधित्व के माध्यम से मानो वे अपना महत्व, अपना कौशल साबित करना चाहते हों, लेकिन फैंटसी तो आखिर फैंटसी ही है!
यदि यहां के लोग अपने क्षेत्र की वास्तविक समस्यायों की पहचान कर उनके खिलाफ इसी भाईचारे और एकता के साथ मोर्चा खोल लें, तो इन प्रदेशों की तकदीर बदल सकती है।