मंटो (सआदत हसन मंटो) की कुछ कहानियां पढ़ी है मैंने, बहुत ही निर्दय सी है। भारत – पाकी स्तान के विभाजन पर उसकी कुछ दास्तानें हकीकत से ज्यादा रूबरू या फिर बहुत कड़वी वास्तविकता है, जिसको पचाना इतना आसान नहीं है।
मंटो को याद करना आज इसलिए भी मुनाफिस है, कयोंकि मंटो ने समाज के बारे मैं जो लिखा है, वो सच्चाई है, कड़वी सच्चाई – गंदी भद्दी सच्चाई।
समाज यदि अपनी शक्ल देख ले तो डर जाये इतनी भयावह है वो।
और आज ये समाज मंटो की कहानियों से भी गंदी शक्ल ले चुका है। उसे दिखाना आज पहले से भी ज्यादा जरूरी हो गया है।
प्यार ,खवाहिसो और कल्पना लिखने से ये समाज अपनी शक्ल नहीं देख पाएगा।
ये समाज अपने वेहशिपना के साथ गूढ़ हो गया है। मानव समाज एक परिष्कृतरूप होना चाहिए था, वो होना चाहिए था।
पर जब हम मनुष्य जाति के इतिहास को टटोलेंगे तो मालूम होता है कि वो नहीं है।
मनुष्यने लिबास पहन लिया है अपने शरीर को ढकने के लीये । वही लिबास उसने खुदसे बने समाज को पहना दिया है, जो अंदर से एक दरिंदा है।
मनुष्य को कभी भी और सजिवो से अपने आप को उच्च जाति नहीं समझना चाहिए। परिस्थिकवादी मनुष्य को विशिष्ट या अलग जाति कहते है, पर में उसे ‘ नीच सजीव ‘ समजता हूं। क्योंकि मनुष्यने दूसरे सजीव को भी अपनी दरिंदगी , वेहशिपाना और लोभ का शिकार बनाया है।
दरअसल, मनुष्यो का इतिहास दरिंदगी से भरा पड़ा है। कहीं भी कोई अच्छाई दिखती है तो मनुष्य ने पूजा है उसे। जैसे कि कृष्ण को पूजा, इसा को पूजा, बुद्ध को पूजा, पैगंबर को पूजा। पर मनष्यने दरिंदगी नहीं छोड़ी। वो उसी दरिंदगी में लिप्त है, और उसे बढ़ा रहा है।
वो ना छोड़ेगा, मनुष्य का स्वभाव नहीं है उसे छोड़ना। वो अपने आदम अस्तित्व से ले के, सभ्य मनुष्य तक दरिंदगी और अपने वहशीपन से पहुंचा है।
जैसे ही मनुष्य, सभ्यता की तरफ बढ़ता गया उसने ज्यादा लिबास पहना दिया खुद को और खुद से बने समाज को। दरिंदगी बढ़ती जा रही है, और बढ़ती ही जाएगी। जितने ज्यादा लिबास ओढेगा उतना ही खुद को छुपाएगा। छुपना ही ,उसकी दरिंदगी दिखाता है।
कौन इस बात से वाकिफ नहीं है कि जो हत्याए कल होती थी आज उनसे कहीं ज्यादा होती है।जो बलात्कार कल होते थे, आज उनसे ज्यादा होते है। छोटी बच्चियों पे, छोटे बच्चो पे बलात्कार हो रहे है। और ये समाज ज्यादा सभ्य हो रहा है !!!!
मैं कहूंगा ये सही नहीं है, पर ये होगा ही। अपनी दरिंदगी छुपाने के लिए ही तो वो ज्यादा सभ्य बनेगा। ये हमें समझ लेना चाहिए कि जितनी ज्यादा दरिंदगी होगी उतना ज्यादा सभ्य समाज होगा।
दरिंदगी को भी एक सीमा में बांधना उचित नहीं होगा। उसके कई रूप है। कोई अपने घर के पास कुढा – कचरा नहीं फेंकता है तो उसका अर्थ ये कतापी नहीं है कि वो कचरा नहीं करता है। वो दूसरी ओर जगह पे फेंकता होगा।
में ये इसलिए कह रहा हूं कि कोई दलील देंगे की पश्चिम के देश सभ्य है और वहां अपराध भी कम है। कोई तो देश है जहां १९६० के दशक से एक खून भी नहीं हुआ है।
दरअसल वो दूसरे देश के लोगो का खून चूस के बैठे है या फिर चूस रहे है, अप्रत्यक्ष तौर पे। और जब उनको खून कम पड़ेगा तो वो प्रत्यक्ष तौर पे यही करेंगे। उसमें शक कि कोई गुंजाइश नहीं है।
नैतकता की बात करने वाले सभ्य देश जलवायु परिवर्तन पे कार्यवाही करने से इतरा रहे है। क्यों भला। वो तो सभ्य है!!!
कौन नहीं जानता अमेरिका और इंग्लैंड कैसे आज विकसित देश बने है। में तो कहूंगा इन देशों ने ज्यादा दरिंदगी छुपा के रखी है, वो कितनी देर तक छुपा के रख पाएंगे और कितनी देर के बाद कब ये दरिंदगी बाहर आयेगी , वक़्त ही बताएगा।
अमरीका मैं ट्रंप का जितना उसी का सूचक दिखता है। ये नहीं भूलना चाहिए हिटलर भी वही सभ्य समाज का प्रतिनिधित्व कर रहा था, जब तक उसकी सच्चाई बाहर नहीं आयी।
सभ्यता की दरिंदगी की आप तुलना भी कर सकते है। अगर आप जंगल में रहते या कम सभ्य आदिवासी से सभ्य समाज की तुलना करते है तो मालूम होता है कि ज्यादा अपराध तो सभ्य समाज ने किया है।!!!
अभी तो मैंने कोई किस्सा पढ़ा की पत्थर तोड़ने वाली आफ़्रीका की औरतों ने अपनी आमदनी का ९० प्रतिशत हिस्सा कटरीना हरिकेन कि आपदा पीड़ितो को दिया। वो कम सभ्य थी ये समझना चाहिए हमें।
हमें ये समजना चाहिए कि, सभ्यता एक छलावा है। अभी भी मनुष्य वही पशुता में जी रहा है। दरअसल पशुता को जीवित रखने के लिए उसने ये सभ्यता का लिबास पहना है।
आप इतिहास खोल के देख लो। वो जातिवाद, असामनता, शोषण से भरा है। पर हम उसे इतिहास नहीं कहते। हम उसे इतिहास कहते है ,जिसमें खयाली पुलाव बनाए गए हो।
भारत की सभ्यता ५००० सालो से चली आ रही है।और हर भारतीय उन पे गर्व करता दिखेगा। पर में कहूंगा ये दरिंदगी ५००० सालो से चली आ रही है। ये तो दुख की बात है कि इतने सालो में उसने उसे रोकने की कोशिश नहीं की। दरिंदगी सेहते गए। बढ़ते गए!!
क्या भारत में हज़ारों सालो से निर्दय कहीं जाये ऐसी अस्पृश्यता और जातिवाद नहीं था ? क्या शोषण और असमानता ५००० सालो से भारत का इतिहास नहीं रही है ? तो कौन सी गर्व की बात हुई। हां ! गर्व ईस बात का हो सकता है कि इसने अपने लिबास में ये सब ईस तरह से समेटे रखा के, इतने सालो में ये दरिंदगी कभी खत्म ही नहीं हुई।
१९वी सदी में ,इंग्लैंडवासीयो अपने आप को ज्यादा सभ्य कहा, क्या उसने एशिया- अफ्रीका के देशों में दरिंदगी नहीं की।बंगाल दुकाल में आधी जनसंख्या भूख से मर गई थी। क्या ये सभ्य समाज की हरकत नहीं थी !!!
में ये फिर जोर दे के कहता हूं सभ्यता छलावा के अलावा और कुछ नहीं है। सभ्यता के लिबास मैं दरिंदगी बढ़ी है। और अगर हम ज्यादा सभ्यता कि तरफ बढ़ते जायेगे तो ये सही नहीं होगा।
सभ्यता को समझना जरूरी है, सभ्यता जिसे सभ्य समाज सभ्यता कहता है।और उसे अच्छाई से जोड़ता है।ये जिस सभ्यता की बात करते है उसे अच्छाई से जोड़ना भूल होगी। ये कतई हो नहीं सकता।
मनुष्य ने पशुता कभी छोड़ी ही नहीं। और ना ही कभी छोड़ पायेगा। जिस सभ्यता कि आप बात करते है उसमे तो ये और बढ़ेगी।
मनुष्य सुख शांति से जिये , एक आदमी दूसरे को मारे नहीं, हत्याएं ना हो, किडनैपिंग ना हो। तो ये हो नहीं सकता।
ईस समाजिक ढांचे की तहत नहीं हो सकता।
मनुष्य ने अपनी दरिंदगी के इतिहास से ये ढांचा बनाया है, जहां हिंसा ही उसके मूल में है। जिसका मूल ही जहरीला हो, वो मीठे फल कैसे देगा।!!!
जो ये ढांचा तोड़ना चाहेगा उसे मार दिय जाएगा, भुला दिया जायेगा। और अगर वो नहीं कर पाए तो उसे भगवान बना दिया जायेगा। मनसुर को मारा गया, ईसा को मारा गया।बुद्ध ,कृष्ण को पूजा गया।
और उनके जाने के बाद उनके भक्तों भी वही आचरण करेंगे।
“छल प्रपंच , हत्याएं, और हिंसा”
इसलिए ये सारी दुनिया की सभ्यता को उचित मानना सही नहीं होगा। ईस सभ्यता के माध्यम से अगर आप करुणा, प्रेम की आशा रखते है तो ये मुर्खामी होगी।
उनके लिए और रास्ता ढूंढ़ना होगा।