1997 की शुरुआत की बात है तब अहमदाबाद में मेरे कॉलेज का तीसरा और आखरी साल चल रहा था। घर से कॉलेज जाते समय आश्रम रोड पर नेहरू ब्रिज के करीब 3 सिनेमाघर आमने-सामने थे। इनके नाम थे ‘श्री’, ‘शिव’ और ‘नटराज’। एक दिन कुछ सहपाठियो के साथ, बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित फिल्म ‘आस्था’ देखने का प्लान बना। नटराज में लगी इस फिल्म के पोस्टर में मौजूद कलाकार रेखा, ओम पुरी ओर नवीन निश्चल को देखने से फिल्म की स्टारकास्ट का पता चला। लेकिन फिल्म की कहानी पोस्टर से बहुत अलग थी।
मुझे अंदाज़ा भी नहीं था कि फिल्म की कहानी से मैं इतना विचलित हो जाऊंगा कि अगले कुछ दिन, एक महिला के रूप में रेखा का किरदार मेरी आंखों के सामने मौजूद रहेगा जिसके सवालों का जवाब ना मैं दे सकता हूं और ना ही हमारा समाज।
फिल्म की शुरुआत दो मुख्य किरदारों के साथ होती है। अमर की भूमिका में ओमपुरी निभाई है जो मुंबई के एक कॉलेज में प्रोफेसर है। अमर को पहली बार पर्दे पर देखने पर उसकी छवि एक शांत, वैचारिक और सुलझे हुए इंसान की बनती है। वहीं दूसरे किरदार मानसी की भूमिका रेखा ने निभाई है जो अमर की पत्नी है। वह शिक्षित है लेकिन अपने घर तक ही सीमित है लेकिन इसका उसे कोई अफसोस नहीं है। यह एक बेहद ही शांत और मासूम स्त्री का किरदार है, दोनों पति-पत्नी की एक बेटी भी है जिसकी उम्र 8 या 10 साल है।
अमर की आर्थिक स्थिति एक आम मध्यमवर्गीय परिवार की तरह ही है। वो खुद का घर खरीदने से महरूम है और एक मित्र के घर में उसकी गैरमौजूदगी में पुरानी कलाकृतियों का केअरटेकर बनकर रह रहा है। अमर, किताबों से ऊपर उठकर ज़मीनी हकीकत को जानने के प्रयास में निरंतर लगा रहता है, अमर के किरदार की व्यक्तिगत जानकारी का विस्तार फिल्म की कहानी को और मजबूत बना देता है।
कहानी आगे बढ़ती है और अमर, अपने मित्र के साथ दूर-दराज़ के एक मेले में जाता है। इस दृश्य के साथ निर्देशक, बड़ी ही शालीनता से अपनी फिल्म का मकसद छुपे हुए तरीके से दर्शकों के सामने रखता है। फिल्म में यहां एक आदिवासी समुदाय को दिखाया गया है, मुख्यतः गधों पर समान ढोकर अपना गुज़र-बसर करने वाले इस समुदाय की एक अजीबो-गरीब प्रथा हैै जिसमें महिलाओ को बेचने का रिवाज है।
इस मेले में समुदाय की एक पंचायत भी लगी है। पंचायत में एक शिकायत आती है जिसमे बताया जाता है कि दो साल पहले एक व्यक्ति बड़ी रकम देकर इसी समुदाय के एक परिवार से उसकी बेटी को खरीदकर उससे शादी की थी। कुछ कारणवश उसने अपनी पत्नी को दूसरे व्यक्ति के यहां गिरवी रख दिया था। अब डेढ़ साल बाद महिला का पति (जिसने उसे खरीदा था), अपनी पत्नी को लेने आता है तो वह 6 माह की गर्भवती होती है। महिला का पति उसे स्वीकार तो करना चाहता है, लेकिन उसके बच्चे को नहीं। ऐसे मैं जब महिला से उसकी राय पूछी जाती है तो वह सवाल करती है कि जब मुझे एक वस्तु समझ कर खरीदा-बेचा गया तो आज मुझसे मेरी राय क्यूं पूछी जा रही है? कुछ और संवाद के बाद पंचायत उस महिला को दूसरे व्यक्ति के साथ रहने की इजाज़त दे देती है।
फिल्म में इस दृश्य के समानांतर दूसरे दृश्य में मानसी शहर में एक दुकान में अपनी बेटी के लिए महंगे बूट देख रही है, लेकिन पैसों की कमी उसे यह बूट खरीदने से रोक देती है। वहीं एक अन्य महिला बैठी है जो कुछ ही पलों में मानसी को अपनापन दिखाती है और मानसी के ना कहने के बावजूद मानसी की बेटी के लिये बूट खरीद लेती है।
वह मानसी को लंच के लिए एक महंगे होटल के कमरे में ले जाती है, जहां एक शख्श को बुलाया जाता है। मानसी को पता भी नहीं चलता और उसे देह व्यपार में धकेल दिया जाता है। दिन-ब-दिन मानसी, इस दलदल में और गहराई तक धंसती चली जाती है। मानसी, अभी भी अपने परिवार और अमर के प्रति वफादार है और वह इस दलदल से निकलकर, अपनी पुरानी ज़िंदगी में वापस आना चाहती है, लेकिन उसे डर है कि कहीं अमर उसे अस्वीकार ना कर दे।
फिल्म आगे और भी कई मोड़ लेती है और एकदिन अमर के कॉलेज की एक महिला विद्यार्थी के साथ मानसी अपना यह राज साझा करती है। इसी विद्यार्थी की मदद से मानसी अमर को एक नाटक के ज़रिये, अपनी ही तरह एक महिला की कहानी सुनाती है। अमर इस कहानी पर एक सुलझे हुए पति की तरह अपनी राय देता है। फिल्म के अंत में मानसी अपनी परिस्थिति से अमर को वाकिफ करवाती है और हमारे समाज की मानसिकता के विपरीत अमर बिना किसी सवाल के मानसी को अपना लेता है।
फिल्म की शुरुआत में अमर का एक संवाद बहुत बेहतरीन है, इसमें अमर, प्रेम को जान देने, लड़ने और मरने आदि की बातों से परे बताते हुए साथ जीने को प्रेम की परिभाषा बताता है। शायद यही वजह थी कि अमर, मानसी की परेशानी को समझ पाया और मानसी को आगे जीवन में अपने साथ लेकर बढ़ सका।
मानसी की कहानी को समझें तो उसके पास ज़रूरत की सभी वस्तुएं मौजूद थी, लेकिन अपनी पसंद की चीज़ों की कमी वो वजह बनी जिसके कारण वह देह व्यापार में जाने से खुद को रोक नहीं पाई।
आज हज़ारों ऐसी महिलाएं होंगी जो किसी ना किसी कारण देह व्यापार में मौजूद हैं, जहां इनका जिस्म एक वस्तु से ज़्यादा मायने नहीं रखता। इस फिल्म के अमर जैसे किरदार असल दुनिया में बहुत कम मौजूद हैं, जो मानसी को बिना किसी सवाल के अपना लें।
यही वजह है कि महिलाएं चाहकर भी देह व्यपार से बाहर नहीं आ पाती, हमारा तथाकथित शिक्षित और विकसित समाज मानसी को सिरे से अस्वीकार कर देता है।