प्रिय अफराज़ुल,
बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा, तुम पर जुल्म की इंतेहा हो रही थी। तुम्हारा दुबला-पतला शरीर, तुम्हारे मज़दूर होने का परिचय था। शायद तुम्हारे पास तुम्हारी मज़दूरी का औजार भी था, वही औजार जिससे तुम्हें मार डाला गया। तुम उस ज़ुल्म को रोकने की कोशिश भी कर रहे थे लेकिन तुम्हारा कातिल तुम्हें डरा रहा था, वह तुम्हें धमका रहा था। तुम्हारी ‘ऐ बाबू, ऐ बाबू’ की आवाज़ मुझे आज भी सुनाई दे रही है। मैं इस आवाज़ को सुनकर भयभीत हूं, मैं इतना कमज़ोर हो चुका हूं कि अब मैं अपना परिचय देने में भी सक्षम नही हूं।
उस वक्त तुम शायद रोज़गार की तलाश में थे, तुम मुख्य सड़क से हटकर पैदल चले जा रहे थे, जहां मज़दूरी के माध्यम से ही सही लेकिन रोज़गार प्राप्त किया जा सकता है। शायद जब तुम्हारे कदम उस ज़मीन की ओर बढ़ रहे थे तो तुम्हारे ज़हन में ये नहीं रहा होगा कि तुम्हारा मज़हब क्या है? या तुम कहां से आए हो? तुम्हारे ज़हन में कहीं भी कोई डर नही था, तुम्हारे कपड़े और तुम्हारी चाल सब सामान्य था, हां इसमें उस गरीब भारत के दर्शन ज़रूर होते थे जिसका जीवन, अपनी मूलभूत सुविधाओं रोटी, कपड़ा और मकान तक ही सीमित रह जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति तुम्हारे पीछे चल रहा था, उसका अंदाज़ किसी फिल्म के एक्टर की तरह था जिसे पता था कि उसका अगला सीन क्या होगा। उसे पता था कि उसे क्या बोलना है और क्या करना है, वह पूरी तैयारी के साथ आया था। उसके कपड़ों में सफाई झलक रही थी, ऐसा लग रहा था कि जैसे अभी वो नये कपड़े पहनकर सड़क पर उतरा है। उसे इस बात का बखूबी अंदाज़ा था कि उसे बेशुमार शोहरत मिलने वाली है और उसका नाम किसी नायक की तरह पुकारा जाएगा। शायद इसी कारण वो पेट्रोल साथ में लिए घूम रहा था, उसका हथियार उसके पास था। उसे बस तलाश थी तो एक शिकार की।
सबसे ज़्यादा भयभीत करने वाली चीज़ थी- तुम्हारा कातिल। वो तुम्हारे पीछे चल रहा था। ना उसके पैर लड़खड़ा रहे थे और ना ही वह घबराया हुआ था। उसे कानून, अदालत, संविधान, सरकार या किसी भी अन्य व्यवस्था का डर नही था, जो हमारे देश में एक व्यक्ति को जीने का अधिकार देती है और उसकी रक्षा भी करती है। उसे पता था या हो सकता है कि उसे बताया भी गया हो कि 1984, 2002, यहां तक कि साल 2015 के बाद मारे गए अखलाक, पहलू खान, जुनेद के सभी आरोपियों के साथ कानून सख्ती से पेश नही आता। वहीं दूसरी तरफ, इन सभी हत्याओं के आरोपियों का अब सामाजिक कद बढ़ गया है, समाज इन्हे स्वीकार करने के साथ साथ, इन्हे अपना नेता भी बना रहा है।
सही मायनों में ये केवल तुम्हारा कत्ल नहीं था, ये मेरा और हर उस व्यक्ति का कत्ल था जो समाज का निर्माण करता है। ये उस विश्वास का कत्ल था जिसके कारण तुम एक अजनबी के साथ जाने से नहीं डर रहे थे, ये उस रोज़गार का कत्ल था जिसकी तुम तलाश कर रहे थे और सबसे अहम कि ये उस पहचान का कत्ल था जो तुम्हारे नाम से ज़ाहिर होती है।
अफसोस कि हमारे सामाजिक ढांचे की संवेदनाएं तुमसे जुड़ ना पाई। तुम्हारे नाम की तख्ती लेकर लोग सड़क पर नहीं आए और तुम्हारी मौत के बाद तुम्हारे परिजन इंसाफ के लिए टकटकी लगाए देखते रहे।
तुम्हारा कत्ल दो विचारधाराओं के बीच का घमासान था। तुम गरीब थे, मेहनती थे, एक बेहतर नागरिक थे जो कहीं से भी कानून व्यवस्था के लिए कोई खतरा नहीं था। दूसरी तरफ वो विचारधारा थी जो संविधान और कानून व्यवस्था के मानने से इनकार करती है।
ये वो विचारधारा है जो खुद अदालत होने का अहम अपने अंदर पाल बैठी है, ये दु:खदाई है कि समाज की संवेदना भी इस कानून विरोधी विचारधारा से जुड़ रही है। अफराज़ुल, तुम्हारी मौत सही मायनों में इस समाज की, इस देश की और हमारे लोकतंत्र की मौत है।
मैं शर्मिंदा हूं कि तुम्हारे कत्ल पर लोग खामोश हैं, लोग आवाज नहीं उठा रहे हैं और शायद इनमें मैं भी शामिल हूं। मैं अपने भीतर ही कहीं ज़ोर से चिल्ला रहा हूं लेकिन मेरी आवाज़ बाहर नही आ रही है। मैं तुम्हारी मौत से डर गया हूं, आज मुझे फिर इस बात का एहसास हो रहा है कि मैं भी एक अल्पसंख्यक हूं और तुम्हारी तरह मेरी ज़िंदगी भी बहुसंख्यक समाज की दया पर ही निर्भर है।