बहुत धुंधला-धुंधला सा याद है कुछ, मैं दो से तीन बरस का भी नहीं था, स्कूल जाना शुरू नहीं किया था। पापा ऐसे तो रोज़ाना सवेरे ही अपने क्लिनिक के लिए निकल जाते थे पर कभी-कभी बीच बीच में वो ‘अच्छे दिन’ आते थे जब वो घर पर रहते थे। कई रोज़ वो दिन भर हमारे साथ खेलते थे। ज़्यादा समझ तो नहीं थी पर इतना पता था कि वो कर्फ्यू के दिन होते थे।
जब दो तीन दिन कर्फ्यू को हो जाते थे तो ढील मिलती थी। एक त्यौहार का सा मौसम होता था। सारा मौहल्ला बाहर निकल आता था। पापा के साथ मैं भी निकलता था, दूध की गाड़ियां आती थी और कुछ देर बाद ही पुलिस की एक जीप ऐलान करते हुए निकल जाती थी कि कर्फ्यू में ढील ख़त्म हो गयी।
पापा-मम्मी टीवी देखकर, रेडियो सुनकर और अखबार पढ़कर अक्सर किसी बाबरी मस्जिद की बातें किया करते थे। इसी दौर में मेरा दाखिला भी कराने की ज़रूरत पड़ी तो तय हुआ कि स्कूल पास होना चाहिए ताकि कर्फ्यू की स्थिति में एकदम लाया जा सके।
तब इतना नहीं पता था कि तारीख़ क्या है पर आज भी याद है उस दिन सब बहुत परेशान थे, हम बच्चे खेल रहे थे। पास पड़ोस के सब ही लोग बाहर खड़े बात कर रहे थे कि बाबरी मस्जिद ‘शहीद’ हो गयी। सब में एक गुस्सा था लेकिन उस से भी कहीं ज़्यादा डर था जो कि उस छोटी सी उम्र में भी हमको समझ आ रहा था।
आज मैं जानता हूं ये दिन 6 दिसम्बर, 1992 का था और वो दिन पंथनिर्पेक्ष भारत के लिए एक काला दिन था। लेकिन ये कोई एक घटना नहीं थी जो कि कुछ घंटो में घट गयी, जिसका भूत और भविष्य से कोई रिश्ता ना हो। ये परिणाम था एक अरसे से चली आ रही राजनीतिक विफलताओं का। और ये परिणाम भी नहीं हैं ये निरंतर घटित हो रही है।
ये आज के समय की एक आम धारणा है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), विश्व हिन्दू परिषद् (वीएचपी), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) आदि संगठनों ने ही मुस्लिम विरोधी माहौल इस देश में बनाया है। भाजपा और वीएचपी ने लाल कृष्ण आडवाणी और अशोक सिंघल के नेतृत्व में जो राम मंदिर आन्दोलन चलाया वही कारण था भारत में होने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगों का भी और बाबरी मस्जिद के ‘शहीद’ होने का भी। जबकि कांग्रेस को इस आरोप से मुक्त रखा जाता है।
आज के समय में कुछ बातों पर ध्यान देना और तब कि घटनाओं को इतिहास के चश्मे से देखना ज़रूरी है। आमतौर पर जब भी बात होती है बाबरी मस्जिद की तो ज़िक्र अयोध्या, बाबर, रामजन्मभूमि, 1949 में श्री राम की मूर्ति स्थापना, 1986 के ताला खुलने और 6 दिसम्बर के इर्द गिर्द ही होती है। लेकिन इसके अलावा बहुत से बिंदु हैं जिनको देखना ज़रूरी है।
भारत में 1952 से आम चुनाव होना शुरू हुए और नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने। शुरू में देश की प्रगति और विकास ही काफी मुद्दे थे चुनाव लड़ने के लिए। नेहरू के समय में विकास एक ज़रूरी मुद्दा था, देश को आत्मनिर्भर और स्वावलम्बी बनाना है यही नारे वोट बटोरने को काफी थे। 1962 का युद्ध हुआ और फिर 1965 का, लगभग इसी समय देश अनाज की किल्लत से भी गुज़र रहा था। ऐसे में बागडोर लाल बहादुर शास्त्री के हाथ आई और राजनितिक मुद्दा जवान और किसान हो गये। उनके बाद इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ के नारे के साथ आईं। इस सब के दौरान विपक्ष भी लगभग इन्हीं मुद्दों पर राजनीति करता आ रहा था।
परन्तु 80 के दशक में कुछ बदलाव आने शुरू हुए। पंजाब में भिंडरावाले के नेतृत्व में खालिस्तान की मांग उठने लगी, इस आन्दोलन को पाकिस्तान का पूरा समर्थन हासिल था, और अमेरिका से सोवियत रूस के विरुद्ध मिलने वाले हथियारों में से ही इधर भी भेजे जा रहे थे। लेकिन यहां भारत सरकार और उस समय के मीडिया ने इस आन्दोलन को सिख धर्म से जोड़ दिया। ये पहली कोशिश थी भारत के अन्दर किसी धर्म के सभी लोगों को आतंकवादी कहने की, मुसलमानों पर तब तक गद्दार होने का आरोप लगता रहा था पर सिख आतंकवादी कहलाने लगे। इसी बीच 1984 में इंदिरा ने सेना को स्वर्ण मंदिर में घुसने के आदेश दिये। स्वर्ण मंदिर में टैंक घुसे, बम चले और भारी नुकसान हुआ। ध्यान रहे सिखों के लिये स्वर्ण मंदिर का वही स्थान है जो कि मुसलमानों के लिए काबे का, हिन्दुओं के लिए जगन्नाथ पुरी का, और इसाईओं के लिये वेटिकेन का होता है।
इंदिरा गांधी से बदला लेने की भावना के साथ उनके अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी। उसके बाद जो हुआ वो सब जानते हैं। देश भर में सरकारी सरंक्षण के साथ सिखों का कत्लेआम हुआ। दिल्ली में ही तीन हज़ार से ज़्यादा सिखों की हत्या कर दी गयी। इसके एकदम बाद हुए आम चुनाव में राजीव गांधी को ऐतिहासिक बहुमत मिला। और ये थी शुरुआत भारत के इतिहास के उस दौर की जिसमें की राजनेता ये जान चुके थे कि धर्म के नाम पर जनता को लड़ाया भी जा सकता है और चुनाव भी जीती जा सकती है।
देश की जनता ने अपने ही सिख भाई और बहनों की लाशों पर राजीव को प्रधानमंत्री बनाया। और इस कत्लेआम को एक प्रतिक्रिया कह कर सही साबित करने की जो कोशिश हुई वही 2002 में गुजरात में भी दोहरायी गयी। भारत में धर्म के नाम पर वोट बटोरने की नींव पड़ चुकी थी।
ज़ाहिर है कि ये सब बाकी नेता और पार्टियां भी देख रहीं थी। राजीव ने इस समय शाह बानो केस पर जो कानून बदलने का फैसला लिया उस से भारत के आम मुसलमानों को न तो शिक्षा में कोई फायदा होना था न रोज़गार में। हां ये ज़रूर हुआ कि हिन्दू और मुसलमानों में दूरियां बढ़ गईं। कट्टरपंथी हिन्दू संगठन मुसलमानों के तुष्टिकरण का आरोप लगाने लगे और एक धारणा कायम की जाने लगी कि सरकार मुसलमानों की तरफदारी करती है और हिन्दुओं के हक छीन कर उनको दिए जा रहे हैं।
और अपने हिन्दू वोटबैंक को संभालने के लिये राजीव गांधी सरकार के समय में ही 1949 से बंद पड़ी बाबरी मस्जिद का ताला पूजा के लिये खुलवा दिया गया। भाजपा और वीएचपी ने इसको मुद्दा बनाना शुरू कर दिया। ये वर्ष 1986 की बात है।
देश में जगह-जगह दंगें होने लगे थे, दूसरी ओर पंजाब जल रहा था। सरकार के लिए ज़रूरी था कि उधर भारतीय जनता का ध्यान ना जाए। श्रीलंका में भी सेना को भेजना एक अच्छा कदम साबित नहीं हो रहा था, ऐसे में राजीव सरकार को भी हिन्दू मुस्लिम झगड़ों से एक राहत ही मिल रही थी। मेरठ में हुआ हाशिमपुरा गोलीकांड कॉंग्रेस की इस नीति का हिस्सा माना जा सकता है।
भाजपा आडवाणी, जोशी और अटल के नेतृत्व में इस मौके को भुनाने में लगी थी। उसने खुद को हिन्दू हितों के रक्षक के रूप में पेश करना शुरू कर दिया था।
1989 में आम चुनावों का प्रचार शुरू करने के लिये राजीव ने अयोध्या को चुना। उन्होंने नारा दिया कि वो ‘रामराज्य’ की स्थापना करेंगे। हिन्दू धार्मिक मिथक का प्रयोग राजनीति में शुरू हो चुका था। राजीव एक बार फिर 84 का जादू दोहराना चाहते थे, पर ये हो ना सका।
भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग के नारे के साथ वी.पी.सिंह प्रधानमंत्री बनने में सफल रहें। लेकिन हिन्दू हितों के नारे के साथ भाजपा अपनी सीट 1 से बढ़ाकर 88 करने में कामयाब रही। धर्म के नाम पर वोट मिल रहे थे, इस बीच वी.पी.सिंह मंडल कमीशन ले आएं। पिछड़ी जातियां ऊंची जातियों के हाथ से निकल जाएंगी ये डर सताने लगा। ऐसे में ज़रूरत थी एक ऐसे दुश्मन की जिसके खिलाफ सारे हिन्दुओं को एकजुट किया जा सकता। मुसलमानों से आसान कौन था? राम मंदिर की मांग वीएचपी और भाजपा उठाने लगे। इस आन्दोलन में पिछड़ी जातियों को प्यादे के रूप में इस्तेमाल किया गया।
आम हिन्दू जनता को एक ख़याली दुश्मन दिखाया गया। बाबर के रूप में उनको डराया गया कि यदि इनको ना मारा गया तो ये तुम्हारे घरों पर मंदिरों पर कब्ज़ा कर लेंगें। ये डर का माहौल था, हिन्दू को मुसलमान से और मुसलमान को हिन्दू से डरना था। और यही हुआ।
देश में एक धर्म की भीड़ दूसरे धर्म को मर रही थी इसलिए नहीं कि वो ताकतवर थी बल्कि इसलिये कि उसको डर था कि कहीं ये हम पर हावी न हो जाएं। बाबरी मस्जिद मुसलमानों द्वारा किये गये कथित ज़ुल्मों का प्रतीक बनी और उसको तोड़ना एक समुदाय के लिए बदला लेने जैसा प्रचारित किया गया।
सितम्बर 1990, आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की पर उनको बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ कारसेवक अयोध्या पहुंचे और जब उन्होनें मस्जिद तोड़ने की कोशिश की तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के आदेश पर पुलिस ने गोली चला दी जिसमें कई कारसेवक मारे भी गये। 1991 में इसके बाद हुए चुनावों में धर्म की राजनीति का फायदा साफ़ दिखा। भाजपा 125 सीट जीती और उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
6 दिसम्बर 1992, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री। सुप्रीम कोर्ट की इजाज़त पर कारसेवक 6 दिसम्बर को कारसेवा के लिए 30 नवम्बर से इकठ्ठा होना शुरू हो गये थे। यहां पर ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि कारसेवा की इजाज़त कोर्ट ने दी थी इस शर्त के साथ कि प्रदेश सरकार मस्जिद को कोई नुकसान नहीं होने देगी। और दूसरी ओर कल्याण सिंह ये घोषणा कर चुके थे कि वो किसी भी हालत में कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश नहीं देंगे। आडवाणी, अटल, उमा भारती आदि सभी बड़े भाजपा नेता इस आंदोलन का और बाबरी मस्जिद को गिराने का हिस्सा थे।
कल्याण सिंह ने कोर्ट से किये अपने वादे को नहीं निभाया और इस्तीफा दे दिया। प्रदेश की जनता ने 1993 में हुए चुनाव में 10 महीने बाद ही भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को झटका दिया और सत्ता से बाहर कर दिया। उसके बाद आजतक प्रदेश में वो पूर्ण बहुमत ना पा सके। पर ये घटना देश के मुस्लिम समाज को ही नहीं हर एक कानून में भरोसा रखने वाले नागरिक के लिए ये बहुत ही झंकझोर देने वाला वाकया था।
मुस्लिम समाज हो या हिन्दू समाज या सिख समाज अंततः भारतीय नागरिक हैं और हम सबकी समस्या एक ही हैं, अच्छी शिक्षा, रोज़गार, बेहतर चिकित्सा सुविधाएं, और कानून व्यवस्था। वरना तो आने वाले समय में भी बचपन की यादें कर्फ्यू और दंगे ही होंगे।