मैं किस जाति से हूँ या मेरे मित्र किस जाति से है, या जातिव्यवस्था का ज्ञान मुझे तब हुआ जब मैं वर्ग तीन का विद्यार्थी था, चूँकि मेरा विद्यालय सरकार के अधीन थी तो हमें सरकार के तरफ से पुस्तकें प्रदान की जाती थी, लेकिन जैसा कि हम सब इस बात ये वाकिफ है कि वो पुस्तकें पूरी नहीं भेजी जाती। नए क्लास में पहला दिन था सब खुश थे नई पुस्तकों को लेकर सभी को उत्सुकता थी, क्लास टीचर कुछ पुस्तके लेकर आई और कुछ बच्चों का नाम पुकारा और उन्हें पुस्तक दे दी गई और पुस्तक खत्म हो गई, टीचर ने बाकी बच्चों से माफी मांगते हुए कहा कि इतने ही पुस्तक आई थी बाकी बच्चे बाजार से खरीद ले। मैं अचरज भरी निगाह से अपने परम मित्र को देखा और मन ही मन सोचा आखिर इसे ये पुस्तक क्योंकि दी गई, जबकि इसके पिता तो सरकारी नौकरी करते है ये पुस्तके तो खरीद सकता है जबकि मेरी और कई बच्चों की ये स्थिति थी कि पुस्तक तो दूर की बात उस वक़्त स्कूल की 30 रुपए की फीस भी बमुश्किल दे पाते थे। मन मे यह कुंठा दबाए में घर पहुँच सारी बाते अपने बड़े भाई से बतलाया तो उन्होंने मुझे समझाया कि वो पुस्तकें पहले एससी-एसटी को प्रदान की जाती है उनके उपरांत ही बाकियों को। तब पहली बार मुझे जाति और आरक्षण का बोध हुआ, टैब तक ना तो मुझे अपनी जाति का बोध था ना अपने मित्र की जाति का, एक बाल मन के समझ से परे ये बाते धीरे-धीरे धुंधली हो गई।
वैसे भारत मे आरक्षण कोई नई बात नही है। स्वतंत्रता पूर्व भी विभिन्न समय मे विभिन्न प्रकार के आरक्षण प्रदान किये गए थे। 19वी शताब्दी के अंत मे सर्वप्रथम आरक्षण की मांग दक्षिण भारत मे शुरू हुई। 1895 में सर्वप्रथम मैसूर राज्य ने ‘मिलर कमीशन’ का गठन किया तथा उनकी अनुशंसा पर सरकारी नौकरी एवं शिक्षा में कुछ पद पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित किये गए। 1921 में मद्रास प्रसिडेंसी ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की। 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूना समझौते के अंतर्गत दलित वर्गो के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संविधान भी समाज के सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति या जनजाति की उन्नत्ति के लिए कुछ विशेष धाराएँ रखी गई। 1990 को मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.वी. सिंह ने स्वीकार करते हुए इसके आधार पर पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरी में 27% आरक्षण की व्यवस्था की जिसमें क्रीमी-लेयर में आने वाले ओबीसी को अपवाद रखा गया।
परंतु यह विड़बना है कि जिस आरक्षण का उद्देश्य समाज के उपेक्षित और दमित समुदायों को समाज के मुख्य धारा से जोड़ना था, समता के मौलिक अधिकार को समान रूप से जन-जन तक पहुँचाना था, वह उद्देश्य दलगत राजनीति के हाथों पड़कर राजनीति का भेंट चढ़ गया। वह ‘आरक्षण की नीति’ जो परंपरा के घेरों को तोड़ साझी नागरिकता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम थी वह ‘आरक्षण की राजनीति’ मस बदल गई, गुजरात की पटिलदार आंदोलन इसका मौजूदा उद्धरण है, किस प्रकार सत्ताधर पार्टी इसका विरोध करती है असमर्थता जताती है और विपक्ष सत्ता की चाह में उनसे वादे कर बैठता है। आज राजनीति ने आरक्षण को समाज मे अलगाव का और वोट बैंक का हथियार बना लिया है, भाई-भाई को आपस मे लड़ाया जा रहा है, आरक्षण का लालच देकर समाज में अलगाव व तनाव को बढ़ाया जा रहा है। आरक्षण की गलत व्याख्या अपने ही लोगों के मध्य द्वेष की भावना उत्पन्न कर रही है। वास्तविकता ये है कि आरक्षण का लाभ जिसे वास्तविकता में मिलनी चाहिए उन्हें मिल नही पाता और जिन्हें इसकी आवश्यकता नही है वो इसका अनुचित और खामोशी के साथ लाभ उठा रहे है।
कई बार ये सलाह दी जाती है कि नौकरी में आरक्षण के बजाय हमें उनके शिक्षा व्यवस्था पर जोड़ देना चाहिए, जिससे वे भी सामान्य वर्ग के लोगो के साथ समान स्तर पर मुकाबला कर सके , क्या ये संभव है ? ये बिल्कुल संभव नही है, देश की आजादी के 70 वर्षों के उपरांत प्राथमिक शिक्षा की जो स्थिति है उसमें इसकी कल्पना करना भी संभव नही है। निचले तबके के बच्चो को सरकारी स्कूलों में शिक्षा के नाम पर कैसी शिक्षा मिलती है ये किसी से छुपा नही है, ऐसे में क्या वो कभी सामान्य वर्ग या अपने ही वर्ग के आर्थिक रूप से सक्षम बच्चों से प्रतिस्पर्धा कर पाएंगे ? अतः इसके बीच का रास्ता निकलना चाहिए जिसमें आरक्षण के लिए आर्थिक और सामाजिक दोनों मानकों को आधार बनाया जाए, वैसे समुदायों को चिन्हित कर हटाया जाए जिन्हें अब आरक्षण की आवश्यकता नही है, और खुद समाज के बीच से ये आवाज आनी चाहिए, नही तो जिस जाति व्यवस्था का दंश हमने झेला है वो आगे भी आरक्षण के नाम पर जड़े जमाए जाएगी और और हमारा समाज कभी जाति व्यवस्था के दुष्चक्र से नहीं निकल पाएगा, जैसा शुरुआत में ही मैंने अपने जीवन की घटित घटना से परिचित कराया कि किस प्रकार आरक्षण के नाम पर हमारे मन जाति का बीज बोया जाता है।