आज सुबह उठने के बाद अचानक मन में आया कि आज ऐसे स्कूल में जाएंगे जहां अभी तक हमारी विज़िट नहीं हुई हो। उसी वक्त एक शिक्षक का ख़याल आया जिन्होंने करीब दो महीने पहले स्कूल विज़िट के लिए आमन्त्रित किया था। यह नोडल या क्लस्टर स्कूल (संस्था के आदेशानुसार हमारी अधिकतम विज़िट हेड स्कूलो में ही होती है) नहीं है तो क्या हुआ, स्कूल तो है ही। हमारे यहां अगल-बगल के गांवों में स्कूल होने के बावजूद वहां के बच्चे हमारे स्कूल में ही आते हैं।
आज मैं उस स्कूल में पहली विज़िट के लिए गया और शिक्षकों से औपचारिक बातचीत के बाद कक्षा आठ में गया। वहां मैंने बच्चों से जानना चाहा कि वो भविष्य में क्या बनना चाहते है और क्यों? इस दौरान वहां करीब साठ बच्चे मौजूद थे, उनमें से अधिकांश बच्चों ने डॉक्टर और इंजीनियर और एक-दो ने शिक्षक और पुलिस अधिकारी बनने की इच्छा जताई। लेकिन वहां एक बच्चा ऐसा भी था जो इनमें से कुछ नही बनना चाहता था। उसकी सोच इन सभी बच्चों से अलग थी जिसे भौतिकतावाद के इस युग में भी सलाम करने को जी चाहता है।
ऐसा भी नही था कि उसकी सोच में इस भौतिक युग का स्वार्थ नहीं टिका हुआ था, लेकिन उसके निजी स्वार्थ में भी सर्वजन सुखाय की परिभाषा को समाहित करने की शक्ति है। यह शक्ति सिर्फ देने वाले में ही हो सकती है ना कि मांगने वालों में। वह बच्चा कुछ और नहीं बल्कि किसान यानि सबसे बहमूल्य वस्तु अनाज उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी पढ़ाई के बाद उठाना चाहता था।
उसके बताते ही कुछ बच्चे ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे तो उसने कहा, “तुम सब डॉक्टर, इंजीनियर बनोगे तो खाओगे क्या? जवाब में एक बच्चा बोला, “मेरे पास पैसा होगा, खरीद कर कुछ भी खायेंगे लेकिन तुम्हारे पास तो पैसा नहीं होगा। अब तुम सोचो, खाओगे तो ज़रूर लेकिन पहनोगे क्या? वह बाल किसान फिर से बोला “मैं भी पढूंगा और पढ़कर आधुनिक तरीकों से खेती करूंगा, जिससे पैदावार बढ़ेगी और मेरे पास पैसा भी होगा।”
यह केवल उन बच्चों की ही बात नहीं है, माध्यमिक या प्राथमिक स्कूल में पद्धने वाले इन बच्चों की यह समझ तो समुदाय/समाज से ही आई है। आखिर क्या कारण है कि लोग बच्चे को शिक्षा इसलिए दे रहे हैं कि उनके बच्चे को खेती ना करनी पड़े। अच्छी बात है अगर कोई बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर बने लेकिन औरों का क्या?
यहां डॉक्टर और इंजीनियर जैसे प्रतिष्ठित पेशों की तुलना किसानी से करने का मेरा मकसद इन पेशों की अवमानना करना नहीं है। मैं भी एक किसान पुत्र हूं और मुझे लगता है कि डॉक्टर, इंजीनियर और किसान ये तीनो अपने आप मे पूर्ण हैं इनकी तुलना करना मूर्खता भरा होगा। लेकिन ऐसा क्या उन बच्चों के मन मेंये घर कर चुका है कि वो किसान का नाम सुनाने मात्र से हंसने लगते हैं? जो बच्चे ग्रामीण क्षेत्र में ही रहते हैं उसमे से अधिकांश के अभिभावक किसानी ही करते हैं, ऐसे में यह बात उनके मन में बैठ जाना एक सोचने वाली बात है।
मानव सभ्यता के विकास से लेकर वर्तमान स्थिति तक देश में खेती का आर्थिक व सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। खेती को विकास का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ माना गया है। प्राकृतिक संसाधनों पर जनसंख्या का निरंतर बढ़ता दबाव खाद्य सुरक्षा के लिए वर्तमान में एक बड़ा खतरा बनकर उभरा है। ऐसे में किसानों के हित की नीतियां, नई कृषि तकनीक और प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से ही हम सतत विकास की परिकल्पना कर सकते हैं।
भारतीय किसान के संदर्भ में यह कहावत सही चरितार्थ होता है कि “एक बार आकर देख कैसा ह्रदय विदारक मंजर है, पसलियों से लग गयी है आंते खेत अभी भी बंजर है।” अर्थात उनकी स्तिथि इतनी खराब है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ‘भारत कृषि प्रधान देश है’ यह वाक्य बचपन से कितनी बार पढ़ा और कितनी बार सुना, लेकिन अब लगता है कि यह कोई गर्व की बात नहीं है।
कड़ी मेहनत के बाद भी भारतीय किसान की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नही हैं जितनी होनी चाहिए। भारत के लोगों ने जैसे यह मान लिया है कि खेती एक घाटे का काम हैं।
इस सोच को बदलने की ज़रूरत है क्यूंकि इसी सोच के कारण डॉक्टर अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर अपने बच्चों को इंजीनियर तो बनाना चाहते हैं लेकिन एक किसान अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता। आखिर किसान के ही बच्चे किसान क्यो बनें? ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब सरकार को किसान बचाओ खद्यान्न बढ़ाओ जैसे नारों को अपनाना पड़े।
फोटो आभार: flickr