ग़ज़ल
नहीं पल भर को हम बैठे
कभी आराम से पहले।
जलाती चिलचिलाती धूप थी
इस शाम से पहले।
शुरू तुमसे ख़तम तुम पर
कहानी मेरे जीवन की।
तुम्हारा नाम लेता हूँ
खुदा के नाम से पहले।
नहीं मज़हब लिखूँगा और
नहीं मैं जात लिक्खूँगा;
लिखूँगा ‘आदमी’ सुनलो
खुदा या राम से पहले।
चलन कैसा चला है
दफ़्तरों में देखिये यारो;
चुकानी पड़ती है कीमत
यहाँ हर काम से पहले।
बशर हर एक मुंसिफ़
बन के बैठा है मेरी ख़ातिर।
सज़ा देता है वो ‘मानस’
मुझे इलज़ाम से पहले।
विनोद तिवारी “मानस”